Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

4.5  

Meeta Joshi

Tragedy Inspirational

हम-दोनों

हम-दोनों

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उनकी बढ़ती उम्र और तरसती निगाहों में हमेशा एक उम्मीद देखी,बेटे के साथ रहने की,पोते-पोतियों संग बुढ़ापा बिताने की। अलग और दूर रहकर भी मन में एक विश्वास था बस कुछ समय और जब कुछ नहीं कर पाएंगे तो चले जाएँगे अपने बेटे के पास। अड़ोस-पड़ोस के सब बच्चे उन्हें दादा- दादी कह बुलाते और वो अपने पोता-पोती का अक्स उनमें देख समय बिता लेते। शुरू से जिद्द थी जब तक समर्थ हैं किसी की ज़िंदगी पर बोझ नहीं बनेंगे । मैंने देखा उनके बच्चे अक्सर उनसे मिलने आया करते थे। मेरी बेटी भी उन्हीं के वहीं पली। आंटी-अंकल एक दूसरे का सहयोग कर रहते थे लेकिन दोनों के स्वभाव में अंतर था जहाँ अंकल तुनक कर बोल देने वाले वहीं आंटी शांत। शायद ज़िंदगी इतने संघर्ष में बीती थी कि दर्द को छुपाना जानती थीं। बेटी अक्सर जिद्द करतीं हमारे साथ रहो तो अंकल गर्व से कहते,"क्यों तुम्हारे साथ क्यों? बेटा है मेरा। जब जाना होगा उसी के पास जाएँगे।

उम्र बढ़ने के साथ बीमारियों ने घर बना लिया लेकिन जीवनसंगिनी ने कभी किसी पर पराश्रित नहीं होने दिया। मेरा शुरू से उनके घर आना-जाना था। यहाँ आने के बाद एक वो परिवार था जहाँ मैं आँख मूंद विश्वास कर सकती थी।

शुरू से संपर्क में रहने की वजह से दोनों के स्वभाव को अच्छे से जानती थी। बेटी अक्सर आती रहती। बेटा भी साल-दो साल में आता या कभी आंटी-अंकल उनसे मिलने चले जाते। बेटे का विवाह बहुत शौक से किया,बहू भी अंकल ही पसंद कर लाए। वो अपनी दोनों बहनों में सबसे बड़ी व समझदार। लोगों ने बहुत कहा,"कहाँ शादी कर रहे हो उनका कोई भाई नहीं। "कोई कहता,"जीवनभर आपकी नहीं हो पाएगी क्योकि मांँ-बाप की चिंता हर समय सताए रहेगी।

इस बात का विरोध कर दोनों कहते,"अच्छा ऐसी घटिया सोच हर कोई रखेगा तो जिनके भाई नहीं उन लड़कियों से कोई शादी ही नहीं करेगा। हमें अपने बच्चे पर विश्वास है। मध्यम वर्गीय परिवार होते हुए भी हमने उसे आगे से आगे हर सुविधा दी है। वो भी बहुत समझदार है जानते हैं कभी किसी दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ेगा। और बहू के माता-पिता को समय समय संभालना भी उनका फ़र्ज़ है। वो भी अब हमारा परिवार है। "कह अंकल अपने बेटे के पक्ष में एक खंबा और गाड़ देते।

। परिवार में छोटी-मोटी खटपट होना स्वाभाविक है। जिस रात शादी थी,बहू की करीबी रिश्तेदार बार-बार उनकी बेटी को समझाती रही,"बहू को भाई के साथ तुरंत विदा मत करना। थोड़े दिन घर में रख जिम्मेदारी डालना,जो कल को रीति-रिवाज,घर में अपना अधिकार और सास-ससुर के प्रति अपने फर्ज सब समझ सके। "

