Meeta Joshi

Drama Inspirational

3.8  

Meeta Joshi

Drama Inspirational

नालायक बेटा तो बहू लायक कैसे ?

नालायक बेटा तो बहू लायक कैसे ?

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विवाह के लिए दोनों पक्षों की तरफ से हाँ होने के बाद विवेक ने सुगंधा से वादा लिया,"मेरे माता-पिता को कभी कोई कष्ट न हो।बड़े-भैया उनके साथ रहते हैं इसका मतलब ये नहीं कि हमारे सारे फ़र्ज़ पूरे हो गए,जब कभी जिम्मेदारी उठानी पड़ी तो मैं चाहता हूँ तुम पीछे न हटो मेरे कदम से कदम मिला चलो और उनके लिए दिल से करो।

छोटा-भाई बाहर सेट है मतलब ये है कि वो जब भी आएगा मेहमान की तरह और हाँ,एक बात और पिताजी ने अपनी छोटी सी सरकारी नौकरी में हम तीनों पर बराबर मेहनत की है ये मेरी लापरवाही रही या किस्मत कह लो कि मैं दोनों की तरह बहुत आगे नहीं जा पाया इसलिए कल को तुम्हें किसी तरह की हीन भावना न हो इसलिए पहले से मन पक्का कर शादी करना।छोटी सी प्राइवेट नौकरी है घर में बेशक आलीशान समान न भरा हो पर दिल में तुम्हारे लिए भरपूर प्रेम रहेगा।"

सुगंधा पढ़ी-लिखी होशियार लड़की, विवेक के पाक-दिल और नेक इरादों से प्रभावित हो गई।अपनी पारिवारिक परिस्थिति को देख वो हर समझौते के लिए तैयार हो गई।

विवाह के बाद कुछ दिन ससुराल रह चल दी पतिदेव के साथ।कमाई बेशक ज्यादा न थी,कई बार महत्त्वाकांक्षाओं को मारना पड़ता था लेकिन उसकी छोटी सी दुनिया में सुख-चैन और प्रेम सब था।मध्यवर्गीय परिवार से थी तो हर परेशानी को बचपन से बारीकी से देखती आई थी।बेशक पिताजी ने कमी होते हुए भी हर सुविधाएंँ दी लेकिन आज उन सुविधाओं में से भी कइयों का अभाव था।अपने वादे के मुताबिक उसने तकलीफों का कभी रोना नहीं पीटा,दोनों प्रेम से रहते।

माता-पिता के पास अक्सर आते-जाते रहते थे। वहाँ जाकर बस एक बात खटकती थी। माँ की कोई बात गलत लगने पर बड़े-भैया, भाभी का तुरंत पक्ष ले लेते और विवेक! उसकी उम्मीद सुगंधा से हर हाल में चुप रहकर सहयोग करने की ही होती। उसे बुरा भी लगता तो,"बस दो दिन आई हो।"कह विवेक चुप कर देता।

एक दिन पता चला माँ और भाभी के बीच की अनबन से परेशान हो भैया ने ट्रांसफर बाहर करवा लिया है। श्रवण कुमार विवेक के पास दूसरा कोई हल न था।चल दिये परिवार सहित माता-पिता के साथ रहने।

सुगंधा भी अपने वादे के मुताबिक तन-मन-धन से सेवा में जुट गई। कुछ दिन बीतने के बाद सास-बहू में वैचारिक-भेद शुरू हो गए। सही होते हुए भी सुगंधा विरोध नहीं कर पाती, मन-मसोस कर रह जाती। ज़िन्दगी एक ढर्रे पर चल पड़ी, कहीं कोई बदलाव नहीं। घर में बातें कम तनाव ज्यादा रहने लगा। छोटी-छोटी बातों में रोक-टोक रिश्तों में दूरियाँ लाने लगीं ,"सब्जी ये क्यों बनाई ? अभी कहाँ जा रहे हो ? विवेक तो पहले रसोई में झाँकता भी नहीं था, कभी बाहर का खाना पसंद नहीं करता था..."और भी न जाने कितने बेतुके प्रश्न...कहने का मतलब ये है कि रोज के मनमुटाव विवेक के घर घुसने के बाद सरदर्दी बनने लगे।जब बहुत समझाने के बाद भी हल नहीं निकला तो उसने सुगंधा से ही चुप रहने की याचिका की," देखो सुगंधा, सब कहेंगे बड़ा दंभ भरता था।आज खुद पर पड़ी तब अक्ल आई।ये लोग बुजुर्ग हैं इनसे बदलने की उम्मीद करना बेकार है तुम मेरी धर्मपत्नी हो, मेरी परेशानी समझो और किसी भी तरह समस्या का हल निकालो।तीनों बेटे पिता को छोड़ कैसे रह सकते हैं।भैया की पोस्टिंग बाहर है और छोटा,आउट-ऑफ-इंडिया मैं,इनके बुढ़ापे में इन्हें अब कहीं छोड़कर नहीं जा सकता।इस तरह घर के झमेलों में पड़ा रहा तो अच्छी नौकरी भी नहीं ढूँढ पाऊँगा।"

