Indu Prabha

Abstract

4.3  

Indu Prabha

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यात्रा

यात्रा

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बचपन किसी का भी हो अतुल्य होता है। बचपन की कोमल यादें सुन्दर वस्तु, पवित्र दोस्ती अपना प्रभाव बनाए रखती है। माँ का खेल खेल में समझाना, ‘मजबूत शक्ति इच्छा शक्ति’ से ‘सामने की दीवार भी खिसक जाती है’। हढ़ता होने पर ‘सामने पहाड़ खड़ा नहीं रहता’। मैं इन सब बातो को सोचती, ‘एक बार माँ ने मुझे कहानी सुनाई, ‘दाल का दाना चिड़ियाँ ले गयी’। कहानी सुनते-सुनते मुझे नींद आ गई।नींद में अपने को मैंने खेत में पाया वहाँ मैं चने की कोमल पत्तियों को देख-छू रही हूँ। इन पत्तियों का साग भी माँ कितना अच्छा बनाती हैं। चना अपने सभी रूपों में अच्छा लगता है।

मैंने देखा एक बालक मेरी ओर ही चला आ रहा है। वह हम उमर का ही रहा होगा। हमने अपनी बातों के बीच चलते हुए, खेत से चने के कुछ पौधे निकाले, सूखी पत्तियों की सहायता से उन्हे भूना और खाये, बड़ा ही आत्म संतुष्टि वाला स्वाद था।

इसी बीच वहाँ गाय चराता हुआ एक ग्वाला आ गया, हमने उस बालक को भी भूने बूट दिये और गाय का दूध पिया, दूध से एक मिठास वाली तृप्ति मिली।

एक पहाड़ी सामने दिखाई दे रही थी। हम दोनो घूमते हुए वहाँ पहुॅचे तथा पहाड़ी पर चढ़ने लगे, चढ़ते हुए हमारे साथ एक अचरंज हो रहा था, जैसे जैसे हम पहाड़ी पर चढ़ते जा रहे थे, हमारी उमर भी बढ़ रही थी। वहाँ जाने पर देखा, एक मंदिर मिला तथा पुजारी जी आरती कर रहे हैं पुजारी जी ने आरती के बाद प्रसाद रूप मे हम को माला दी वह माला हम दोनो के गले मे आ गिरी। ईष्वर को साक्षी मान कर, हम दोनो ने नया जीवन आरम्भ करने के लिये ईष्वर से आषीर्वाद लिया। हमारी सुखद स्मृतियाँ सजग हो रही थी जीवन रस युक्त लग रहा था, आनन्द को अनुभूति हो रही थी जैसे कोई रहस्य प्राप्त हो गया हो।

कुछ देर में स्कूल के बच्चे आ गये वे बाल दिवस मना रहे थे, बच्चों ने चाचा नेहरू को याद कर के गीत गाया। मैंने बच्चों को पत्ते का दौंना बनाना बताया। पास से गन्ने का रस खरीदा तथा भूने चने मिला कर लड्डू बनाए सब बच्चो को दौने में रख कर दिये। छोटे-छोटे कार्य करने पर कार्य का प्रत्येक अंषपूर्ण हो जाता है।

जब हम वापस आने लगे, साथी के पैर में काँटा लग गया, मैंने शीघ्र ही काँटा निकाला पहाड़ी में उगे अलोविरा से एक पत्ती लेकर उस का रस लगा दिया, रस लगाने पर आराम से चल पा रहे थे। उतरते समय हमारी उमर फिर से बढ़ रही थी, हम थोड़ी देर में उसी खेत पर आ गये अब हम लगभग पच्चपन के लग रहे थे। हमे भूख लग रही थी, खेत के पास सन्तू मिल रहा था, हम दोनो ने सन्तू खाया। वास्तव में कर्म की कुषलता ही योग है।मन्दिर से मधुर ध्वनी आ रही थी हम दोनो मौन थे जैसे मौन ही भाष्य बन गया था। मुझे सोहन लाल द्विवेदी जी की पंक्तियाँ याद आई-

‘मैं ऊषा बन कर जगाने आ रहा हूँ,

अरूण चल सजाने आ रहा हूँ।’’

तभी मेरी नींद खुल गई, मैंने अपने आप से कहा-जिन्दगी एक रास्ता है, जो हर पल जीवन-यात्रा में हमें बहुत कुछ सिखता चलता है।



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