अनहोनी
अनहोनी
माँ का मन बड़ा बेचैन था। हो भी क्यों ना! बीस साल की बिटिया, जो रोज दिन छुपने से पहले घर पहुँच जाती थी, आज उसे एक घंटा देर जो हो गई थी। शांति जी अपने दोनों छोटे बच्चों के साथ खेल, उनका मन लगा रही थी लेकिन खुद, सिर्फ शरीर से उनके साथ मौजूद थी, मन बड़ी जया में ही अटका था।
बात उन दिनों की है जब देर-सवेर हो जाने पर मोबाइल की सेवा उपलब्ध नहीं थी। किसी-किसी के घर लैंडलाइन हुआ करते थे, एकदम से सूचित करना सम्भव न था। वो बार-बार अनिष्ट की आशंका से दोनों बच्चों को छोड़ बाहर जा आती। दिल जोरों से धड़क रहा था। कहते हैं ना बुरे खयालात जल्दी अपना डेरा बसा लेते हैं बस ऐसा ही कुछ शांति जी के साथ हो रहा था। दोनों छोटे भी बहुत छोटे न थे, एक बड़ी से चार-साल छोटी तो तीसरा, सात-साल। लेकिन एक नौकरीपेशा माँ, जिसके बच्चे सारे दिन अकेला रह, बड़ों सा जीवन जीते हैं वो शाम को बच्चों का हर काम खुद कर उनका बचपन लौटाना चाहती है।
"बेटा दीदी ने पढ़ने जाने से पहले कुछ कहा था क्या कि आने में देर हो जाएगी?"
"नहीं माँ, कल आपने डांटा था ना। हर हाल में इस कॉम्पिटिशन में निकलना ही है। ...और मेहनत करो, मुझे तो लगता है आज वो एडमिशन लेकर ही आएगी।" कह जोर जोर से हँसने लगी।
"शर्म नहीं आती मैं घबराई हुई हूँ और तुझे मजाक सूझ रहा है।"
"आ जाएगी ना माँ। ये तो रोज की बात है, वो जब तक नहीं आ जाती आप ऐसे ही चिंता करती हो। बच्ची थोड़े ही है।"
लेकिन माँ का मन कहाँ शांत होने वाला था। जाकर देख आऊँ ...नहीं...नहीं!कहीं सोचेगी मुझ पर विश्वास नहीं!कैसे समझाऊंँगी, माँ अपने बच्चे की आहट से उसकी गतिविधि का अनुमान लगा लेती है। डर तो उस गली का है। जहांँ से गुजर तुझे आना है। वो सकड़ी सी गली, जिसके दोनों तरफ दीवार है। एक दीवार में सरकारी ऑफिस के पिछले हिस्से की दो खिड़कियाँ खुलती है जो कि ऑफिस का समय पूरे होने के साथ पाँच बजे बंद हो जाती हैं। दूसरी तरफ किसी की जमीन का टुकड़ा है जिसके चारों तरफ दीवार बनी है और उन दोनों के बीच में वो पतली सी लंबी गली, जहांँ से बहुत कम लोगों की आवाजाही है।
कल ही तो कह रही थी, "मम्मी वो खाली जमीन है ना उसकी दीवार जहांँ में पढ़ने जाती हूँ उनके सामने से पूरी खुली है। वैसे तो डर की कोई बात नहीं पर आजकल बिलकुल कोने में, मतलब गली के बीचों-बीच लोगों ने शार्ट-कट के कारण दीवार तोड़ रास्ता बना लिया है। तबसे वो गली थोड़ी और डरावनी लगने लगी है।"
"मैं तुझे लेने आ जाया करूँगी।"
"नहीं मम्मा, आप सारे दिन की थकी शाम को तो घर पहुँचती हो फिर मुझे लेने आना...। नहीं...नहीं मैं दीदी को कह देती हूँ जब तक मैं गली पार कर आपको बाय न कर दूँ वहीं कोने में खड़ी रहना। वो बिचारी रोज खड़ी रहती है। आप चिंता मत किया करो। लेकिन सच तो ये है माँ वो गली है बहुत खतरनाक!"
