Meeta Joshi

Romance Tragedy

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Meeta Joshi

Romance Tragedy

अधूरा इंतजार

अधूरा इंतजार

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"एक्सक्यूज़ मी...लाइब्रेरी किस तरफ है, क्या आप बता सकती हैं? उसने मासूमियत से पूछा। "

आवाज़ में इतनी मिठास थी कि कनिका पूरे ग्रुप के बीच में से बोली,"वो... उधर....। "

अविनाश कुछ कह पाता उससे पहले एक मित्र बोली "लड़कियों को देख लाइब्रेरी का रास्ता भूल गए क्या भैया?" और समूह में हँसी-ठहाके की आवाज़ आने लगी।

कनिका ने नजर उठा अविननाश की तरफ देखा वो," थैंक्स" कह चल दिया।

"क्या जया कोई जरूरी है कि हर सामने वाला गलत ही होगा। देख ना तेरी बात से कितनी शर्मिंदगी फील कर रहा था। "

"ओहो! तुझे बड़ी सहानुभूति हो रही है। क्या चक्कर...कहीं दिल तो..। "

"चल हट हर वक्त फ़ालतू बात। "

लाइब्रेरी बेसमेंट में थी।


अपनी क्लास लेने के बाद कनिका लाइब्रेरी में चली गई, जैसे ही आखिरी सीढ़ी से उतरी ,ऊपर को आते एक नौजवान से टकरा गईं।

"ओह! सॉरी... पता नहीं कैसे...ट.. क... रा गई। "

"आप...! चलिए अच्छा हुआ, कल आपको धन्यवाद भी ढंग से नहीं दे पाया था। मैं अविनाश। मुझे गलत मत समझिएगा। मुझे वास्तव में ये जगह नहीं पता थी। किसी कारणवश साल के बीच में इस शहर में शिफ्ट होना पड़ा। "


जी, कह कनिका हल्की सी मुस्कान बिखेर। चल दी।


अब अक्सर कभी कॉलेज कैंपस में, कभी कैंटीन में,तो कभी लाइब्रेरी में मिलना होता। हालाँकि कनिका एक शांत और रिजर्व नेचर की लड़की थी पर न जाने क्या था अविनाश में कि उसकी नजरें उसे ढूँढ ही लेतीं।


अविनाश कई बार उससे चला कर बोलने की कोशिश करता लेकिन वो, हर बार उसे नजरंदाज कर चली जाती। हाँ दिल के किसी कोने में शायद उसका इंतजार रहता क्योंकि जब तक वो नजर नहीं आता तब-तक नजरें उसे तलाशती रहतीं और उसे देख तसल्ली कर लेतीं।

नजरों ही नजरों में साल भर कहाँ निकल गया पता ही नहीं चला।

कनिका एक साधारण से परिवार की सीधी-साधी लड़की। ना कभी ज्यादा मित्र रहे ना बाहर कहीं आना-जाना। छोटी बहन तीन साल छोटी थी और उससे तीन-साल छोटा भाई, मतलब ये है कि कभी अपनी भावनाएँ किसी के साथ साझा नहीं कर पाई। घर में केवल पढ़ाई का माहौल था। शुरू से 'को-ऐड' में पढ़ी लेकिन मजाल जो लड़के मित्र घर आ जाएँ। स्कूल की दोस्ती स्कूल तक निभाई जाती। मध्यम-वर्गीय परिवार की शांत, शालीन बिटिया। कॉलेज से घर ,घर से कॉलेज बस इतने ही रास्तों से परिचित हो पाई थी। घर में पिताजी का स्वभाव रौबीला था माँ भी उनके आगे चुप ही रहती।

बी.एस.सी सेकंड ईयर की छात्रा थी पढ़ने में होशियार। साथ वालों ने सबने ड्राप कर कॉम्पिटिशन की तैयारी की लेकिन कनिका के पिताजी बेटी को दूर भेजने के लिए तैयार न थे।

जया उसकी एकमात्र मित्र थी जिसका बेरोकटोक घर में आना-जाना था। पारिवारिक मित्र थी इसलिए उसके साथ यदा-कदा वो बाहर आ-जा सकती थी ।

लंबे घुंघराले बाल, गुलाबी रंग, मृगनयनी सी आँखें और गोरे गाल में छोटा सा काला तिल कनिका की सुंदरता में चार-चाँद लगा देता।

"कनिका आज दादाजी का श्राद्ध है कॉलेज मत जाना। "


"लेकिन माँ आज तो प्रैक्टिकल है जाना जरूरी है। "

"देख रही हूँ आजकल कॉलेज के प्रति रुझान कुछ ज्यादा ही है। "

"क्या मम्मा नहीं जाती । कभी कहीं आती-जाती नहीं हूँ फिर भी कैसी बातें करती हो। "

