Meeta Joshi

Tragedy

4.8  

Meeta Joshi

Tragedy

वो चली गई....

वो चली गई....

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"कुकुड़ी-माकुड़ी कैं छो वे, मैं जो हुली ठुली,

कुकुड़ी कैंछी मैं छूँ जो छूँ, मकुड़ी कैंछी मैं छूँ जो छूँ। "

उत्तराखंड की दो चिड़िया कुकुड़ी-माकुड़ी का संवाद मैंने बचपन में अपनी मांँ से सुना था। मैं नहीं जानती इन पंक्तियों को शुद्ध लिखने में मैं कितना सफल हुई हूँ। दोनों आपस में बात कर रही हैं, एक कहती है, "मैं तुझसे बड़ी हूंँ, तो दूसरी कहती है मैं तुझसे बड़ी हूंँ।" उनकी सुरीली आवाज में चहचहाना वातावरण को खुशनुमा बना देता है।

कुकुड़ी-माकुड़ी नाम से पुकारते थे बाबूजी उसे। उनकी प्यारी, सबसे लाड़ली, कुक्कू। आठ भाई-बहनों में बड़े से तीसरे नंबर की थी। सांवला रंग, दुबला-पतला शरीर, हंँसमुख स्वभाव, तीखे नाक-नक्श और स्वभाव से बातूनी। इतने गुणों की खान थी कुक्कू। जो एक बार उससे मिल लेता, उसे भूलता नहीं था। सर्वगुण संपन्न कहूँ तो यह कहना भी गलत नहीं होगा। घर की रौनक थी वो, बाबूजी घर में घुसते ही कुक्कू को आवाज लगाते।

भाई-बहनों में आपसी प्रेम कूट-कूट कर भरा था। उस समय इतने बच्चे हर दूसरे घर में मिल जाते थे। किसी के पांँच बच्चे,किसी के छः बच्चे यहांँ तक कि नौ-नौ बच्चे भी हुआ करते थे। आज की तुलना में उस समय बच्चों की संख्या ज्यादा होती थी पर आपसी प्रेम दुगना। ऐसा नहीं था कि ज्यादा बच्चे होने से किसी एक की कदर नहीं होती थी अपितु सबकी अपनी अहमियत होती थी।

बाऊजी घर में अकेले कमाने वाले थे और खाने वाले....कुल दस जने। इसके अतिरिक्त भाई बंध, रिश्तेदार सब का आना-जाना लगा रहता। उस समय रिश्तों में खींचातानी से ज्यादा आपसी प्रेम होता था। बाऊजी के लिए भाई-बहनों की संताने भी उनकी अपनी संतान जैसी थीं।

अम्मा भी सभी की अम्मा थी लेकिन कुक्कू के लिए.. 'सखी'। जब सब उन्हें अम्मा कह पुकारते, तब वह सखी कह बुलाया करती। कहते हैं बच्चों की प्रथम पाठशाला उनकी मांँ होती है। अम्मा तो सही मायनों में अपने बच्चों की पाठशाला थी। कम पढ़ी लिखी अम्मा,अपने अनुभव और ज्ञान से सब बच्चों को पढ़ाती।बचपन में अपने सब बच्चों की पढ़ाई की नींव अम्मा ने ही मजबूत की। न जाने कौनसी शक्ति थी उनमें जो बच्चों को पढ़ाने के लिए वो सब सीख गईं।

ऊट-पटांग शैतानियां में माहिर कुक्कू सभी-भाई बहनों को उल्टे नाम से बुलाती। जैसे बिंदु को दुंबी। सभी का साथ में उठना- बैठना, शैतानियां, प्रेम भाई-बहनों को एक तार में बांँधे रखता।

बाऊजी ने सभी संतानों को प्रेम से रहने का पाठ पढ़ाया। प्रेम इतना था कि एक-दूसरे के लिए संबोधन किए शब्दों से झलकता..तीनों भाई अपनी चारों बहनों को बड़ी दी,नन्ही दी,मझली दी,छोटी दी और दी नाम से बुलाते। बाऊजी ने अपनी सामर्थ्य से ज्यादा उनके लिए किया। सभी बच्चे स्कूल पढ़ने जाते। घर आ सभी बच्चों से शांति से बात करना सभी के साथ समय बिताना। बहुत शांत स्वभाव के थे बाऊजी।

घर में अगर कुक्कू दिखाई नहीं देती तो घर वीरान सा हो जाता। अड़ौस-पड़ौस की पंचायत भी तो उसे ही करनी होती थी। बाहर जा सबकी पंचायत में भाग ले सबका मसला हल कर आती। भाई के दोस्त हों या खुद के चाचा-ताऊ के बच्चे या फिर ताऊ-चाचा ही क्यों ना हो सभी की जुबान पर कुक्कू का नाम चढ़ा रहता।

