Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

3.8  

Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

मर्यादा

मर्यादा

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मंदिर के बाहर जा देखा तो एक बुजुर्ग से पंडित जी बैठे थे।

"सुनिए ,पुरोहित जी यहीं-कहीं रहा करते थे!क्या आप उनके विषय में.... ?"

"किसका पूछ रहे हो बेटा,उनको तो गए सालों बीत गए।"

अनिरुद्ध थोड़ा सहम गया,"जी... जी मैं जानता हूँ।"

"बहुत बुरा किया था,भगवान ने उसके साथ लेकिन आज सालों बाद.... कौन हो बेटा... ?"

"जी जानता हूँ सब कुछ जानता हूँ उनके विषय में। असल में-मैं श्रीमती पुरोहित जी के विषय में जानना चाहता था।"

"तुम कौन हो ?"

"उनका बे...बेटा समझ लीजिए।"कहते हुए उसका गला रुँध गया।

पंडित जी मुस्कुराए और सिर पर हाथ रख बोले,"अनु...अनु हो तुम!कितने बड़े हो गए हो!पापा कैसे हैं क्या करते हो... ?"

"सब ठीक है पंडित जी। मतलब आपने मुझे पहचान लिया।"

"कैसे भूल सकता हूँ तुम्हारी मासूम शरारतों को। आज सालों बाद अपनी माँ की याद आई..!"

"आई तो पहले भी बहुत बार,बस हिम्मत ही नहीं हुई। कैसी हैं वो,कहाँ हैं,कोई साथ है या आज भी... ?"

"लम्बे समय तक ससुर जी जीवित थे,उन्हीं की सेवा में लगी रही। मन लगाने के तो उसके पास ढेरों साधन हैं। NGO चलाती है सारे दिन बच्चों से घिरी अपने मातृत्व की कमी को पूरा करती है। तुम्हें बहुत याद करती है। याद है तुम्हें उसके हाथ के बेसन के लड्डू बहुत पसंद थे,आज भी हर मंगलवार मंदिर में लड्डू चढ़ा बच्चों को प्रसाद बाँटती है। जाओ मिल आओ अपनी माँ से।"

अनिरुद्ध समय नहीं खोना चाहता था।

पहुँचा तो कमरे के बाहर वही मिश्री-घुली आवाज़ आ रही थी।

"ए फॉर" तो बच्चे मस्ती में बोले,"अनिरुद्ध भैया" और कह शरारती अंदाज़ में हँसने लगे।

"रुको बदमाशों,अभी बताती हूँ।"

अनिरुद्ध अपना नाम सुन ऐसे सहम गया जैसे वो छुप के कुछ सुनने की कोशिश रहा है और उसकी चोरी किसी ने पकड़ ली हो।

तपाक से बोला,"आया माँ...!"

इतने बच्चों के शोर में भी अनिरुद्ध की आवाज सीधे उसके दिल पर जा लगी। तेज कदम बढ़ाते हुए दरवाजा खोल देखा तो एक अनजान नवयुवक सहमा सा खड़ा एकटक उसे देख रहा था।

"किस्से मिलना है। अभी क्लास पूरी नहीं हुई।"

उसके सफेद बालों से झाँकती उसकी उम्र,चेहरे पर कहीं दिखाई नहीं दे रही थी।

आज भी चेहरे में वहीं कांति थी,आँखों में ममता समाई थी। नहीं था तो बस पहले सा जोश-स्फूर्ति जो शायद उम्र की पहली पहचान थी।

"कौन हैं आप किस्से मिलना चाहते हैं ?"

"आपसे" कह अनिरुद्ध गर्दन लटका ऐसे खड़ा हो गया जैसे कभी बचपन में अपनी गलती पर खड़ा हो जाता था।

उसने मुस्कुरा अनिरुद्ध के बालों में अपनी उंगलियाँ फंँसा रोते हए कहा,"गलती की सजा तो मिलनी ही चाहिए। कहाँ थे इतने दिन, एक दिन भी अपनी माँ की याद नहीं आई ?"

"सब यहीं पूछ लोगी ?"

