Meeta Joshi

Others

4.3  

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माँ बिन मायका

माँ बिन मायका

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भाई के बहुत जिद्द करने पर सलिला बच्चों के साथ अपने मायके रवाना हो ली।

" विवेक जल्दी लेने आइयेगा और हांँ बार-बार फ़ोन कर जल्दी आने को कहते रहिएगा।"


"सलिला क्या हो गया है तुम्हें!अनुज कबसे आने की जिद्द कर रहा है। जा रही हो तो कुछ दिन आराम से रह कर आओ।भाई है तुम्हारा।अचानक इतनी दूरी क्यों?"


"आराम से रहकर आऊँ!क्या कह रहे हो? तुम्हें तो बस अपनी स्वतंत्रता से मतलब है,किसी दूसरे ही भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं।कह दिया ना दो-चार दिन बाद वापिस आने की जिद्द करना, बस यही एक कहा मान लो।"


रात की ट्रेन में विवेक ने सलिला व बच्चों को बैठा दिया।ट्रेन अगले दिन सुबह हैदराबाद पहुँचने वाली थी।न जाने कितने विचार सलिला के मन को बेचैन किए हुए थे।


'जल्दी सोने से सुबह जल्दी होगी' इस विचार से बच्चे सो चुके थे।ट्रेन के हर झटके से सलिला हर बार कुछ नया सोचने लगती।


ट्रिन- ट्रिन..


"हांँ जी विवेक।


"सोई नहीं?"

"नहीं"


"मेरी याद...।"


"हांँ। अब बाकी तो ज़िन्दगी में बचा ही क्या है।"


"सुनो ट्रेन समय पर चल रही है सुबह जल्दी पहुँच जाओगे ऐसा करता हूँ अनुज को फ़ोन कर लेने आने को कह देता हूँ।"


"नहीं.. नहीं उसकी कोई जरूरत नहीं। मैं कैब बुक करवा खुद पहुँच जाऊँगी।आप सो जाइये सुबह घर पहुँचकर बात करते हैं।


फ़ोन रखा तो मन में कई सवाल-जवाब तहलका मचा रहे थे।मन में पूरे समय मायके की यादें थीं।माँ की आवाज़ थी"मैंने,अनुज को बोला था ले आ बिटिया को।अकेले बच्चे और समान ,लाना मुश्किल होगा।दुष्ट हिला भी नहीं।"


"पहली बार थोड़ी आ रही है।सारे गली-मोहल्लों से परिचित है। वो तो यहाँ की डॉन थी,अपने आप आ जाएगी।"बातें यादकर एक हँसी सलिला के चेहरे में दौड़ गई।


अनुज की शादी के बाद सबकुछ कितना बदल गया था। माँ जब लाने को कहती तो कहता ,"माँ आ जाएगी ना।सालों से आ रही है।फिर कौनसा बैठने से पहले मुझे फ़ोन कर लेने आने को बोली थी।"


"अरे दुष्ट क्या कह रहा है ।बहन है तेरी ।कितनी खुशी होगी उसे अगर तू लेने गया तो।"


"माँ अब मेरी भी जिम्मेदारियाँ है।ये लेने जाना ,छोड़ना इन सबके लिए मेरे पास समय नहीं होता।जब एक शहर से दूसरे शहर आ सकती है तो स्टेशन से घर आने में क्या परेशानी।"


"मना कर रहा है सलिला, कितनी बार बोला पर लेने आने को तैयार नहीं।"


"कोई बात नहीं माँ, मत कहा करो।अब वो भी बच्चा नहीं है।उसकी भी शादी हो गई है।"


"मेरे जीते जी तो मान जाता बाद मैं देखी जाती।जैसा रिश्ता निभाना है ,निभाते।""छोड़ो ना माँ क्यों बात का बतंगड़ बनाना ।मैं आ जाऊँगी अपनेआप।मत कहा करो उसे।"


