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Meeta Joshi

Inspirational Others

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Meeta Joshi

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अदृश्य शक्ति

अदृश्य शक्ति

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मीना जी तकरीबन सत्तर से पचहत्तर साल के बीच की रही होंगी। उच्च प्राथमिक विद्यालय की प्रधानाचार्या के पद से सेवानिवृत्त हुई हैं। विद्यालय में बहुत रौब था उनका। बच्चे उनके नाम से डरते थे और पीछे से बातें बनाते, "यार यदि कोई अदृश्य शक्ति मिल जाए तो मैं मीना मैडम को गायब कर दूँ।" यह बात मीना जी के कानों तक पड़ गई और वह अदृश्य शक्ति की तरह पहुँच गई, बच्चों की खटिया खड़ी करने। 

अब रिटायर हो चुकी थीं। धीरे-धीरे उम्र भी बढ़ रही थी। उनका रौबीला स्वभाव मात्र स्कूल में ही न था घर में भी हर एक जना उनसे डरता था, फिर चाहे उनकी बेटी हो या बहुएँ। सबको आड़े हाथों लिए रहतीं। ऐसा नहीं था कि कोई रौबीले स्वभाव के रहते उन्हें इज्जत नहीं देता था। घर में सभी उन्हें बहुत इज्जत देते इसीलिए उनका रौब बरकरार था।

उम्र बीतने के साथ भी उनके रुतबे में कहीं कोई कमी ना आई। अब सारा समय घर पर ही निकलता था। हर वक्त बहुओं की नाक पर नकेल चढ़ाए रखतीं। एक दिन पोतियों का खेल देख रही थीं। एक ने कहा, "चल सपोज़ कर भगवान तुझे एक अदृश्य शक्ति से गायब होने की पॉवर दे-दे तो तू क्या करेगी?" 

दूसरी रोमांचित हो बोली, "भगवान एक दिन मुझे गायब होने की पॉवर दे-दे तो मैं होमवर्क ही ना करूँ, दादी की चूर्ण की गोलियाँ, सारी एक बार में खा जाऊँ और हाँ, दादी बन, चेयर पर बैठ सब पर रौब चलाऊँ।"

बच्चों की बातों पर मीना जी को हँसी आ गई। सोचने लगीं सच में यदि एक दिन के लिए मैं अदृश्य हो जाऊँ तो अपने बच्चों के मन को तो पढ़ पाऊँ और खो गई ख्यालों में। सोचने लगीं एक अदृश्य शक्ति मिल गई है और उसके सहारे वो गायब हो पहुँच गईं अपने बड़े बेटे के कमरे में। 

वहाँ बेटा-बहू आपस में बात कर रहे थे। बहू बोली, "सुनो जी, आपकी मम्मी का दिमाग बिल्कुल घूमा हुआ है। बस कुर्सी पर बैठी-बैठी सारे दिन दिमाग चाटती हैं।"

 "क्या करूँ सुधा, मम्मी शुरू से ही ऐसी अड़ियल रही हैं। उनको समझाना मतलब भैंस के आगे बीन बजाना है।"

मीना जी का यह सब सुन दिमाग चकरा गया। अब अदृश्य शक्ति के सहारे पहुँच गई अपने दूसरे बेटे के कमरे में। 

बहू बोली, "देखो जी, माँ जी के नियम बहुत अच्छे हैं।" यह सुन वे थोड़ा खुश हुई ही थीं कि बहू ने बोलना जारी रखा, "काश जितने नियम दूसरों के लिए बनाती हैं उसका एक अंश खुद भी मान लिया होता। प्रिंसिपल पद छूट गया पर प्रिंसीपल गिरी नहीं छूटी। रौब अभी भी वही है। सोचती हैं सारे दिन उनकी गुलामी करें। ऐसा व्यवहार रहा है तभी तो आज कोई यार-दोस्त नहीं।" अपनी लाड़ली बहू के मुंँह से ये बातें सुन उन्हें बहुत बुरा लगा, अब बेटे का जवाब सुन अवाक रह गईं।

"छोड़ो ना मम्मी को, उन्हें तो कभी पापा भी ना समझा पाए। तुम अपने काम से काम रखा करो। उनकी बातें एक कान से सुनो और दूसरे से निकाल दो। सोचो अगर व्यवहार ही अच्छा होता तो आज कितने-मिलने वाले जुड़े होते।"

 "सही कह रहे हैं जी आप। आजकल कम सुनने का नाटक करती हैं और उनके मतलब की बात करो तो सब सुन लेती हैं।" मीना जी को इस बहू से ऐसी की उम्मीद ना थी जैसा वह सुन रही थीं। दुखी मन से सोचने लगीं, 'मैंने नियम बनाए ये सोचकर की बच्चे संस्कारी बनेंगे और वो उन्हीं नियमों के कारण विद्रोही बन गए।'

अब उदास मन से बेटी के पास पहुँची। उन्हें विश्वास था वह जरूर मेरी कद्र करेगी। कमरे में पहुंची तो जमाई जी कुछ बड़बड़ा रहे थे। लगा अभी-अभी दोनों का झगड़ा हुआ है। 

"शोभा, दसों आवाज मार दी सुनती ही नहीं हो। बिल्कुल अपनी मांँ जैसी अड़ियल हो। बस अपनी कहना, दूसरे की भावनाओं से कोई मतलब ही नहीं।"

 "आ रही हूँ और ये बार-बार क्या मम्मी का नाम क्यों लेते हो। जितना मैं तुम्हारे लिए करती हूँ ना, उसका एक अंश भी कभी उन्होंने पापा के लिए नहीं किया।" 

