दीपू
दीपू
दीपू अपनी माँ का एक मात्र सहारा था। छोटा था, काम का पूरा था। अभी खोया अथवा पाया की समझ से दूर था। दिन भर अपनी लगन में लगा रहता, पास के विद्यालय में अपनी शिक्षा प्राप्त करता था। दीपू प्रतिदिन साईकिल से स्कूल जाया करता था। एक दिन स्कूल जाते समय दीपू ने देखा, हम उम्र का बालक उसी रहा से चला आ रहा है। पैरों पर चोट आने के कारण चलने में कठनाई अनुभव कर रहा था। दीपू ने साईकिल रोक कर उससे पूछा, "कौनसे विद्यालय में पढ़ते हो ?" बालक का नाम चाँद था। दीपू ने चाँद को स्कूल पहुँचने में सहायता करी। यह सिलसिला कुछ दिनों तक चलता रहा। रास्ते में दीपू ने चाँद को पंक्ति सुनाइ, " हो समय कितना भी भारी , हमने न उम्मीद हारी।" दोनों में इसी प्रकार बातचीत चलती रहती।
कुछ दिन बाद परीक्षा होने वाली थी और दीपू सब कुछ भूल कर पढाई में लग गया। दीपू के पास माँ का आशीर्वाद तथा लगन दोनों ही थे। धीर धीरे समय व्यतीत होता गया और इस बीच बहुत कुछ बदलाव आया। आज दीपू को उसके नौकरी के इंटरव्यू के किये बुलाया गया था। वह शीघ्र ही अपना इंटरव्यू देने के लिए पहुँचा। इस समय उसके मन में अनेक विचार चल रहे थे किंतु जैसी ही उसने कमरे में प्रवेश किया, उसे अपूर्व शान्ति का अनुभव हुआ। इंटरव्यू में एक तारतम्यता बनी रही। जब वह बाहर आया, तो चेहरे पर संतुष्टि और प्रसन्नता दिखाई दी तथा ह्रदय में कोमल अनुभूतिया हलचल कर रही थी।
कुछ दिनों बाद उपरान्त , दीपू अर्थात दीपक को नियुक्ति पात्र प्राप्त हुआ। दीपक को अपना कार्र्यभार कुछ दिन चांदकुमार की देख रेख में करना थ। दीपक ने आशा और नए उत्साह से तैयारी में लग गया। अपने अंतर मन में कभी ईश्वर को, कभी माँ को धन्यवाद देता था। दीपक ने अपने मोबाइल से कवि रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियों को सुनता था।
"हो तिमिर कितना भी गहरा, हो रोशिनी पर लाख पहरा।
सूर्य को उगना पड़ेगा, फूल को खिलना होगा।।
दीपक उत्साह और आत्मविश्वास के साथ ऑफिस गया। वहाँ चाँद से मिलना हुआ। दीपक को एक एक करके सभी बातें चित्र - पट की तरह सामने आ रही थी , जैसे स्कूल साईकिल बालक सब सजीव हो उठे थे। तभी एक शालीन स्वर ने तन्द्रा को भांग करी । " क्यों दीपक पहचाना ?" चाँद कह रहा था। दीपक को यह स्वर जाना पहचाना आत्मीयतापूर्ण लगा। उनके जीवन में परिपक्वता तथा नए परिवर्तन के साथ अतीत की स्मिर्तियाँ धीरे धीरे नवीन रूप उभरती आ रही थी। दोनों मित्र अपनी बातें साझा कर रहे थे। एक भावात्मक लगाव एवं विश्वास वातवरण में सुरभि बिखेर रहा था। नवीन रहा उनका अभिनन्दन कर रही थी। अपनी सुनहरी छटा से स्वागत कर रही थी। " मित्रता ईश्वर के वरदान से कम न होता। मित्रता अनमोल रत्न के सम्मान है और इससे सभी मुश्किलें सरल हो जाती है। "