THE UNIQUE

Fantasy

4.5  

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"खोये पल"

"खोये पल"

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रात को देर तक लैपटॉप पर मत्थापच्ची कर सुस्ताने को जैसे ही आह भरा तो कब आँख लग गई पता न चला, जब आंख खुली तो आज था। कलेंडर में एक तारीख़ बढ़ चली थी। हफ्ते का सबसे खूबसूरत वार था। यानी आज इतवार था।

खुद का दिन, ऑफीस जे झमेलों से दूर, न टाइम की कोई फिक्र न कोई समस्या एकदम खुद के करीब। आज बॉस की झिकझिक नहीं है। यह हँसी ख़ुशी के 24 घंटे जो 7 दिन बाद आते है, उसमे से 8 पहले ही गुजर चूके है।

9 बजे थे जब आँख खुली, हाथों को फैला कर अंगडाइया लेकर मानो ऐसा लगा जैसे रोम-रोम आनंदित हो गया। खिड़की के पर्दे ज्यूँ ही खोले तो बाहर झाँक कर देखा तो सड़क पर कुछ बच्चे गुट बनाकर बाते कर रहे है। सामने पार्क में कुछ बच्चे भागमभाग खेल रहे है।

यह सब देखना इतना ही अच्छा था, जितना उस पल को जीना। न जाने मैं कब अपने बचपन मे चला गई, इसे एहसास को ओर करीब आने में ज्यादा वक्त न लगा।

दीवार से लगे एक फ्रेम से एक बच्चा मुस्करा रहा था। यह मेरे बचपन का वो पल था जो बाबा ने संजोया था। वो हँसी आज मुझे चिड़ा रही थी। मुझसे प्रश्न कर रही थी कि तूने मुझे कहा खो दिया है???

आँखों के सामने बचपन तैरने लगा, जब सुबह तो होती रही पर शाम कभी नहीं। बिन ए०सी० अब जिया जाना मुश्किल है और उस वक़्त जैठ माह की गर्मी भी चुभती नहीं थी।

रेहड़ी वाला आम लेकर आता है अब, मिठास नहीं होती, फ्रिज में रखे-रखे ही सड़ जाते है अब। उस वक़्त जब जी करता था किसी बगीचे में पेड़ से लटक कर आम तोड़कर खाना ओर गुठली को चूस कर उंगा देना। वो मिठास अब इन रेहड़ी वाले आमो में कहा है।

अब मित्र आफिस वाले है। जिनसे पास सैलरी, प्रमोशन, प्रेसेंट्सशन के अतिरिक्त कोई अन्य वार्तालाप का मुद्दा ही नहीं होता, उनके हर शब्द में कोई आशा है ही नहीं। हर पल भयभीत, गम्भीर ओर डर इसके अलावा कुछ नहीं।

आज फिर उस बारिश में भीगने का मन था जिसके आने से पहले आसमाँ में बादलों के घोड़े हाथी बन जाया करते थे। फिर वो नटखटी करने का मन था जिसके लिए डाँट लग जाया करती थी। 

सब बदल गया, साथ बैठ कर जब हम योजना बनाते थे कि मै बड़ा होकर ये करूँगा, तुझे वो दूंगा तुझे ये लेकर दूंगा....बला.. बला.....! आज वैसा कुछ है ही नहीं। आज खरीदने को पैसे तो है, लेकिन भोगने को समय है ही नहीं। 

उस बन्दर जैसी जिंदगी हो गई है, जिसका हाथ बादाम रखी बोतल में फस गया। न बादाम को हाथ छोड़ रहा न बोतल को हाथ। दोनो एक दूजे को पाना भी चाहते है और छोड़ना भी। लेकिन दोनों इतने मजबूर की मुक्त होकर भी गुलाम है।

उम्र तो दिन ब दिन बढ़ती जा रही है, लेकिन यह दिल रो आज भी वही है। गाँव वाला, नादान,नटखट ओर निर्दोष आज भी उन पलों को जीना चाहता है। सझोये हुए उन वक़्त के हिस्सों को अपना हिस्सा मान इतला रहा है। 

न जाने कब हँसी से हरा चेहरा उजाड़ हो गया, आंखे भीग गई। एहसास हुआ उन जवानी की बेड़ियों का जिसमे बचपन कैद हो चुका था। व्याकुल होकर इन बेड़ियों को अपना हमराही समझ चुका था। आजादी उसे चाहिये, लेकिन भविष्य के संकोच ने उसे निकलने न दिया। 

बार बार कोशिश करते हुए, न जाने कितनी बार आजादी के लिए मन मे क्रांति का ज्वार भी चला। मन और आत्मा के द्वंद में हर बार झूठे मन की जीत हुई। सच्ची आत्मा हर बार मुझ पर हँसते हुए घुटने टेकती। मुह चिढ़ाती उस हँसी में हर बार यह संदेश छिपा होता था कि आज तू फिर झूठ के अधीन हो गया है।

आज फिर वो कच्चा सा दिल......गुजरे कल से......नये लम्हे चुन रहा था। चहता तो था कि अमीरी ओर कल की योजना का लिबाज़ उतार फिर कच्छे-बनियान वाले बिना योजना वाले रहीश वक़्त में गोता लगाऊ, पर फिर लेखनी रुक गई, नौकरी त्याग का पत्र फाड़ कर फेंक दिया गया। 

तभी एक बॉल बालकनी से अंदर आती हुई मुझ से टकराई, यह मेरी समझ से दूर थी कि यह मुझे वापस आज में धकेलने आई है या मुझे चिढ़ाने...!

मैंने गेंद को वापस नीचे फेंक कर लैपटॉप खोला और फिर ऑफिस के काम मे मसगुल हो गया।


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