शांति जी को रह-रहकर बुरे विचार आ रहे थे।
कल ही कहा था, पढ़ते ही निकल आया कर। गप्पें मत मारा कर, जब तक न आए जान पर बनी रहती है। बेटा बहुत देर से माँ को बड़बड़ाता सुन रहा था।
"क्या यार मम्मा, कितना डरती हो, दी को इतना कमजोर समझती हो! मुझे भी जाने नहीं दोगी कि उसे लगेगा उसकी तहकीकात करने भेजा है। एक निर्णय पर तो रहो।"
दोनों बच्चों ने माँ का मन बहलाने के लिए उन्हें बातों में लगा लिया।
दोनों छोटे बच्चों की बात पर माँ को भी विश्वास था, मेरी परवरिश इतनी कमजोर नहीं कि बिटिया भटक जाए या कोई अनिष्ट उसके साथ हो पाए।
पतिदेव के आने का समय हो रहा था। शांति जी शाम के खाने में व्यस्त हो गई। आज आई तो डाटूँगी जरूर। समय पर निकल आया कर ये इतनी देर तक रुकना सही नहीं है।
थोड़ी देर में सब अपने में व्यस्त हो गए। दो कमरों के सरकारी मकान में हर जगह मिल बाँट कर इस्तेमाल की जाती है। दोनों बच्चे अभी आधा घंटा फ्री थे तो कैरम का आनंद उठा रहे थे।
टिंग-टोंग, टिंग....घंटी आगे बजने ही वाली थी कि माँ पल्लू से हाथ पौंछते हुए दरवाजा खोलने चली आई।
"कितनी देर कर दी हज़ार बार समझाया....!"
माँ की बात पूरी हो उससे पहले जया दूसरे कमरे में भाग गई और किताबें पटक बिस्तर पर जा बैठी।
सांस जोर-जोर से चल रही थी। गला रुँधा हुआ था। माथे का पसीना किसी संघर्ष की कहानी कह रहा था।
"क्या हुआ? कुछ बोल? बोलती क्यों नहींsss ...कहाँ रह गई थी? गली में किसी को खड़ा किया था? क्या बात है....घबरा क्यों रही है।"
"माँ" कह रोते हुए लिपट गई।
शांति जी इतना घबराई हुई थीं कि उसके हाथों को छुड़वाते हुए बोलीं, "क्या हुआ! अरे कुछ तो बोल....।"
"मम्मा वो गली में....लड़का!"
"क्या हुआ गली में!कौन लड़का?"घबराई हुई जया के मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे और शांति जी उसके बोलने से पहले तमाम प्रश्न आगे से आगे रख देतीं। रखती क्यों नहीं, माँ का कलेजा है, बेटी को इस हालत में देख चुप कैसे रहती।
"माँ उस गली में वो आदमी...मुझे पकड़ा....मैं नीss चे गिरी....।"
माँ ने उसे तेजी से खुद से दूर कर अजीब से हाव-भाव से प्रश्न किया, "कुछ किया तो नहीं उसने तेरे साथ? क्या हुआ? क्या किया? कौन था?"
माँ के प्रश्नों को सुन जया ने जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया।
"क्या किया जया, कुछ बता? क्यों रो रही है! क्या किया उसने तेरे साथ!"
अब जया का मन जो अभी तक माँ की पनाह चाहता था, वो जोर से माँ को छिटक कर बोली, "आप भी औरों की तरह हो! नहीं माँ, मेरी माँ तो बहुत सुलझी हुई थी। कह रही हो चिंता हो रही थी। कैसी चिंता! जब मेरी तकलीफ एक बार भी नहीं पूछी। सोचा था आपसे लिपट सारी तकलीफ दूर हो जाएगी लेकिन आप भी तो इस दकियानूसी समाज का हिस्सा हो, जहाँ बेटी के अंतर्मन को पढ़ने से पहले कुछ हुआ तो नहीं? किसने किया? कौन था जैसे प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। तो सुनो, छुआ था उसने मुझे। वो जो खाली जमीन का दरवाजा है वहाँ से कूद कर आया था। कौन था, नहीं जानती। मेरे हाथ में चार किताबें थीं, उसने मुझे पीछे से पकड़ा। मिट्टी के कारण उसका बैलेंस बिगड़ गया, गिरने पर भी उसने मुझे पेट से कस के पकड़ा हुआ था मेरे चिल्लाने पर वहाँ कोई नहीं आया। चारों तरफ अंधेरा था प्रकृति का भी और मेरे अंतस में भी। तब सिर्फ माँ याद आई, "हम मध्यमवर्गीय परिवार