वर्तमान और भविष्य की एक नई पहल
वर्तमान और भविष्य की एक नई पहल
ट्रिंग ट्रिंग की आवाज बजते हीं राजू फोन की तरफ भागा कि उसका पैर एक डोरी में उलझ गया और वह गिर गया अब क्या था पूरा घर उसके रोने की आवाज से गूंज उठा। वहीं सोहनलाल सोफे पर बैठकर अखबार पढ़ रहें थे ,अचानक उस आवाज से उनका ध्यान अखबार से हटकर पोते की ओर गया, वह क्या देखते हैं कि उनका प्यारा पोता राजू गिरा हुआ है वह लाठी के सहारे उठे और जाकर पोते को उठाने लगे तभी घर के सभी लोग जमा हो गए क्या हुआ ?क्यों रो रहे हो और किसका फोन था ? अरे राजू कैसे उछलते रहते हो ,क्या बाबूजी गिर गए।जितने लोग उतनी बातें। विश्वजीत [सोहनलाल के बड़े पुत्र ] यह राजू तो बस उधम मचाता रहता न जाने किसका फोन था फिर से आया भी नही।सभी के बातों को काटते हुए
सोहनलाल -चुप रहो तुमलोग, यहाँ बच्चा गिर गया है और तुमलोगों को अपनी अपनी बातों की पड़ी है आया- आया, जिसका भी फोन हो |बाबूजी [सोहनलाल ]के बोलते हीं सब चुप होकर अपने- अपने कामों में लग गए। आठ बजे के करीब फिर एकबार फोन आया इसबार बाबूजी हीं फोन उठाए उधर से आ रही आवाज सुन कर उनके ख़ुशी का ठिकाना नही रहा। अरे दीनानाथ कहाँ हो तुम? दोस्त इतने दिन बीत गए तुमसे मिले ,कभी याद नही आई ?
दीनानाथ –याद तो बहुत आती थी लेकिन वक्त ने ऐसे जंजीरों में बांधा कि ख़ैर छोड़ो ,अपनी सुनाओ
सोहनलाल –अपनी तो अच्छी चल रही है।
दीनानाथ –आज भी यह दोस्त स्वार्थी बनकर हीं फ़ोन कर रहा है।
सोहनलाल - क्या हुआ कोई बात है तो खुल कर बताओ अभी मैं जिन्दा हूँ।
दीनानाथ –नही -नही ,बस तुम्हारी भाभी के गुजर जाने के बाद अकेला रह गया हूँ यार
सोहनलाल –क्या भाभी नही रही और मुझे बताए भी नही ,इस बात से मैं बहुत नाराज हूँ ,जाओ मैं बात नही करूँगा इतनी भी क्या व्यस्तता कि तुमसे एक फोन नही किया गया। अच्छा कहो क्या बात है ?
दीनानाथ –माफ कर देना अपने इस नासमझ दोस्त को। सही है , बात मत करना मुझसे लेकिन आज इस मजबूर दोस्त की मदद कर दो। सुनो न तुम्हारे हीं शहर में मेरे बेटे का तबादला हुआ है।मैंने रात में बात कि तो उसने बताया कि उसका घर तुम्हारे घर के पास है लेकिन अभी कोई मोबाइल नही उठा रहे हैं शायद सब व्यस्त होंगे।
सोहनलाल –ठीक है,लेकिन इतने करीब होकर मिलने नही आया और जब भाभी जी नही हैं तब तुम क्या कर रहें हो वहाँ !अगर बेटे से बात हो जाती तो आज भी तुम मुझे फोन नही करते ? कोई बात नही ,एकबार तुम भी आओ फिर से एकबार हमदोनों दोस्त मिलकर बचपन की यादें ताजा करते हुए बच्चे बन जाते हैं |