दोनों हँसने लगे। 

जमाई ने फिर कहना शुरू किया "कुछ भी कहो यार तुम्हारी मम्मी पॉवरफुल बहुत हैं। इतनी दूर से भी हमारी बातों में शामिल रहती हैं।" 

"जी हां, बेटी-बेटे-बहू सबके लिए एक सी रही है माँ।" अब मीना जी को थोड़ी तसल्ली मिली, उन्होंने ध्यान लगाकर सुनना शुरू किया।

"सच है कि उन्होंने कभी भेदभाव नहीं किया पर अत्यधिक अनुशासन भी एक जंजीर समान होता है। कभी उन्होंने अपने नियमों से निकल हमारे मन को नहीं पढ़ा। देखना अगर इसी तरह से रौब रखती रहीं तो एक दिन बुढ़ापा बहुत कठिन हो जाएगा। आने वाले समय में कोई एक बहू भी उनके लिए करने को तैयार ना होगी।"

 अदृश्य शक्ति से सबके मन की बातें जान, मीना जी का दिल टूट गया। सोचने लगीं, 'बच्चे कितना गलत सोचते हैं। मैंने कितना भी रौब रखा हो पर उनकी मन की पूर्ति हमेशा की है। अपने प्यार में कभी कोई कमी ना आने दी। इनके चले जाने के बाद माता-पिता दोनों का दायित्व निभाया और आज....!' वह दुखी हो गईं। फिर भी उन्हें यह देख तसल्ली थी कि 'तीनों अपने हमसफ़र के लिए समर्पित हैं। मेरा क्या मैं तो अपनी उम्र जी चुकी हूँ।

इतने में पोती ने हाथ हिला कहा, "दादी कहाँ खो गई? सो गई क्या! आज आठ बज गए, खाने की टेबल पर नहीं पहुँची आप!" 

दूसरी ने चिल्लाना शुरू कर दिया, "दादी हार गई....दादी हार गई।" उन्हें लगा उन्होंने बच्चों को कितना बेड़ियों में कस रखा है। खाने की टेबल पर भी आज वो कुछ ना बोलीं। दोनों बहुएँ पूछने लगी, "तबीयत तो ठीक है ना माँ" 

रात को सोने जा रही थीं तो दोनों बहुएँ रसोई में थीं। उनके नियमानुसार घर में एक ही टीवी है तो सभी बच्चे वहीं बैठे साथ में टीवी देख रहे थे। अब बहुओं के मुँह से अपना नाम सुन वहीं रसोई के बाहर रुक गई। 

एक ने कहा "आज माँ बहुत चुप थीं।" 

दूसरी ने कहा, "अच्छा नहीं लगता उन्हें ऐसे देख। उनके चेहरे पर तो रौब ही अच्छा लगता है। देखो ना उनके नियमों से हर काम व्यवस्थित तरीके से होता है।"

"सही कह रही हो दीदी, इस तरह एक-दूसरे के लिए भी समय मिल जाता है। हाँ पर वो कितना भी रौब रखें उनकी ममता कहीं पीछे नहीं रहती।" 

दोनों की बातें सुन मीना जी के आँसू छलक पड़े। अब बेटे पीछे पड़ गए, "आज टीवी बंद करने के लिए डाँटोगी नहीं माँ, कहाँ खो रही हो आप?" 

वो हँसकर बोलीं, "नहीं बेटा, अब मुक्त करो मुझे इन घर परिवार के झमेलों से। तुम बड़े हो गए हो। पिता बन गए हो अब तुम अपने नियम बनाओ। जो अच्छा लगे वो करो।" 

बेटे ने हाथ पकड़ कहा, "ऐसा क्यों कह रही हो। क्या कोई गलती हो गई? आज तुम्हारे नियमों से ही ये परिवार एक है।" फिर बेटा मस्ती में बोला, "तुम चिंता क्यों करती हो....तुम्हारे जाने के बाद तुम अदृश्य शक्ति से देखना यह 'मीना-सदन' तुम्हारे नियमों पर ही चलेगा।"

"मीना सदन!" माँ आश्चर्य में बोलीं। 

"हाँ माँ, हम दोनों भाइयों ने यह निर्णय लिया है अब से यह घर 'मीना-सदन' कहलाएगा।" 

मीना जी मुस्कुरा दीं। कमरे में गईं तो सोचने लगीं अदृश्य शक्ति ने शायद मुझे मेरे अंदर से मिला दिया। अपनी कमियों को मैं बखूबी जानती थी। कम समय में उनके चले जाने से मुझे मांँऔ र पिता दोनों बनना था। बच्चों के मन की बातें जो मैं पूरी न कर पाई या अत्यधिक नियम जो मैंने लगाए उससे मेरे बच्चों की भावनाएँ जो आहत हुई होगी वो मेरे अंदर कहीं दफन थी।

अदृश्य शक्ति ने उन्हीं से परिचय करवाया। पर आज वो बहुत तसल्ली की नींद सोई क्योंकि अपने बच्चों और बहुओं के विचार खुद के लिए जान पाईं थीं। यह सब उनके त्याग का परिणाम था और उनके बच्चे आज उनका रौब हैं। एक अकेली महिला के लिए परिवार को बाँधे रख प्रेम का पाठ पढ़ाना बहुत कठिन होता है। मीना जी ने वही किया। अदृश्य शक्ति के सहारे खुद में जो कमी महसूस करती थीं उनसे रूबरू हो पाईं पर उनके दिए संस्कार कोई जेल समान न थे यह जान खुश थीं। आज उन्हें किये का फल मिल गया था। यदि आप प्यार और एकता का सबब, संस्कारों के रूप में देंगे तो निश्चित रूप से आप के संस्कारों की जीत होगी।



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