"देख लाडो, बच्चों के बदलते स्वभाव को माँ से ज्यादा कौन समझ सकता है। जब भी कोई बात हो मुझसे पहले कहना। "

"छोड़ो ना माँ आज क्या बातें कर रही हो। "


घर में रहते हुए भी आज मन कुछ विचलित सा था। क्या माँ सच कह रही थी सच में उसमें बदलाव आया है। जब खाली बैठती बस एक ही चेहरा ध्यान आता। पढ़ते-पढ़ते जैसे ही ख्याल आया ,"मैं अविनाश" चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई। रोम-रोम खिल उठा। खुद में ही ऐसी सकुचा कर बैठ गई जैसे उसके ख्वाबों का उसके विचारों का किसी को आभास भी न हो।

देखते ही देखते साल बीत गया। लाइब्रेरीमें ,कैंटीन में और कैंपस में उसका दिखना, और उसे देख मुस्कुरा नजाकतता से नजरें झुका देना बस इतना ही परिचय था दोनों के बीच।

बीते साल में अविनाश भी उसका सहज स्वभाव समझ चुका था। वो भी दूर ही से मुस्कुराहट या नजरों से जवाब देना सीख गया था शायद इसलिए कि वो खुद की ईमानदार नजरों पर यकीं दिलवाना चाहता था।

जया अक्सर कनिका की नजरें पकड़ लेती।


"तू बच्ची नहीं है तेरा भी मन है और जरूरी तो नहीं कि हर किसी को खुश करने में तू अपनी खुशी का गला घोट दें। मैं जानती हूँ अविनाश को लेकर तेरी फीलिंग्स, क्यों नहीं इज़हार कर देती!" "छोड़ जया, ऐसा कुछ नहीं है। मुस्कुराहट का मतलब प्रेम नहीं होता। तूने देखा ना वो कितना सोबर लड़का है, कभी कोई गलत कदम नहीं उठाता। "


"तेरा कुछ नहीं हो सकता। " कह जया चली गई।


साल कहाँ और कितनी जल्दी बीत गया। कनिका मन ही मन सोचती ।

फेयरवेल के बाद आज कॉलेज का अंतिम दिन था। लाइब्रेरी की बुक सबमिट करने का दिन। दो दिन से अविनाश कहीं दिखाई भी नहीं दिया था यहाँ तक कि फेयरवेल में भी कनिका की नजरें उसे तलाशती रहीं ।

"क्या बात कनिका, आज तो लंबे-लंबे झुमके,खुले बाल,एक साइड दुपट्टा। "कह जया ने छेड़ा।

मुस्कुराहट के अलावा उसके पास कोई जवाब नहीं था। नहीं जानती थी इतनी सीधी-साधी लड़की को अचानक ये सब क्यों अच्छा लगने लगा। क्या ये किसी के प्रति आकर्षण था या महज़ खुद का बदला स्वभाव।

बिटिया की सुंदरता देख माँ को शादी की चिंता सताने लगी। पिताजी का जाते-जाते एक ही हुक्म था,"समय पर वापिस आ जाना। नेहा के साथ ही जाना। देर होने लगे तो फ़ोन कर देना...जो भी हो अँधेरा न होने पाए। "


कॉलेज में सभी के आकर्षण का केंद्र उस दिन कनिका ही थी लेकिन कनिका... उसकी निगाहें सब कुछ होते हुए भी अधूरापन महसूस कर रही थी। अविनाश नहीं आया मन बोझिल सा था क्या सचमुच वो... महज एक आकर्षण नहीं था। क्या सचमुच वो उसे चाहने लगी थी? घर आकर भी चुप चाप कमरे में चल दी।

"कैसी रही लाडो फेयरवैल?"

"ठीक सी थी माँ। "

"जया तो कह रही थी बहुत मजा आया। "

"मजा! हांँ-हांँ माँ बहुत मजा आया।


अपने मन की बात कभी अपनी मित्र से भी साझा नहीं की थी। आज अंतिम दिन कॉलेज जाना था लाइब्रेरी की बुक जमा करवाने। वो भी कॉलेज जाने का एक बहाना था । अधिकांश लोग बुक समय पर जमा करवा चुके थे। "क्यों री, नेहा ने तो समय पर किताब जमा करवा दी थी तूने क्यों नहीं करवाई। "


"मम्मा पहले मेरी पूरी नहीं हो पाई थी फिर कहीं रखकर भूल गई थी बस जा रही हूँ 11 से 2 का टाइम था एक बज चुका है फटाफट गई और आई। "

कॉलेज में जाते ही हर वो जगह टटोली जहाँ अविनाश के दिखने की उम्मीद थी लेकिन निराशा हाथ लगी। किताब जमा करवाने बेसमेंट में पहुँची।


"बहुत लेट आईं हो। मैं लाइब्रेरी बन्द कर जा ही रहा था। एक तुम और एक वो महानुभाव अभी पाँच मिनट हुए किताब जमा करवाकर गए है। हद है लापरवाही की। "