दीनानाथ –आऊंगा ,बच्चों ने तो बहुत जिद की थी, लेकिन मुझे जाने का मन नही किया ,ठीक है अब तो यहाँ लम्बी कतार बन गई है ,ठीक है यार फोन रखता हूँ।
सोहनलाल बरामदे पर रखी कुर्सी पर जाकर बैठ गए, आज सोहनलाल को वह मजाकिया दीनानाथ महसूस नही हुआ जो कभी हुआ करते थे शायद भाभी की कमी ने ऐसा बना दिया।मन हीं मन यह सोचकर सोहनलाल उदास हो गए।
उनका ध्यान तब खुला जब राजू ने उनके पैरों को छूकर कहा दादाजी मै स्कूल जा रहा हूँ। सोहनलाल – हाँ खुश रहो मेरे लाल ,पापा कहाँ हैं ?चलो मैं बस तक छोड़ देता हूँ।
विश्वजीत –पाँव छुते हुए आप बहुत थक गए हैं मैं राजू को छोड़ते हुए आफिस चला जाऊंगा।
एक दिन बाग़ में टहलते हुए दीनानाथ के बेटे से सोहनलाल की भेंट हो गई ,प्रकाश तो देखकर आगे बढ़ गया लेकिन सोहनलाल को पहचानते देर नहीं लगी।
सोहनलाल –प्रकाश प्रकाश
प्रकाश –नमस्ते अंकल ,आप यहाँ मैं तो आपको देखा हीं नही।
सोहनलाल –हाँ भाई इस भागती दौड़ती जिन्दगी में किसी को फुर्सत नही है ,अच्छा बताओ कहाँ घर ली है।
दीनानाथ से बात हुई तो पता चला कि तुम इसी शहर में आ गए हो अच्छा लगा ,अब दीनानाथ को भी यहीं लेकर आ जाओ। वह मानेगा नही लेकिन गाँव में अकेले कैसे रहेगा।
दोनों अपने -अपने घर की ओर निकल गए।
प्रकाश – [घर पहुंचते हीं ]यह पिता जी को क्या जरूरत थी , अपने दोस्त को यह बताने कि मैं यहाँ आया हूँ।जब एकबार बोल दिया गया कि इधर उधर बात नही करे शान्ति से जीवन जिएं तो अपनी आदत से मजबूर हैं ओह
रीता –क्यों अब क्या हुआ ?
प्रकाश –आज उनके एक दोस्त मिले थे।
रीता –क्या कहा उन्होंने ?
प्रकाश –पिता जी को यहाँ लाने की बातें करे रहें थे।
रीता –उनको हमारी जिन्दगी में दखल नही देना चाहिए।
भाग्य की विडम्बना तो देखो की तभी दीनानाथ जी का फोन आ गया अब तो प्रकाश ने एक नही छोड़ी। बेचारे दीनानाथ ने बिन कुछ कहे फोन रख दिया |
अचानक एक दिन
सोहनलाल को अपने घर देखकर प्रकाश अचंभित हो गया लेकिन नमस्ते करते हुए स्वागत किया चाचा जी आप
सोहनलाल - क्या मुझे नही आना चाहिए था ?
प्रकाश –नही- नही मैनें ऐसा कहाँ कहा ?
सोहनलाल –अरे बच्चों से तो मिलाओ
,कहाँ हैं ? दीनानाथ नही हूँ मानता हूँ लेकिन मै भी दीनानाथ से कम नही हूँ।
करीब आधे घंटे बैठने पर प्रकाश के दोनों बच्चे स्कूल के लिए निकलते - निकलते नमस्ते किए। रीता भी अनमने मन से हाथ जोड़कर चाय के लिए आग्रह की।
सोहनलाल –नही बहू बेकार की तकलीफ नही उठाओ।मै ज्यादा चाय नही पीता हूँ। प्रकाश तम्हें भी देर हो रही होगी।
प्रकाश –नही- नही आज मैंने छुट्टी ली है।
सोहनलाल –क्या हुआ ?पूछने का हक तो नही है लेकिन, रहा न गया।तबियत तो ठीक है ना ?