"देखो बच्चों ये वो नटखट अनु..अनिरुद्ध जिसके में तुम्हें किस्से सुनाती हूँ।"सबसे मिलवा अंदर कमरे में ले गई।

"माँ ये क्या हाल बना रखा है,आप तो घर को इतने करीने से रखती थीं।"

"तब बिखेरने वाला आता था,तो जमाने में भी आनंद आता था। अब क्या बचा है। मैं और मेरी तन्हाई!और सुनाओ आज सालों बाद माँ की याद कैसे आई।"

"माँ जीवन का एक बहुत बड़ा निर्णय लेना है आपकी सलाह बहुत जरूरी थी। सोचा जिस विषय में उलझा हूँ,सबके विरोध के बाद भी यदि आपकी राय मिल जाती तो....चला आया। मेरी समस्या हल कर ,समाधान कर दोगी ना माँ ?"

सारे दिन इधर-उधर की,बचपन की बातें करने के बाद अनिरुद्ध झिझक के मारे कुछ पूछ न पाया।

"शादी कब कर रहे हो अनु ?"

"जब तुम कह दोगी।"

"मतलब।"

"माँ एक बहुत बड़ी उलझन में उलझा हूँ। हार्ट-अटैक से मेरे मित्र का देहांत हो गया था। उसका एक बेटा है,अभी चार साल का है। वो अपनी हर फरमाइश मुझसे पूरी करवाता है, यहाँ तक कि अपने पापा की छवि मुझमें देखने लगा है। माँ सच कहूँ तो मैं उस बच्चे को अपनाना चाहता हूँ। उसकी माँ को जब दुखी देखता हूँ तो बहुत तरस आता है लेकिन अपनाने को दिल गवाही नहीं देता। उसकी आँखें जब मेरी तरफ उठती हैं एक उम्मीद भरी नजर से मुझे देखती हैं। सच कहूँ तो दिल के किसी कोने में बच्चे के साथ-साथ उसकी फिक्र भी है। तुम इस दौर से गुजरी हो माँ,मुझे क्या करना चाहिए सलाह दो...।"

"अभी आराम कर,कल सुबह बात करते हैं।"कह वो कमरे में चली गई। रात भर उसके मन में अनिरुद्ध का बचपन घूमता रहा। कैसे वो उसे उसकी माँ के जाने के बाद अपनी छाती से उसे लगाए घूमती रहती थी।

उसकी माँ और वो दोनों एक ही दिन के अंतर से बहू बन कर मोहल्ले में आई थीं। कौन जानता था कि किस्मत भी एक सी होगी। जहाँ एक हादसे का शिकार हो वो विधवा हो गई,वहीं बीमारी के चलते छः महीने के अनिरूद्ध को छोड़ उसकी माँ चली गई।

न जाने क्या सम्मोहन था विजय में,जब छोटे से बच्चे को जिम्मेदारी से खिला ,वो थका-हारा आराम करता तो मन उसके लिए बेचैन हो उठता। समाज से डरकर,चाहते हुए भी कदम न उठा पाती। धीरे-धीरे अनु बड़ा होने लगा और अब चल कर दौड़ा चला आता। आज उसकी दादी ने बड़े प्यार से कहा,"तुम्हारी मैया जैसी ही है।"माँ कहा तो जैसे उस छोटे से बच्चे को मुझमें अपना संसार मिल गया हो।

उसके साथ-साथ विजय की चिंता,उसका दर्द सब महसूस कर रही थी। शायद मन ही मन उसकी तकलीफ से आत्मसात हो रही थी। अब इतनी निडर हो गई थी कि माँ आवाज़ सुनते ही सब लोक-लाज और सीमाओं को तोड़ दौड़ी चली जाती। आज दादी ने कहा,"बेटा विजय,जीवन अकेले काटना बहुत मुश्किल है,शादी कर ले,अनु के लिए ही सही।"

लेकिन वो मौन रहता।आजकल अनु का मुँह बोली माँ के पास जाना कम कर दिया था। विजय समझ रहा था कि उसकी दृष्टि बेशक गलत नहीं समर्पण की है लेकिन लोगों की नजर....।

आज वो सोचकर बैठी थी रख देगी ये प्रस्ताव,"अपनी दासी बना लो। आपकी पीड़ा सुन और बेटे के प्रति माँ के फ़र्ज़ निभा अपना समय बिता लेगी।"

आज मन पक्का कर अनु को विजय को देते हुए बोली,"मुझे आपसे कुछ कहना है....देखिये इसे बुखार है। यदि मैं.…।"कह रुक गई।