का हिस्सा हैं ये बात हमेशा याद रखना। अपने माता-पिता की इज्जत पर कभी आँच मत आने देना। तुम तीनों ही हमारा स्वाभिमान हो। जब सामने परेशानी हो और सब रास्ते बंद दिखें तो अपने आत्मविश्वास का रास्ता खोलना। पूरी ताकत और स्वाभिमान से अपनी रक्षा करना और मैंने वही किया माँ, वो स्पर्श मैंने पहली बार महसूस किया था, उसकी पकड़ बहुत मजबूत थी, सोचकर भी रोंगटे खड़े हो रहे हैं। जब कोई रास्ता नजर नहीं आया तो मैंने पुरजोर कोशिश कर अपनी किताबों से उसकी आँखों पर तेजी से प्रहार किया और लोगों को आवाज़ लगा पूरी कोशिश कर खुद को छुड़ा भागी। सड़क देख खुद को लोगों के सामने स्वाभाविक करना बहुत मुश्किल था। मेरे हाव-भाव शायद इस अनहोनी की कहानी कह रहे थे। कैसे उन्हें स्वाभाविक करूँ! लग रहा था मेरी बोली चली गई है। फिर डगमगाते कदमों से सोचा किसी तरह घर पहुँच जाऊँ। घर में माँ होगी जो मेरी शक्ल से मेरी तकलीफ का अंदाज़ा लगा लेगी। लेकिन तुम भी पहले उस समाज का सोचने लगीं, अपनी इज्जत-बेइज्जती का....।"और कह बुरी तरह रोने लगी।
माँ ने उसे सीने से चिपका लिया, "माफ कर दे बेटा, मैं इतनी गलत हो सकती हूँ नहीं जानती थी। सच कह रही है तू, यदि हम कौन था?क्या किया?-के दायरे से निकल अपने बच्चे के मन को पहले पढ़ें, उसका साथ दें तो आधे से ज्यादा घिनोने अपराध कम हो जाएँगे। तू ठीक है ना!"
माँ ने जया को पानी पिलाया जब वो शांत हुई तो पूछा, "दीदी को खड़ा नहीं किया था।"
"नहीं माँ उसी समय उनकी मम्मा ने आवाज़ मारी तो वो चली गईं।"
"इसका मतलब किसी को पता था कि तू रोज इस जगह से आती-जाती है। कोई मौके के इंतजार में घात लगाए बैठा था।"
"तुम सही कहती हो माँ, अपनी रक्षा करने के लिए औरत दुर्गा और चंडी अपने आप बन जाती है। नहीं जानती इतनी ताकत मुझमें कहाँ से आई, बस उद्देश्य था खुद की आबरू बचाए रखना।"
"हाँ बेटा हर औरत को भगवान ने कोमल मन दिया है लेकिन यदि अपने आत्मविश्वास से अपनी रक्षा का जिम्मा हम खुद उठा लें तो कोई भी सामने वाला दुस्साहस करने से पहले हज़ार बार सोचेगा। मुझे जीवन भर अफसोस रहेगा कि पहला शब्द मेरा यही होना चाहिए था "तू ठीक है ना!" मैं चूक गई।"
"माँ मैं इस बात को कड़वी याद की तरह भूलना चाहती हूँ।"
अगले दिन जाने का समय था। जया नहीं जाने का मानस बनाए हुए थी। मन अभी भी शांत नहीं था, रह-रहकर घटनाक्रम आँखों के आगे आ जाता। इस अनहोनी से बचने का एक ही उपाय था, उस याद को ही खत्म कर देना।
टिंग-टोंग, टिंग-टोंग
दरवाज़े की घंटी सुन छोटी बहन ने दरवाजा खोला, "माँ आज इतनी जल्दी!"
"दी गई।"
"नहीं जा रही माँ।"
माँ ने जया का हाथ पकड़कर कहा, "चलो आज मैं गली के कोने में खड़ी रहूँगी, जानती हूँ कोई भी ताकत मेरी बेटी के आत्मबल को तोड़ नहीं सकती। मेरी परवरिश कभी कमजोर नहीं हो सकती। तुम्हारा नहीं जाना सामने वाले के इरादों को मजबूत करना है। तुम्हें जाकर ये दिखाना है तुम डरी नहीं, आज पूरी तैयारी के साथ उसके मंसूबे को परास्त करने आई हो। हाँ खुद पर विश्वास रखना अच्छा है लेकिन सावधानी रखना भी उतना ही जरूरी है।"
माँ के विश्वास ने जया के हौसले मजबूत कर दिए। पूरा रास्ता पार कर पलट मुस्कुरा कर माँ को बाय किया। आज एक अलग ही आत्मविश्वास उसके चेहरे में झलक रहा था।
आज यदि हम सब अपने बच्चों को मजबूती का सिर्फ पाठ न पढ़ा, उनका साथ दें तो न जाने कितनी जया के हौसले उड़ान भरेंगे।