इतने सब गुणों के होते हुए भी बस एक कमी थी। जिस तकलीफ और परेशानी को सिर्फ कुक्कू ही महसूस कर सकती थी। वो थी उसकी बीमारी। वो अक्सर बीमार पड़ जाया करती। आए समय उसे टाइफाइड हो जाता। लंबे समय तक ऐसा ही चलता रहा। जब दस साल की थी तो पता चला हार्ट का साइज सामान्य से बड़ा है। बहुत इलाज करवाया पर उस समय हार्ट का सफल इलाज बहुत मुश्किल था। सफलता ना के बराबर ही थी। वह अपने सभी भाई-बहनों का का केंद्र बिंदु थी। बार-बार बीमार पड़ जाने से पढ़ाई भी कम ही हो पाती। उससे बड़ी बहन पढ़ाई में बहुत होशियार थी। उससे अक्सर कहती,"नन्नी दी तू हार्ट की डॉक्टर बनना। ... बनेगी ना?फिर मेरा इलाज करेगी। "साल दर साल बीतते गए। कुक्कू कॉलेज में आ गई। उसकी कई बातें सब के दिल में घर कर जाती।

सखी से कहती,"जब तुम चूल्हे में रोटी बनाती हो ना मुझे अच्छा नहीं लगता। अब तो सबके घर गैस लगने लगी है। मेरे मरने से पहले मैं तुम्हें गैस पर रोटी बनाते देखना चाहती हूँ। कुछ तो आधुनिक बन सखी। भगवान को भी क्या जवाब देगी, इस जमाने की होकर भी बिना गैस देखे आ गई।"....और सखी उसके सामने हंँस, मन में रो लेती, कैसे कहती तू मेरे दिल का टुकड़ा है। मेरे वश में कुछ नहीं। नहीं तो मैं तुझे मेरी उम्र ही दे देती, तुझे कभी मरने नहीं देती।

अब बीमारी के कारण पढ़ाई कुछ न के बराबर ही हो पाती थी। जितना समय मिलता,तबियत ठीक रहती,वो पढ़ लेती। शैतानियाँ अभी भी वही थीं। कोशिश करती हर एक के चेहरे की मुस्कुराहट बनी रहे। उसकी वजह से किसी को कोई दुख न हो।

अब ज्यादातर बीमार रहने लगी थी। अपनी मेहनत, लगन और माँ-बाऊजी के आशीर्वाद से नन्नी दी कार्डियोलॉजिस्ट बनीं। बड़ी दी की शादी हो चुकी थी एक बिटिया थी।

डॉक्टर ने कुक्कू को हवा बदलने की राय दी तो बड़ी दी उसे अपने साथ ले गई। वहांँ वह हर समय खुश रहने की कोशिश करती। बड़ी बहन की बिटिया, अपनी पहली भांजी से उसे विशेष लगाव था। जानती थी की दोबारा मासी बनने का सुख उसकी किस्मत में पता नहीं है भी या नहीं। सारे शौक अपनी भांजी में पूरे किए। गुणों की खान तो थी ही। जबसे दीदी के आई बीमारी को याद नहीं किया अपितु भांजी के लिए तरह-तरह की फ्रॉक सिल डाली।

पर कहते हैं समय बड़ा बलवान है। जैसा चक्रव्यूह वह रचता है, हम सब उसके चक्रव्यूह में फंसते चले जाते हैं। बड़ी एक सफल डॉक्टर थी, छोटी वॉलीबॉल प्लेयर और सबसे छोटी अभी पढ़ रही थी। तीनों भाई स्कूल जाया करते थे।

जब वो दीदी के घर से वापस आई तो बाऊजी ने पहला शब्द यही कहा,"अब तुझे कभी कहीं नहीं भेजुँगा। तू हमेशा यहीं रहेगी मेरे साथ। "

वक्त बीतने के साथ-साथ उसकी तबियत ज्यादा खराब रहने लगी और जब स्थिति ज्यादा बिगड़ने लगी और खुद भी महसूस करने लगी तो अपनी डॉक्टर बहन से कहती,"नन्नी दी तू कुछ नहीं कर सकती मेरे लिए। "....बहन यह सब शब्द सुन अंदर तक बिखर जाती। सब स्थिति से अवगत बहन कैसे उसे बताती कि हमारे हाथ में कुछ नही।

अब स्थिति नाजुक होने लगी थी। 31 दिसंबर की रात भाई का दोस्त जब घर जाने को निकला तो गेट पर से वापस आया और कुक्कू से बोला,"अरे कुक्कू दी मैं तो आपसे विदा लेने आ गया। जा रहा हूंँ अब इस साल नहीं आऊंँगा। नए साल में मिलुँगा।"बिस्तर में लेटी कुक्कू बिना कुछ बोले उसे देख बस मुस्कुरा दी.....जैसे कि आने वाले समय के बारे में सब जानती हो।