न जाने कितनी बातें उसके मानस पटल पर दौड़ने लगीं।जबरन आंँख बंद कर नींद से मुलाक़ात करने की कोशिश अंततः सफल हुई।सुबह अचानक घबरा कर उठी तो देखा सही समय पर नींद खुली है। गाड़ी स्टेशन पर दौड़ रही थी।बाहर झाँक देखा तो हैदराबाद लिखा था।"बच्चों उठो बेटा, चलो, हमें उतरना है।जल्दी करो।नीचे उतर कैब बुक करवा लेंगे ।"

अलसाई आँखों से बच्चे अपना-अपना सामान ले खड़े हो गए।मन में सोचने लगी अभी तक माँ दस फ़ोन कर देती थी ।पता नहीं घर का माहौल कैसा होगा?जाते ही किससे सामना होगा? वो अपना सामान कौनसे कमरे में रखेगी?और भी न जाने क्या- क्या....!

जैसे ही बच्चों को उतार,अटैची बाहर निकालने लगी।अटैची का वजन कुछ कम सा लगा," ला ये मुझे दे- दे।कुछ और समान है तो वो ले आ..।"


"तू...इतनी सुबह..!.क्या जरूरत थी....।पहले तो कहते-कहते भी.....।"


"औरों को उतरने दे, बाकी बातें आराम से बैठकर करना।"


"दोनों स्टेशन को चीरते हुए बिल्कुल मौन चलते रहे।बच्चे मामा से दुनिया भर की बातें करने में लग गए।समान कार में रख अनुज ने सलिला के लिए आगे वाली सीट का दरवाजा खोल दिया....,".कैसी है?" भाई के पूछते ही एक आँसू टपक पड़ा।मन आया सीने से लग जोर-जोर से रो दे ।बहुत जल्दी पूछ रहा है कैसी है लेकिन शायद उम्र की परिपक्वता, गर्दन हिला, ठीक हूँ मैं जवाब दिया।


"इतनी ठंड में लेने आने की क्या जरूरत थी।कल तक माँ लाने की जिद्द करती थी तो कहता था डॉन है आ जाएगी।अब....इतनी चिंता।क्यों अपनी डॉन पर विश्वास नहीं रहा।"छोटे-मोटे, शिकवे-शिकायतों में घर आ गया।घुसते ही देखा इन दो सालों में काफी बदल चुका था।माँ का तुलसी का परिंडा गार्डन के बीचों- बीच सुंदर सी पेंटिंग से सजाया गया था।

सोच रही थी कितनी बड़ी हो गई हूंँ वर्ना ऑटो से उतरते ही मांँ-माँ चिल्लाकर दौड़ी चली जाती थी ।नजर उठा घर की देहली देखी।आज वहाँ कोई रौनक न थी उस देहली की रौनक तो माँ हुआ करती थी।जैसे ही दरवाजा खोला, भाभी व बच्चों ने जोर से हल्ला मचाया वेलकम-होम।यकीनन ऐसा स्वागत इससे पहले मायके में कभी नहीं हुआ था।बच्चे, भाभी न जाने कितनी पुरानी बातें करते रहे।

"दी ये लीजिए,आपके पसंद की अदरक वाली कड़क चाय।"बच्चे भी ननिहाल आ बहुत खुश थे।बातों-बातों में समय का पता ही नहीं चला।सारी खुशियांँ थीं कोई कमी नहीं लेकिन सलिला का मन बस एक जने को ढूँढ रहा था,माँ की मौजूदगी को, उनके एहसास को। बिन माँ मायका कैसे हो सकता है।जैसे ही अंदर गई बरामदे में माँ की तस्वीर लगी थी,वहीं खड़ी हो गई।आँसू को काबू में न कर पाई तो भाभी ने कंधे पर हाथ रख कहा,"हम हैं ना दी।आपका मायका हमेशा पहले जैसा रहेगा।"