सुगंधा समझ रही थी उसे हर हाल में सामंजस्य बैठाना होगा।उसने हर बात का हल यही निकाला कि बहस करना या अपनी राय रखने से अच्छा है चुप रह सब करना।वो चुप-चाप सब काम करती रहती। अपनी तरफ से सेवा में कोई कमी न करती।

आज पिताजी के कोई पुराने मित्र मिलने आए।

"अरे विवेक तुम ! तुम कब आए ? वहाँ तो सुना है तुम्हारी अच्छी नौकरी लग गई थी। क्यों बेटा नौकरी छोड़ आए? मुझे यकीं था तुम इन्हें अकेला कभी नहीं छोड़ोगे।"

विवेक बोलने ही वाला था पिताजी बीच में बोल पड़े।

"बड़े का तबादला बाहर हो गया था छोटा विदेश है। एक यही था जो नौकरी छोड़ आ सकता था। हमने कहा यहीं आकर रहो,थोड़ा कम भी मिलेगा तो क्या घर खर्च तो हम चला लेंगे इस बहाने थोड़ी बचत भी हो जाएगी।वहाँ जितनी कमाई थी सब खर्च हो जाती।"

विवेक पिता की शक्ल देखता रहा, उसे लगा था पिता इसकी तरीफ करेंगे कि सब छोड़ गए ,तो इसने अपनी नौकरी की परवाह नहीं कि और चला आया। वो मन ही मन तकलीफ से भर उठा। कितनी आसानी से पिताजी ने उसकी मजबूरी गिना उसके त्याग को इतना छोटा कर दिया जब तक भाई यहाँ था तब तक उनके दिमाग में ये विचार नहीं आया कि विवेक की कमाई कम है उसे बुला लिया जाए। ये सब सुनकर भी उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी वो मुस्कान जो उसे खुदके ऊपर आ रही थी।

पिताजी की बीमारी के चलते अक्सर लोग मिलने चले आते।बेटे-बहू की सेवा देख तारीफ भी करते पर असली तृप्ति तो तब मिलती जब माता-पिता उनके त्याग को समझते।

बहू चुप-चाप काम में लगी रहती। हाँ समय के साथ जीना सीख गई थी उन लोगो की बहुत सी बातों को नजरअंदाज कर खुश रहने की कोशिश करती,अब एक बिटिया भी थी आधा मन उसके कारण लग जाता। जहाँ देखा साथ बैठ हर समय कुछ न कुछ सुनाया जाता हैं उसने साथ बैठना कम कर दिया था ।

उसे अपने से ज्यादा पति का सोचकर लगता एक दिन गुस्से में बोली देखिये सेवा करना अपनी जगह है लेकिन जब सामने वाले को आपके करे कि कद्र न हो तो वही सेवा बेवकूफी नजर आती है।जानते हैं आप मम्मी जी सबसे क्या कहती हैं....लोग हमें बेवकूफ समझने लगे हैं।"विवेक उसकी बात पर मुस्कुरा कहता,"तुम क्या समझती हो मैं इतना नादान हूँ कि सबका मन पढ़ना नहीं जानता।ये दुनिया और यहाँ के लोगों की छोड़ो।तुम सीधा चल रहे हो,फ़र्ज़ अदा कर रहे हो तो ये तुम्हें बेवकूफ का दर्जा दे रहे हैं अभी तुम यहॉं ये गए नहीं कि वही लोग सीधे यही कहेंगे वो तो पराई थी क्या सेवा करती जब बेटा ही अपना फर्ज अदा न कर सका इसलिए सुगंधा किसी की बात को दिल से मत लगाओ।मुझे खुशी है कि तुम मुझे धर्म-पत्नी के रूप में मिलीं।"

"लेकिन पिताजी....वो...।"

"वो बुजुर्ग हैं ऐसा नहीं है वो मुझे प्यार नहीं करते वो मेरी स्थिति देख भड़ास निकालते है कि सब बन गए और ये यहीं...।"

दो-तीन दिन से मौसी सास आई हुई थीं। बहू को देख बहुत खुश होतीं,"कैसे चुप-चाप शांत मन से अपने काम करती रहती है।"

"दीदी कुछ भी कह ,तेरी बहू लाखो में एक है।क्या तन-मन-धन से सेवा में लगी रहती है।बड़े के क्या हाल हैं ?और छोटा,वो सब कैसे हैं?"