प्रकाश -जी चाचा जी , ऐसी बात नही है लेकिन जब से बेचारी [रीता ]आई है एक दिन भी बाज़ार नही गई है घर में परेशान हो गई होगी इसलिए आज बाजार ले जाऊंगा।
सोहनलाल –अच्छा चलता हूँ।कभी मौका मिले तो घर पर आओ।
प्रकाश –जी चाचा जी जरूर
सोहनलाल घर पहुंच कर चुपचाप अपनी कुर्सी पर बैठ गए। राधा उधर से आई तब उनका ध्यान टूटा।
राधा –बाबूजी कब आए ,आज आपने चाय भी नही पी और कहाँ चले गए थे राजू भी स्कूल जाते समय कितना खोज रहा था मैं चाय बना कर लाती हूँ।
सोहनलाल –नही बहू आज चाय पीने की इच्छा नही हो रही है
बहुत दिन बीत गए ना प्रकाश आया ना दीनानाथ का फोन हीं और सोहनलाल फोन भी करे तो कहाँ करे लेकिन वे प्रायः प्रकाश के परिवार का हालचाल जानने के लिए प्रयासरत रहते थे क्योंकि आखिर वह उनके बचपन के परम मित्र का सन्तान था।
एक दिन अचानक प्रकाश के घर के आगे से गुजरते हुए सोहनलाल का पैर ठहर गया अरे यह क्या हो रहा है आवाज कुछ जानी पहचानी लग रही थी लेकिन रिक्शावाले की ऊँची स्वर में दूसरे व्यक्ति की आवाज दब रही थी सिर्फ दूसरा व्यक्ति यह कह पा रहा था कुछ देर और भाई ...आता होगा।
रिक्शावाला – एक घंटे से यही सुन रहा हूँ लेकिन कोई नही आ रहा है एक ट्रक का समान रिक्शा पर लेकर चले आए हैं अब उतरो मेरे रिक्शे से कितनी सवारी छुट गई।कहाँ से चले आते हैं पैसे रूपये भी है या बेटे के भरोसे चले आए हो।अब बहुत हुआ उतरो।
दीनानाथ –मत क्रोधित हो बेटा मै तुम्हारा मेहनताना दूँगा और रिक्शा से उतर कर बोरी उतारने लगा।
तब तक सोहनलाल रिक्शा के पास पहुँच चुके थे अपने दोस्त की स्थिती देखकर बहुत दुखी हुए अरे यार तुम और तुम रिक्शावाले मैं दूर से सुनता आ रहा हूँ क्या किसी पिता के उम्र से इस प्रकार बात की जाती है।
रिक्शावाला –देखिए साहब मैं भी किसी बुजुर्ग से इस प्रकार बात नही करता लेकिन जब सवाल रोजी -रोटी की होती है तब सभी को सोचना पड़ता है एक घंटे से ............अब आ जाएगा ,अब आ जाएगा सुन सुन कर दिमाग पक गया है ,मुझे अब माफ करो, दो मेरा रुपया या वह भी नही है।
सोहनलाल –लो पकड़ो और आगे से इस मौहल्ले में नजर मत आना नासमझ।
दीनानाथ –छोड़ो दोस्त ,कैसे हो ? तुम्हें बहुत दिन बाद देखकर मन हर्षित हो उठा है। चलो कुछ क्षण बैठकर बातें करते हैं, तब तक प्रकाश भी आ जाएगा।
सोहनलाल –यहाँ कहाँ बैठोगे ?चलो यहीं पास में मेरा घर है।थोड़ा विश्राम करना मैं प्रकाश को फोन कर दूँगा, वह आकर ले आएगा।
दीनानाथ –नही दोस्त ,उसे बुरा लगेगा कि बाबूजी आए और थोड़ा राह भी नही देखे और इसबार पक्का इरादा करके आया हूँ दस दिन रुकूंगा और तुम्हारे साथ और अपने बच्चों के साथ ढेरों बातें करनी है।इस जीवन का क्या भरोसा है दोस्त, उधर से तब तक प्रकाश भी आ गया।
प्रकाश –नमस्ते चाचा जी
सोहनलाल –खुश रहो ,प्रकाश क्या तुमने अपने पिताजी को नही देखा ?