उसने ये बात क्यों समझाई नहीं समझ सकते अंकल की बेटी निशि ने हँसकर कहा," देखिए आंटी,आज हम उसे समझेंगे तभी तो वो कल को हमारे लिए सकारात्मक समझ पाएगी। "लेकिन वो उनकी करीबी होते हुए भी बार- बार समझाती रही। जो भी था खुशी-खुशी बहू घर आ गई आंटी-अंकल ने उसे शुरू में ही बेटे के साथ विदा कर दिया ये सोच की बच्चे खुश रहेंगे तो आने वाला समय सुख चैन से बीतेगा। समय बीतता गया और मायका-प्रेम व जिम्मेदारी ससुराल से ज्यादा जरूरी होने लगी। आंटी-अंकल से ज्यादा बहू के माता-पिता का वर्चस्व उनके ऊपर रहता। पल-पल की खबर माँ को पहुँचा उनकी सलाह से बेटी काम करती। जब कभी आंटी-अंकल को कहीं ये बात बुरी लगती तो अंकल साफ शब्दों में कह देते। प्रतिफल ये था कि अब वो खुले आम कहती,"मेरे माता-पिता के प्रति मेरी भी उतनी ही जिम्मेदारी है परीक्षित जितनी तुम्हारी अपने माता-पिता के लिए। "अपने घर के कलह को कम करने के लिए परीक्षित चुप रह सब शांति से देखता रहता कोई विरोध न करता। समय बीतने के साथ उसे भी सारे रिश्ते ससुराल में मिलने लगे। अब उसका आना कम से कम होता गया। आंटी-अंकल की भी तबियत दिन प्रति-दिन बिगड़ने में ही थी। ऐसा नहीं कि उसने कभी मदद न कि हो या जिम्मेदारी न उठाई हो। लेकिन अब इस उम्र में मदद से ज्यादा उन्हें साथ की जरूरत थी।

जिसकी कमी अंकल के चेहरे पर साफ दिखाई देती लेकिन कहते हैं ना जब किसी पर समय रहते जिम्मेदारी डाली ही नहीं तो एक वक्त बाद इंसान उसे उठाने का सोचने से भी कतराने लगता है,वही उनके साथ भी हुआ। ऐसा नहीं कि कभी बेटे के पास गए ही नहीं गए भी लेकिन वहाँ वो एक कमरे तक सीमित थे। बहू सम्मान में कोई कमी न रखती लेकिन सास-ससुर के आने से लगनी वाली अनचाही बंदिशें उसके चेहरे पर साफ दिखाई देतीं। हर काम में पीहर वालों का हस्तक्षेप नजर आने लगा था। उसकी पूरी कोशिश यही रहती की परीक्षित का जब अपनों से मोह कम होगा तभी तो मेरे घरवालों से जुड़ पाएगा। बहनों की शादी हो गई और इन दोनों की जिम्मेदारी और बढ़ गई। देख रही थी आंटी-अंकल का आना-जाना भी कम हो गया था। अब आंटी भी बीमार रहने लगे थे। जो कहता उसकी यही सलाह होती,"कहाँ बुढ़ापे में अकेले बैठे हो बच्चों के साथ रहो। तभी तो आपसी प्रेम बढ़ेगा,एक-दूसरे को समझ पाओगे और समय रहते बच्चों को अपनी जिम्मेदारी का एहसास होगा। "दोनों निरुत्तर थे। आंटी मुस्कुरा देतीं,"हमें यही अच्छा लगता है। "और मैं उनकी उस मुस्कुराहट के पीछे छिपे दर्द को समझ पाती थी। इतना प्यार देने के बाद भी स्वार्थवश एक औलाद कितनी पराई हो जाती है। जिस बहू को इतने प्यार से अपने परिवार को एक करने के लिए लाया जाता है वही अपना स्वार्थ पूरा कराने को प्रेम से रह रहे घर में एकता बरकरार नहीं रख पाती। आदमी ये क्यों नहीं समझ पाता जैसे वो अपने परिवार के लिए पति से अपेक्षाएं रख उन्हें पूरा करवाती है तो मेरे भी अपने फ़र्ज़ है जो उसे पूरे करने ही होंगे। अंकल की आती आवाज़ें ये सब सोचने को मजबूर कर देतीं। बहुत दिनों तक दोनों दिखाई न दिए । दुकान वाले समान रख जाते,मैं शिरकत करने गई तो पता चला आंटी बीमार हैं। दोनों का अधिकांश समय अस्पताल के चक्कर लगाने में बीतता हैं। "अंकल आपकी तबियत ठीक नहीं रहती आप कहें तो आंटी को मैं दिखा लाऊँ?"

अंकल ने बड़े गर्व से कहा,"नहीं परेशान मत हो,मेरा बेटा आ रहा है। बचपन से बहुत समझदार है। एकदम शांत, परिस्थितियों को समझने वाला। देखना जब मम्मी को बीमार देखेगा तो अकेले नहीं रहने देगा। बेटा आया भी इलाज भी करवाया और दस-पांँच दिन साथ रह चला गया। अंकल टूटे हुए दिखाई दे रहे थे लेकिन आंटी के चेहरे पर कोई भाव न थे। वही रोज की तरह छोटे-छोटे कदम बढ़ाते हुए जरूरत के समान को लाने में लगी थीं। दिन में मिलने गई तो अंकल ने कहा," डॉ ने धूप सेकने को कहा है। हड्डियाँ कमजोर हो रही हैं। इसे कितना कहता हूँ जा शिखा के धूप सेक कर आ,मुझे छोड़ कहीं नहीं जाती। ये नहीं समझती इसका साथ मेरे लिए कितना जरूरी है। ""हाँ आंटी आ जाया करिये ना मेरे घर में धूप अच्छी आती है। "