चाचा जी रोज बिटिया की खबर लेने आते। मिलकर जाने लगे तो बोले,"चलता हूँ कुक्कू कल सुबह आऊँगा। "

जैसे ही वो उठे लाड़ली बिटिया ने हाथ पकड़ लिया,"आप चले जाओगे तो बाऊजी अकेले क्या-क्या संभालेंगे। आज आप मत जाओ। उन्हें आपकी जरूरत पड़ेगी। "

चाचा जी ने सर पर हाथ रख प्यार भरा आश्वासन दिया, "ऐसा क्यों कह रही है पगली। कल सुबह आऊंँगा ना, जल्दी आ जाऊंँगा।" वो चले गए।

आज की रात, काली रात है, ये किसे पता था। सभी उसकी स्थिति देख अंदर से बिखरे हुए थे। छोटे भाई-बहन बहुत ज्यादा नहीं समझते थे पर यह तो समझते कि सबको हंँसाने वाली मझली दी आज शांत है। थोड़ी देर में जिद्द पकड़ बोली,"मुझे बिस्तर से नीचे उतार दो" सबके मना करने पर भी इस बात पर अड़ गई। ....शायद पिता की मेहनत से जुड़े बिस्तर की और घर में एक बिस्तर के अभाव की चिंता सता रही थी। बिस्तर से उतरने के कुछ देर बाद ही तसल्ली की सांस ले कुक्कू हमेशा के लिए चली गई।

बाऊजी जब चिता को अग्नि दे वापस आए तो अम्मा से बोले,"आज हमने अपनी बेटी को विदा कर दिया। "....बंद मुट्ठी के अचानक खुलते ही जैसे सब कुछ बिखर गया हो और पछतावे के अलावा कुछ ना बचा हो बाऊजी की हालत ऐसी थी। हमेशा मजबूती से खड़े रहने वाले बाऊजी के दिल का टुकड़ा चला गया था,कभी वापिस न आने के लिए।

अम्मा के सीने में तो मांँ का दिल था वो इतना पक्का कैसे हो सकती थी। कुक्कू की विदाई का सुन फूट-फूट कर रो पड़ी। सोच रही थी काश भगवान ने मुझे कुक्कू की विदाई का सुनहरा अवसर दिया होता। मैं वह भी खुशी-खुशी बर्दाश्त कर लेती, पर ऐसी विदाई भगवान किसी मांँ-बाप की किस्मत में ना लिखें।

सबसे छोटा भाई बहुत छोटा था कुक्कू को घर में न देख बोला,"मझली दी भी डॉक्टर बनने हॉस्पिटल गई है।"सभी को उसकी बात सुन तकलीफ होती।आज सब उसके साथ बिताए लम्हे ज़िन्दगी के याद कर अपने बीच उसे मौजूद रखते हैं।

'कुक्कू चली गई कभी वापस न आने के लिए'। घर वालों के दिल में अपनी यादों की इतनी जगह बनाकर कि शायद उनके जीवन भर की कहानियों में वह शामिल रहे।जब भी भाई-बहन बचपन याद करेंगे उसका हँसमुख चेहरा और उसके साथ बिताए खुशनुमा लम्हे ज़िन्दगी के हमेशा याद आएंगे। जीवन और मृत्यु भगवान के घर से तय है। बस जीवन को कैसे यादगार बनाया जाए इसका जीता जागता उदाहरण थी कुक्कू।

चाचा जी का, उस रात उसे छोड़ चले जाने का अफसोस, कभी खत्म नहीं हुआ। भाई के दोस्त की कुक्कू के साथ 1 जनवरी कभी नहीं आई। डॉक्टर बहन ने अपने वाले समय में कई सफल ऑपरेशन किए होंगे पर बहन के लिए चाहते हुए भी कुछ न कर पाई का अफसोस सदैव रहेगा।

जन्म-मरण-मरण सब भगवान के हाथ है। हम सब तो उसकी कठपुतली हैं। जैसा वह नचाता है, हम नाचते चले जाते हैं। बस अपने कर्मों की दीवार इतनी ऊंँची रखो कि जाने के बाद भी आप का नाम अमर रहे। मुस्कुराते चेहरे की छवि कभी धुंधली नहीं पड़ती। यादों में और नाम में ही सही कुक्कू अपने मीठे स्वभाव के कारण हमेशा याद की जाएगी।

हँसता हुआ चेहरा और प्रेमी दिल हर किसी का ध्यान खींच लेता है। अपने जीवन को कुक्कू के जीवन की तरह एक यादगार जीवन बनाएँ। सदा मुस्कुराते रहें और हिम्मत से आने वाली समस्या का सामना करें।



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