यही है प्रेम
यही है प्रेम
यौवन की दहलीज पर राधा का आज प्रथम कदम था, सोलह साल की जो हुई थी आज। देखते ही देखते बचपन की गुड़िया आज पूर्ण नारीत्व को प्राप्त हो गई। दो नयन से अनगिनत स्वप्न सृजित होने लगे। रात की गहरी नींद में खिलौने अब नही आते, एक अलौकिक आभा वाला नवयुवक सपनो में नित रोज आने लगा है। जब भी उससे पूछो तो बस हँस कर नाम बताता हैं केशव।
नींद के बाद हर रोज राधा यह स्मरण करने का प्रयत्न करती की केशव तेज युक्त चहरे के मध्य मुस्कराते मुख से क्या कहा गया।
वो बोलता तो कुछ है ही नही, लेकिन मुस्करा कर क्या नही कहता। सब तो बोल देता है भला वो। मैं उसकी मुस्कराहट को क्या मानू? प्रेम कहा शब्दो का मोहताज़ है। देह का हाव भाव और आनंदित होता रोम रोम से ही तो इसका अंकुरण होता है। आज दोनो के रोम रोम आनंदित थे।
भोर भये ही युमना तट का किनारा आज सुरमयी है। हल्के पीत वस्त्र धारण कर नदिया किनारे के समीप फलित जामुन के नीचे केशव की मुरली से सुरों की पवन बह चली है। राधा के कानों में ज्यूँ ही मुरली के सुर गिरे, राधा का रोम रोम आनंदित हो गया।
न चाहते हुए भी कदम युमना तट की और निकलने को मचल पड़े। कुटुम्ब के चक्रव्यू पर कैसे पार पाया जाये? एक तरफ जहाँ मुरली की तान मदहोशी का आगमन कर रही तो दूसरी और संस्कारो की बेड़ी पैरों में लगी है।
मटकी सर पर रखते हुए, राधा बिना संगिनी के युमना तट की और उमड़ पड़ी। युमना की और बढ़ते हर कदम के साथ मुरली के सुर तेज़ होते गए साथ ही बढ़ती गयी ह्रदय की गति।
युमना का किनारा हिलोरे भरने लगा। इसके जल को भी मुरली की सुरमयी से प्रीत हो गई। हर कण मोहित था। न जाने राधा के संग कोन कोन केशव के प्रीत में सुरमयी थे।
आज प्रीत के नाम के दो अक्षर नही थे। लेकिन खामोशी और मंद मंद मुस्कान में तो बस प्रीत ही समायी थी। राधा के रोम रोम के संग सृस्टि का कण कण प्रीत की ताजी और मोहक प्राणवायु में खुद को शामिल कर रहा था।
केशव की मंद मंद हँसी और आंखों की चमक जैसे कह रही हो कि प्रीत का प्रदर्शन तो केवल एक भोंडापन है। प्रीत की वास्तविक परिभाषा तो मात्र एहसास में है। आत्मभाव का सद हावभाव ही प्रीत का इजहार है, जो केशव की मुरली, राधा की तड़प और युमना के हिलोरों में है।