THE UNIQUE

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"मेरा गांव"

"मेरा गांव"

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मेरे घर के पास ही एक बच्चे का जन्म हुआ है। बहुत ही हँसी खुशी का दिन है। पर यह क्या 2 दिन हो गए न तो कोई मंगल गीत न ही कोई रस्म। 4 दिन बाद तेज़ आवाज़ सुनाई पड़ी। डी०जे० पर चार बोतल वोडका काम मेरा रोज का गाना बज रहा था। मैं असमंजस में था, कि बच्चा हुआ है या कोई शराब की दुकान खुली है?? 


सोचते-सोचते कब में अपने बचपन में चला गया पता ही न चला और मेरी दादी याद आ गई। वो कहती थी शिवरात्रि की शाम थी जब हमारे घर मे पहली दफा मेरे रोने की आवाज़ सुनी गई। उस वक़्त खुशी का कोई ठिकाना न था। घर-घर घुघरी बतासे बांटे गए थे। चाची-ताई, घर-परिवार और मोहल्ले की औरतों ने मिलकर शुभ मंगल गीत गाये। लेकिन यहाँ तो कुछ भी नहीं।


बचपन के वो दिन आज मेरे जेहन में ज्यूँ का त्यु है। बरगद का पेड़ जिसके ऊपर स्कूल के बाद मैं अपने दोस्तों के साथ चढ़ जाया करता था। 


जहां रात कभी होती ही नही रही और दिन कितना छोटा होता था। खुशी अपनो के साथ बांटने पर बढ़ जाती थी। इक घास की झोंपड़ी में भी न जाने कितनी खुशियाँ थी। पापा के कंधे ओर गांव में मेले को कौन भूल सकता है। गांव का तालाब जिसका एक से दूसरा किनारा तक तैरना होड़ हुआ करता था। गाय, बकरी, भेड़ के झुंड। सुबह सूरज के साथ कोयल की आवाज़ आती थी। शाम को पंछियों का झुंड आसमाँ को ढक लेता था। और रात में तारे आसमाँ को मेरी माँ की ओढ़नी में लगे तारो की तरह ढक लेते थे।


गांव की 3000 की आबादी में हर कोई अपना होता था कब उनके नाम के साथ क्या-क्या जुड़ गया पता ही न चला। हर औरत के साथ दादी, माँ, काकी, ताई, बाई, भाभी ओर न जाने क्या-क्या जुड़ गया। हर आदमी काका, ताऊ, भैया हो गया। सफेद मूंछों वाला, पगड़ी पहना, धोती पहने लकड़ी पकड़ा हुआ हर कोई दादाजी होता था।


यहाँ तो पति पत्नी और बच्चों के अलावा और कोई अपना नहीं। क्या यही आधुनिक शहरी सभ्यता है? यहाँ तो 30 से 100 साल तक सब बस अंकल ऑन्टी है, ओर रिश्तों के लिए कोई जगह नहीं।


मेरा बचपन पलक झपकते ही निकल गया। पता ही नहीं लगा कब इतना बड़ा हो गया कि अब गांव की छोटी से स्कूल मुझे आगे की शिक्षा देने में असमर्थ है। समय ने करवट बदली ओर मैं गांव से निकल शहरों मैं चल पड़ा। आज भी याद है मुझे जब मेरे दादाजी ने मुझे दही शक्कर खिला के शहर के लिए भेजा था। 


उस दिन शहर जाते वक्त मैं कई यादें साथ ले जा रहा था। ओर पीछे कुछ छोड़ भी गया था। मेरी देह तो शहर चली गई। पर आत्मा वही गांव के घास के छप्पर मैं ही रह गई।


वक़्त के साथ मैं भी बदलने लगा, पर अकेले मैं आज भी खुद को खोजता हूँ तो पाता हूं कि क्या मैं उन लोगों के बीच हूँ जहां घर जितने पास है मन उतने ही दूर। बिल्डिंग जितनी ऊंची है चरित्र उतना ही नीचा। कहने को सब ने महंगे कपड़े पहने है पर सब यहाँ तो सब नंगे है। बस एक ही बात है और वो है सिर्फ........दिखावा। ग्लानि है मुझे की मैं शहरी हूँ गर्व है कि मैं आज भी अपने गांव का बच्चा हूँ। आज मैं पूरा शहरी हूँ पर कही न कही मन के एक कोने में आज भी गांव है। जिसे मैं तब ढूंढता हूँ जब अकेला होता हूँ। 


मैं तो शहर आ गया लेकिन वो आत्मा आज भी वही उसी गांव में उसी बचपन में है।



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