किताब उठा रखने लगे उसमें लगी चिट फाड़ते हुए बोले ,"कनिका...अविनाश। "

अविनाश का नाम सुनकर कनिका के रौंगटे खड़े हो गए। नजरें यहाँ-वहाँ उसे ही तलाश रही थीं। सर लाइब्रेरी बंद कर चले गए। कनिका धीरे-धीरे कदमों से गैलरी पार कर बाहर की ओर कदम बढ़ा रही थी इतने में एक हाथ ने रास्ता रोक दिया। दिल की धड़कन काबू में न थी। उस अजनबी लेकिन अजीज साथी को अचानक यूँ सामने आया देख सांस जोर-जोर से चलने लगी। अविनाश जब पास आया तो वो काँपती हुई दीवार का सहारा ले खड़ी हो गई। अविनाश उसके बिल्कुल करीब था दोनों की सांस जोर-जोर से धड़क रही थी । चेहरा शर्म और हया से बिल्कुल लाल हो गया । एक मन किया जोर से चिल्ला भाग जाऊँ, दूसरे ही पल विचार आया अब-कब मिलना होगा धधकने दे दिल को इस प्रेम की ज्वाला में, आज जो होगा देखा जाएगा। वो उसके करीब और करीब आता रहा....सांस दर सांस एक हो चली थी। चारों तरफ कोई आवाज़ न थी। ....

बस दो युवा प्रेमी... प्यार का इज़हार मात्र था या सारी हदें पार होंगी शायद वो भी नहीं जानते थे। थोड़ी देर में एक सिसकी सी उठी। अपने आँसू पोंछ खुद को शांत कर सीधे जया के घर जा पहुँची।


"आखिर क्या हुआ है ? कुछ बताएगी तभी तो पता चलेगा। कितनी काँप रही है। क्या उसने कुछ गलत.....। ? तू होश में तो है कुछ तो बता? क्या हुआ है तेरे साथ!"

"वो... अविनाश....कॉलेज..!"

"अविनाश मिला था क्या उसने कुछ गलत...!क्या हुआ है लड़की। कुछ कहेगी तभी तो ...। "


रोते-रोते बस यही शब्द थे,"वो आएगा लेने। आज मेरे साथ क्या हुआ, कुछ मत। मुझे कुछ नहीं पता....बस इतना जानती हूँ ,वो आएगा। "

कुछ देर मन की कह खुद को सामान्य कर घर लौट गई। स्वभाव आज से फिर बदल चुका था वही शांत स्वभाव, सौम्यता चेहरे पर दिखाई देती।


माँ हमेशा यही कहती, "नजर लग गई छोरी को। फेयरवेल वाले दिन इतनी खूबसूरत लग रही थी पता नहीं क्या टोक लगी बिल्कुल ही चुप हो गई। "


साल दर साल बीतते गए । एम.एस.सी कर कनिका के रिश्ते आने लगे लेकिन मन के किसी कोने में उसे विश्वास था वो जरूर आएगा। वो दिन और एहसास उसका इंतजार करने को काफी था। उसके शब्दों पर उसे पूरा यकीं था। यकीं था अपने प्यार पर भी।


"देख कनिका मुझे नहीं लगता वो आएगा । क्यों हर रिश्ते में कमी ढूँढ लेती है। एक बात कहूँ क्या उस दिन वो सचमुच आया था? या उसका मिलना सिर्फ तुम्हारे मन का वहम है क्योंकि मैंने तो सुना था उसके पिताजी को अटैक आया था तो वो फेयरवेल के तीन-चार दिन पहले ही चला गया था। उसके बाद लौट कर कभी नहीं आया। हाँ कोई शायद किताब जमा करवाकर गया था। "


कनिका खुद नहीं जानती थी सच क्या है ...बस एक इंतजार था।

बहुत से रिश्तों में ना-नुकर के बाद पिताजी ने अच्छे घर में उसका रिश्ता कर दिया। ज़िंदगी फिर नई दिशा की ओर चल पड़ी लेकिन उस अपरिचित साथी का इंतज़ार शायद अभी भी कहीं था। उसकी लेखनी उसके दिल के जज़्बात बने। एक बेटा और एक बेटी प्यारा सा परिवार था पति देव के साथ भी अच्छी बॉन्डिंग रही। लेकिन कविता की हर पंक्ति उसके अधूरे जज़्बातों को बयाँ करने के लिए काफी थी। शायद इसे ही कम उम्र का प्यार कहते हैं जो व्यवहारिक ज़िन्दगी में अपनी जगह खो देने के बाद भी दिल के किसी कोने में महफूज़ रहता है। उस दिन के सच को कभी कोई नहीं जान पाया और ना वो कभी वापिस आया ऐसा था उसका अधूरा-प्यार।



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