माँ.... मम्मा !
माँ.... मम्मा !


"मम्मा".. कह जैसे ही सुबकने लगी, हमसफ़र ने प्यार से कंधे पर हाथ रख उसे सहारा दिया।
"सुमुखि... बस करो। तुम्हारे इस तरह रो कर जाने से मम्मा को कितनी तकलीफ होगी समझ सकती हो ना और फिर कौनसा बहुत दूर जा रही हो मिलती रहोगी उनसे। "
"लेकिन मेरे बिना मम्मा!... अकेली रह जाएँगी। "
"सुमुखि माँ-बाबा हैं ना!..फिर मैं भी तो हूँ। "कह जैसे ही जीवन साथी ने पलकों से आश्वासन दिया उसे लगा अब उसे किसी चीज की चिंता नहीं।
"मम्मा" कह मुड़ी तो देखा वो सास-ससुर के आगे हाथ बाँधे खड़ी थीं, " मेरी बेटी का ध्यान रखिएगा। मैंने बहुत लाड़-प्यार से पाला है। "
वार्तालाप चल ही रहा था कि किसी बड़े-बुजुर्ग की आवाज़ आई , "चलिए बारात समय पर विदा करें , नहीं पहुँचने में देर हो जाएगी। "
"चलो सुमुखि कह स्वप्निल ने कार का दरवाजा खोल दिया।
लेकिन सुमुखि... वो कैसे चली जाती!
कार का दरवाजा पकड़े-पकड़े उसकी निगाहें किसी को तलाश रही थीं। किसे? शायद सब जानते थे। उनसे बिना मिले वो कैसे जा सकती थी!हर समय साथ रहने वाली कहाँ थीं वो....!उसकी निगाहें भीड़ को भेद दूर एक कोने में जाकर टिक गई और सुमुखि दौड़ कर उनसे मिलने चल दी।
"आप यहाँ...!"
मुँह मैं पल्ला दबाए माधुरी के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे।
"आप यहाँ ...!अकेले...!.मुझे विदा नहीं करेंगी ...। देखिए मेरी तरफ....आप इतनी कमजोर नहीं हो सकतीं...माँ !
कह जोर से उसके सीने से लिपट गई। दोनों एक दूसरे की मनःस्थिति समझ सकती थीं।
"रोना नहीं है तुझे, नई जिंदगी की शुरुआत कर रही है खुशी- खुशी करना। सबका कहा मानना। अपने परिवार को एक रखने के लिए त्याग, समपर्ण किसी चीज की कमी अपने व्यवहार में मत आने देना। "
सुमुखि मुस्कुराई, " मैं समझ गई। आप यही कहना चाहती हैं ना बिल्कुल आप जैसी बनूँ। "
"मतलब! क्या.. कहना चाहती हो?"
"माँ, मुझे दो माओं का प्यार मिला है। त्याग, समपर्ण तो मेरे खून और संस्कार में है। मैं अपनी माँ जैसी ही बनूँगी। "
बाबा पीछे खड़े थे, "माधुरी, बस करो खुशी-खुशी जाने दो उसे...।
"बाबा "कह उनके सीने का सहारा ले सुमुखि कार में जा बैठी। आज मन किया लिपट कर बुरी तरह रो दे।
एक तरफ मम्मा थी जो जीती ही सुमुखि के लिए थीं और दूसरी तरफ माँ..जो उसे खुश देखकर खुश होतीं थीं।
तीनों एक दूसरे को अच्छे से समझती थीं लेकिन अनजान बनी रहतीं।
सुमुखि ने कार के दरवाजे में अपना सिर टिका लिया, चुप-चाप बैठी यही सोचती रही कितना बड़ा त्याग है दोनों का! माँ इस बात से अनजान है कि मैं जानती हूँ कि मुझे जन्म देने वाली वही हैं और मम्मा..!जिनके लिए जीने का एकमात्र सहारा मैं थी ये जानते हुए भी उन्होंने मुझे सारी असलियत बताई।
आज भी याद है कैसे बचपन में मौसी-माँ , एकदम से माँ बन गईं। कैसे बताती..जानती हूँ साये की तरह साथ रहने वाली माँ जो मेरी मित्र-गुरु सब थीं मेरी असली माँ होते हुए भी मैं उन्हें कभी माँ नहीं कह पाई।
जब बोलने वाली हुई तब मम्मा ने मौसी-माँ कहना सिखाया था। पापा की अचानक एक्सीडेंट में मृत्यु के पश्चात हम मौसी-माँ और बाबा के साथ रहने आ गए। देखते ही देखते मौसी-माँ के इतना करीब आ गई कि न जाने कब वो मौसी माँ से माँ बन गई।
मेरी हर इच्छा की पूर्ति, मेरे भविष्य का सोचना मुझे खुश रखने के हर-संभव प्रयास करना और यही नहीं अपने बच्चे के बराबर मुझे दर्जा देना। बचपन में कभी-कभी मौसी-माँ का बेटा मुझसे खीज जाता तो कितने प्