दो-तीन दिन आंटी के साथ बैठ जब भी बात चलती हमेशा मैंने ये ही सुना," मेरी बहू संस्कारी है?" इसके अलावा वो कभी टिप्पड़ीं न करतीं। आज उनकी तकलीफ ज्यादा देख मैंने गुस्से में कह ही दिया," आंटी मुझे समझ नहीं आता,क्यों लोगों को बेटे की चाह रहती है, जब जीवन अकेले काटना है। इतनी बीमारी में आपका बेटा आपको साथ नहीं रख पाया। बहू मायके के अलावा किसी और के लिए कुछ नहीं करना चाहती, कैसी संस्कारी बहू है वो और कैसे उसके घरवाले। माफ कीजिएगा लेकिन मुझे तो ये तौर-तरीके बिल्कुल पसंद नहीं आए। कितने अरमानों से माँ-बाप बच्चों की परवरिश करते है। बेटा सामने है तो एक उम्मीद बँध जाती है कि भविष्य सुरक्षित है। जब एक लड़की अपने पति से अपने परिवार का करवाने का सोच सकती है तो एक बेटे की माँ के अरमान...वो कितने प्रगाढ़ होंगे। जिसने जन्म से ही बुढ़ापे का साया साथ देखा है। "

सब बोलने के बाद शिखा आंटी की शक्ल देख मायूस हो गई "माफ कीजिएगा आप लोगों से प्रेम है इसलिए ...। "और कह सुबकने लगी।

आंटी हमेशा की तरह मुस्कुराई," इतनी फिक्र करती हो हमारी,फिर भी चाहती हो हम यहाँ से चले जाएंँ। बच्चे सब अच्छे होते है। सबके अपने सपने,अपने अरमान होते हैं। आगे बढ़ने का इच्छुक कैसे कोई बंदिश या जिम्मेदारी उठा अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ कर सकता हैं। शायद हमारा स्वभाव अच्छा नहीं या हम उनके स्तर के नहीं रहे। एक उम्र के बाद बच्चों की समझ और सोच माँ-बाप से बड़ी हो जाती है। जब हमारा बेटा हमें समझ नहीं सका तो दूसरे से क्या शिकवा-शिकायत करनी। जहाँ तक बहू का सवाल है मैं आज भी यही कहूँगी 'मेरी बहू संस्कारी है 'तभी तो आज भी हमारी न हो अपने माँ बाप की रही। उनका बेटा नहीं तो क्या वो उसके पूरे फ़र्ज़ निभा रही है। कमी तो हमारे संस्कारों में रही जो हमारा बेटा उनके प्रेम और स्वभाव को समझ उनका हो गया। मेरी ममता,पिता का साथ और बहन का साथ सब उसे उस घर में मिल गया। कितनी गुणी है मेरी बहू और कितने अच्छे उसके संस्कार। हम-दोनों एक दूसरे के लिए पूरे हैं आज ज़िंदगी के उस मुकाम पर हैं जहाँ से ज़िंदगी शुरू की थी। "आंटी इतना कह उठ चली गईं। नहीं जानती वो कितनी सहज थीं लेकिन उनके पीछे के दर्द को मैं समझ सकती थी। जान गई थी असहाय कोई नहीं होता। अंकल अब न के बराबर दिखते क्योंकि आस और विश्वास दोनों टूट चुके थे। आंटी तो सदा से ही निर्विकल्प रहीं लेकिन मेरा मन हमेशा यही कहता किसी की औलाद को माता-पिता से दूर कर अपना आशियाना सजाने वालों की ज़िंदगी कभी सुकून में नहीं बीतती,वक्त सबका आता है और बुढापा भी। हर माँ-बाप अपने बच्चों को पालते वक्त यही सोचते हैं हमारे जैसे संस्कार कोई दूसरा नहीं दे सकता। किसी की आत्मा को तकलीफ देना सबसे घृणित कर्म है। आत्मा की आवाज़ सबसे प्रबल होती है। आज मन में किसी की कही बात घूम रही थी,"इतनी भी देर मत करना वापिस लौटने में, कि चाबियाँ भी बेअसर हो जाये तालों पर। "


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