प्रकाश – पिताजी जब आपको मैने कहा था कि आने की आवश्यकता नही है ,आपको भी तो एक जिद रहती है ,कोई उपयोग नही है आपके लाए इन सामानों का ,कौन खाता है ? यह फालतू सामान, कितना बार समझाया हूँ नही चाहिए, जितना आपको जरूरत है उतना हीं फसल उगाइए आखिर आपको पता है कि आपके बाद कौन जाएगा उस जमीन में फसल लगवाने और कटवाने आप जब तक हैं तब तक उसके बाद तो उस जमीन का बिकना तय है अब खड़े हीं रहेंगे चलिए अंदर मुझे फिर आफिस जाना है एक दो घंटे में रीता आ जाएगी थोड़े देर के लिए अपनी सहेली के घर गई है।
प्रकाश ड्राइवर से बोरी उठवाने लगा
दीनानाथ के आँखें डबडबा गई लेकिन अपने गम को छुपाते हुए वह बोल उठे अरे दोस्त यह सब मेरे लाड –प्यार का असर है।
दीनानाथ - जब छोटा था तब से हीं मैंने उसे परिवार से अलग कर दिया था कि मेरा बेटा बड़ा इन्सान बनेगा इतना बड़ा बन गया कि मैं छोटा हो गया दोस्त ,मेरी गलती है कभी परिवार क्या होता है दादा- दादी, चाची- चाचा भाई- बहन का प्यार लगाव कुछ समझने नही दिया। ठीक है दोस्त मिलते हैं।
शाम में टहलते टहलते सोहनलाल प्रकाश के घर पहुँचे मन तो नहीं था लेकिन अपने प्यारे दोस्त के लिए यह भी स्वीकार था लेकिन वहाँ पहुंच कर पता चला कि दीनानाथ तो चला गया।
एक दिन अचानक दीनानाथ को अपने सामने देखकर सोहनलाल चौंक गए अरे दोस्त तुम कब आए जाओ मैं तुमसे बात नही करता उस बार बिना मिले चले गए कम से कम बता तो देते कि तुम ...............ओह मैं भी
दीनानाथ –अब मै सदा के लिए यहीं आ गया हूँ तुम्हें अपना नया घर दिखाने के लिए लेने आया हूँ।
सोहनलाल –प्रकाश ने नया घर लिया है ?
दीनानाथ –तुम बहुत सवाल पूछते हो ,अभी सिर्फ मेरे साथ चलो।
दीनानाथ –यह देखो मेरा नया घर ,नया परिवार।जानते हो जिस दिन मेरे बेटे ने यह कह दिया की आपके बाद वह जमीन तो बिकना हीं है ,उसी दिन मैने मन में ठान लिया था कि मेरे मरने के बाद क्यों ?मेरे जीवित रहते हीं क्यों नही और मैने सारी जमीन बेचकर अपनी खुशियाँ खोज ली है।यहाँ वे बच्चे हैं जिनके माँ बाप नही हैं यहाँ वे लाचार माँ बाप हैं जिनके बच्चे नही हैं या होते हुए भी नही हैं मेरी तरह।
मानो तो कोई किसी का नही है नही तो यह एक परिवार है कोई अम्मा है खाना बना कर खिला देती हैं तो कोई दादी और नानी लोरी सुना कर सुला देती है कोई दो अक्षर का ज्ञान देकर ख़ुशी बाँट रहा है। बच्चे जब दौड़कर किसी को एक गिलास पानी हाथों में देते हैं या पैर छूकर आशीर्वाद लेते हैं तब उनलोगों का दमकता चेहरा मुझे एक संतुष्टि प्रदान करता है।
सोहनलाल –तुम धन्य हो
दीनानाथ –नही दोस्त लेकिन हाँ यह सच है कि जब यह गुजरता हुआ वर्तमान को आने वाले भविष्य के साथ झूमता हुआ देखता हूँ तो एक अदभुत प्रकाश से प्रकाशित भविष्य की कल्पना को साकार करने में अपने आपको न्योछावर कर देना चाहता हूँ फिर इस प्रकाश में कोई पथ से भटका हुआ दूसरा प्रकाश प्रकाशित होने की चेष्टा भी नही करे।यह मुझे मंजूर नही।
आज देखो माँ को बेटा दादी को पोता बाप को बेटा सबको सब मिल गया मै बहुत प्रसन्न हूँ दोस्त
सोहनलाल –और मुझे मिल गया मेरा प्यारा वही बचपन का दोस्त जो कहीं खो गया था। मुझे तुम पर गर्व है दोस्त।