यार से उसे समझातीं।
बचपन , जवानी कब दिन बीते पता ही नहीं चला। बाबा ने कभी पापा की कमी महसूस होने ही न दी।
सब रिश्ते अपनी जगह थे लेकिन सीमा में। इतना सब होते हुए भी मम्मा का पद, उनका मेरे जीवन में होना एक अलग महत्त्व रखता था।
कैसे कहूँ देवरानी-जेठानी में इतनी प्रगाढ़ता, प्रेम-सम्मान और मर्यादा... मैंने और कहीं नहीं देखी।
मम्मा के प्रति मुझे सारे फ़र्ज़ माँ ने सिखाए। सच कहूँ तो इतना प्यारा संबंध जो उन दोनों महिलाओं से मैंने सीखा उसके लिए शब्द नहीं हैं।
आज भी याद है जब 16वां जन्मदिन था मम्मा ने प्यार से पास बैठा कितनी सहजता से सारी बात समझाई।
"सुमुखि अब तुम बच्ची नहीं रहीं , बड़ी हो गई हो। कल को दूसरों से तुम्हें पता चले या ना भी चले लेकिन मैं आजीवन एक बोझ लेकर जी नहीं पाऊंँगी। मेरे लिए तुम क्या हो तुम जानती हो। जो बताने जा रही हूँ ध्यान से, समझदारी से सुनना और उसके बाद संयम से फैसला लेना। मैं तुम्हारे हर फैसले में तुम्हारे साथ हूँ। कईं बार पूछती हो ना कोई देवर- देवरानी इतने अच्छे कैसे हो सकते है .... वो सच में अच्छे हैं सुमुखि। पहले बेटे के बाद दूसरा बच्चा होने वाला था। उसे बहुत बेसब्री से इंतजार था। हमेशा कहती जीजी , "देखना बेटी होगी और फिर परिवार पूरा। "
कहते-कहते मुझे देख सहम जाती। तब मेरी शादी को 12 साल हो चुके थे लेकिन ईश्वर ने संतान-सुख नहीं दिया था। मेरी तकलीफ की लकीरें उसके चेहरे पर दिखाई देतीं। दोनों भाइयों में भी बहुत प्रेम था।
जब बेटी पैदा हुई तो दोनों बहुत खुश थे। एक दिन बड़े भाई के मुँह से निकल गया, "ये बिटिया मुझे दे दे...। "आव देखा न ताव भाई की गोद में अपने ख्वाब रख दिए। उसे हमने नाम दिया सुमुखि.... !"
सुमुखि चुपचाप मम्मा की बात सुन रही थी।
"हाँ बेटा तेरे असली माता-पिता, तेरे माँ और बाबा ही हैं। मैंने वादा किया था ये सच तुम्हें कभी नहीं बताऊँगी लेकिन बेटा तुम्हारे पिता के जाने के बाद एक भय था कि ये लोग तुम्हें मुझसे वापिस ले लेंगे लेकिन उसके बदले इन्होंने मुझे भी आसरा दिया केवल आसरा ही नहीं तुम्हारी मम्मा के रूप में मेरा वजूद कायम रखा। ऐसे इंसानों के प्रति मेरा भी फ़र्ज़ बनता है कि मैं उनके त्याग, इंसानियत का बताकर उनके किए का कर्ज़ अदा करूँ। अब फैसला तुम्हारा है। "
"मम्मा ...ये राज आप तीनों के बीच रहा। आज के बाद भी ये राज ..राज ही रखिएगा। उन्हें कभी पता न चले कि मुझे सब पता है। आप मेरी प्यारी सी मम्मा हैं मेरा आदर्श है। सब इसी तरह सामान्य चलने दीजिए। "
अंतर बस एक आया। उस दिन से मौसी-माँ ..माँ बन गईं।
"सुमुखि.. सुमुखि...कहाँ खो गईं। " स्वप्निल ने उसे हिलाते हुए पूछा।
आँखों से बहते आँसू पौंछ मुस्कुरा दी।
"कितना कठिन है स्वप्निल दोनों माओं के प्यार के बिना रहना। "
मन में यही सोचती रही। ईश्वर.. वो दोनों मेरे लिए एक आदर्श हैं। त्याग, समर्पण, फ़र्ज़ क्या कुछ नहीं सीखा मैंने उनसे। भविष्य में कभी मेरे परिवार को जिस रूप में भी मेरी जरूरत पड़ेगी में अपनी माँ की तरह कभी अपने फ़र्ज़ से पीछे नहीं हटूँगी और अपनी मम्मा की तरह सच का सामना हमेशा हिम्मत से करूँगी। कितना बड़ा उदाहरण है एक माँ ने अपने कलेजे के टुकड़े को किसी की खुशी के लिए न्यौछावर कर दिया और दूसरी तरफ कितना पाक दिल जो अपने भविष्य का सोचे बिना सच्चाई मेरे सामने रख दी। मेरी दोनों माओं का त्याग मेरा आदर्श रहेगा। मन ही मन मुस्कुरा स्वप्निल के कंधे के सहारा लेने, उसके करीब आ गई।