पिताजी बीच में ही गर्व से बोले," दोनों बहुत होनहार हैं अच्छी कमाई करते हैं।उन दोनों ने मेरी मेहनत सफल कर दी।शान से कह सकता हूँ दोनों लायक हैं उनके ऊपर पैसा लगाया तो आज उन्होंने सर उठाने लायक रखा है।"

"जीजाजी लायक तो विवेक है।बड़ा तो बीमारी की हालत में भी आपको छोड़ चला गया और इसे देखो,अपना आगा देखा ना पीछा,सब छोड़ सेवा में चला आया।"

"देखो साली साहिब, सेवा करता है तो उसे उसका मेवा भी मिलता है। दोनों लायक थे निकल गए। हमने तो इस पर भी उतनी ही मेहनत की थी कुछ बनता तो ये कौनसा रुकता।

शुरू से नालायक था। कभी किसी की नहीं सुनी।आज यहाँ है तो हमारी वजह से दो पैसे बचा लेता है। ये नहीं होता तब भी हम इतने समर्थ तो थे ही कि अपनी व्यवस्था करते।"

बहू सब सुन रही थी जानती थी जो अपने बच्चे के प्रेम व त्याग को नहीं समझे वो उसके लिए क्या कह सकते हैं। उसे विवेक के लिए बहुत तकलीफ हुई। मन तो आया अभी के अभी उसे ले यहाँ से चली जाए।

मौसी सास ने फिर पक्ष रखते हुए कहा,"कुछ भी कहो, ऐसे बच्चे आज के समय में मिलना मुश्किल है।आपकी किस्मत अच्छी है जो...।"

"दीदी,बहू और तुम्हारी कोई बात होते नहीं देखी क्या बात है?सब ठीक है ना।वो बिचारी कहीं आती-जाती नहीं एक तुम ही हो जो उसके मन को पढ़ सकती हो।"

सास कुछ बोलती उससे पहले सुगंधा हंँसते हुए बोली,"मौसी जी माफ कीजिएगा छोटा मुँह-बड़ी बात कह रही हूँ।आप खुद सोचिए, नालायक बेटे की बहू लायक कैसे हो सकती है। नालायक बहू हूँ।पति ने कहा माता-पिता अकेले हैं तो साथ देने चली आई। बुजुर्ग हैं उनका हर कहा मानना होगा,

तो बिना विरोध,जो कहा वो मानती गई।

कभी इन लोगों की कोई बात पसंद नहीं आई तो पति से कहा, उस नालायक बेटे ने माता-पिता के सामने मुँह बंद रख,बिना विरोध के चुप-चाप करते रहने को कहा।मैंने वो भी किया।हालत से समझौता कर चुप रहना सीख गई।पर बेटा सब कुछ करने के बाद भी नालायक ही रहा तो मैं कैसे लायक हो सकती थी।उनके त्याग,सेवा और फ़र्ज़ का ये सिला मिलेगा अगर समय रहते समझती तो आज अफसोस ये है कि ये नालायकी मैंने तब दिखाई होती जब,सब कुछ छोड़छाड़ कर यहाँ आने को तैयार हुए थे।बहू की बात से सास-ससुर के चेहरे का रंग उड़ गया।आज से ये नालायक बहू बिल्कुल नालायक हो चुकी है क्योंकि अन्तर्रात्मा की आवाज़ को रोक नहीं पाई। अपने मन की कह,नालायक बहू फिर चुपचाप अपने फ़र्ज़ अदा करने में लग गई।

किसी के सीधेपन और फ़र्ज़ को उसका स्वार्थ बता कम मत आंकिये। मन का सुकून हर किसी को चाहिए किसी के मन से की गई सेवा-भाव को, स्वार्थ का जामा पहना,उसके मन के साथ खिलवाड़ क्यों? भावनाएँ हर किसी में होती हैं होती हैं पर समय पर अभिव्यक्त कराने वाले के विचारों की कद्र करनी चाहिए।

एक बार एक कहानी पढ़ी थी जिससे प्रभावित होकर ये कहानी। लिखी बेशक ये उसके आस-पास की भी नहीं उसमें बेटे के व्यक्तित्व को इंगित किया गया था विचार आया कि बेटा तो आपका अपना है,बचपन से माँ-बाप के स्वभाव से परिचित है।ऐसे में धन्य है वो बहू, जो अपने सपनों को दबा पति के फ़र्ज़ को पूरा करने में उसके कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है।उसकी सेवा को इतनी आसानी से मजबूरी का नाम न दें।जो आपकी सेवा कर सकती है वो अलग रह पति की भी कमाई में हर-संभव मदद कर सकती है।बात बहुत छोटी सी है इसे मुद्दा न बना विचार करें कितना अच्छा होगा यदि आपके दो बच्चों में से एक कम है तो उसकी ताकत आप बने वो नालायक नहीं एक लायक,बेटा, पति और पिता बनने में उसकी मदद करें।


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