विजय उसे गोदी में लेता हुआ बोला,"मुझे गलत मत समझना। अभी बहुत छोटा है,अपना-पराया नहीं समझता। लेकिन इतना समझदार है कि दिन ढलते ही घर आने को रोने लगता है। सोचो तो बच्चा होते हुए भी कितनी बड़ी सोच है। हर काम समय और सीमा में हो तो उचित लगता है। जब चार साल का बच्चा अपना-घर,अपनी-मर्यादा समझता है तो हम भी नादान नहीं।"कह विजय चला गया।

उसके लिए यह बहुत बड़ा धक्का था। वो विजय की बात का मतलब समझ रही थी।

गुस्सा तो बहुत आया जब उसने पराया संबोधन किया। बस फिर उस दिन से अपनी सोच पर लगाम लगा ली। अनु आया करता और माँ से मिल जाता। कुछ सालों बाद,विजय ने माता-पिता के दुनियाँ छोड़ जाने के बाद अपना ट्रांसफर बाहर करवा लिया।

जब उसने ये सुना तो उसे लगा जैसे उसकी दुनिया ही उजड़ गई है।

घर छोड़ जाने से पहले विजय मिलने आए,"मुझे कभी गलत मत समझना। जीवन भर तुम अनु की माँ रहोगी। मैं तुम्हारा त्याग,प्रेम कभी उसके दिलो-दिमाग से मिटने नहीं दूँगा लेकिन जाने से पहले तुम्हें बताना चाहता हूँ कि अनु की माँ को वादा किया था,दुबारा कभी शादी नहीं करूँगा। माँ-बाप बन इसको दोनों के हिस्से की खुशियाँ दूँगा। ये जमाना बहुत खराब है। कल तक माँ-बाप थे,आज उनकी अनुपस्थिति में तुम्हारा आना, इस पाक-रिश्ते को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर देगा। तुम्हारी भावनाएँ समझते हुए भी अंजान बना रहा माफ कर देना। हमारा दूर रहना दोनों के हित में होगा।"

पुरानी बातें याद आते-आते उसके आँसू टपकते रहे और न जाने कब नींद आ गई। सुबह देर से नींद खुली तो देखा अनिरुद्ध चाय बना माँ का इंतजार कर रहा है।

"पापा कैसे हैं अनु ?"

"ठीक हैं,सच कहूँ तो जिस समस्या से घिरा आपके पास आया हूँ,समस्या को हल करने,यहाँ भेजने का फैसला उन्हीं का था।"उसने हाथ पर हाथ रख कहा,"मुझे खुशी है कि मुझे इतने सुलझे हुए माता-पिता मिले।"

इतना विश्वास है तो यही कहूँगी,"अपना लो उस लड़की को और उसके बेटे को भी। दो दिन बातें बना सब शांत हो जाएँगे लेकिन उनका जीवन संवर जाएगा। मुझे खुशी है मेरा बेटा इतना हिम्मती है। जानती हूँ तुम्हारे पापा को मेरा निर्णय सही नहीं लगेगा।"

वो मुस्कुराकर बोला,"माँ,पापा ने भी यही कहा था कि तेरा बाप समाज,मर्यादा और फ़र्ज़ तले दबा था,तेरे हिस्से की खुशियाँ तुझे न दे पाया। मुझे खुशी होगी यदि तुम किसी की ज़िंदगी संवारोगे। ....आप साथ चलोगी ना ?"

"नहीं बेटा,मेरा आशीर्वाद हमेशा तेरे साथ है। जिंदगी में कई फैसले समय पर लिए ही उचित होते हैं,मर्यादा में निभाए गए रिश्ते हमेशा सम्मान के पात्र होते हैं कभी किसी ने कहा था और मैं समाज में अपनी इज्जत देख इस बात को वक्त के साथ समझ पाई हूँ।"

अनिरूद्ध चला गया और एक बार फिर,वो बच्चों में अनु की छवि ढूँढने में मगन हो गई।

ज़िन्दगी बहुत छोटी है। कल न जाने क्या हो इसलिए बैर- भाव मिटाते हुए जो काम आज कर सकते हैं उसे टालें नहीं कहीं ऐसा न हो वक्त और किस्मत दोनों हमसे रूठ जाए।


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