कैसे कहती तुम उसकी जगह कैसे ले सकती हो ।जो मेरे चेहरे से मेरे दिल की बात जान लेती थी आते ही जिसके सीने से लग ससुराल की हो या कोई और परेशानी हो छू-मंतर हो जाती थी।आँसू पौंछ माँ के कमरे में गई।कमरा बिल्कुल वैसा ही रखा था जैसा वो चाहती थीं। सलिला का सामान माँ के कमरे में रखवा दिया गया।देखते ही देखते चार-पांँच दिन कहाँ बीत गए पता ही नहीं चला।बीते चंद सालों में कभी महसूस ही नहीं कर पाई थी कि भाभी के हाथ का स्वाद भी बिल्कुल माँ जैसा है आज उनके खाने के स्वाद में माँ के हाथों सा जायका था।"तुम्हारी सब्जी तो बिल्कुल माँ के हाथ सी बनी है।इससे पहले कभी ध्यान ही नहीं दिया।"


"हांँ दी,सब कहते हैं। माँ से ही सीखी थी लेकिन उन्हें हर बार स्वाद में कमी लगती तो मैं आपके आने पर बनाती ही नहीं थी।वैसे उनके जैसे काम का सलीका मुझे नहीं।उन्हें हर चीज परफेक्ट चाहिए थी।"


"सही कह रही हो, पापा के जाने के बाद माँ पर हमारी जिम्मेदारी आ गई इतना निर्भर रहने के बाद भी एक मजबूत किरदार निभा उन्होंने अपनी जिम्मेदारी निभाई।"


"दी शायद जीजाजी का फ़ोन आया है...।"


"क्या बात है सलिला, मायके पहुँच भूल गई हमें!वापिस कब आ रही हो?"


"आती हूँ जी ए- दो दिन में..।"


भाई वहीं खड़ा था,"क्यों अच्छा नहीं लग रहा यहाँ? हमने अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है कि तुझे माँ की कमी महसूस न हो। माँ बिन भी मायका होता है,भाई-भाभी के साथ।क्या अपनत्व में कोई कमी..…!"


"कैसी बातें कर रहा है।एक बात कहूँ,ये चिंता-फिक्र काश तूने माँ के सामने की होती तो उनकी उम्र के दो-तीन साल और बढ़ जाते।आज उनके जाने के बाद वही सब करना जो वो जीते जी चाहती थीं सब कुछ होते हुए भी .......।"


"दी निश्फिक्र था।हम जब मौजूदा हालात जी रहे होते है तो कभी अपने अधिकार के लिए ,कभी विचार न मिल पाने के कारण और कभी माँ-बाप की बातों को टोक समझ, उस परिस्थिति के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाते।लगता था जब मैं काम खुद कर रहा हूँ तो माँ बार-बार बोलकर क्यों टोक रही हैं।आज समझ आता है वो उसकी चिंता थी और चिंता में छुपा प्यार ।हम बड़े हो गए थे पर शायद उसके लिए तो बच्चे ही थे।ये सब उसके जाने के बाद समझ आया।लेकिन तू है ना बिल्कुल माँ जैसी...।"सलिला को अजय की बातों में सच का आईना दिख रहा था।पूरे दिन मन भारी था।देखते ही देखते पंद्रह-दिन बीत गए।मायके की हर चीज में माँ की मौजूदगी आज भी थी।कल रवानगी थी शायद इसलिए मन बुझा-बुझा सा था।सब देर रात तक बातचीत करते रहे। अचानक भाभी को याद आया,"अरे दी, माँ के कमरे में उनका एक बक्सा रखा है वो शायद उनका सबसे अज़ीज़ बक्सा था। ये उसकी चाबी है मैं चाहती हूँ आप उसे खोलें।"


"ऐसा क्यों? माँ की हर चीज पर तुम्हारा अधिकार है।जब हमने किसी चीज के लिए कभी कुछ नहीं कहा तो आज ये... संदूक और उसकी चाबी!"


दी माँ हमेशा कहती थी," इसमे पूंँजी है मेरे बाद एक सलिला ही है जो इसकी कीमत समझ सकती है।बुरा मत मानिएगा।अच्छा हो इसे आप ही खोलें।"

कांँपते हाथों से सलिला ने बक्सा खोला।दुनिया भर की कतरनों से भरा बक्सा,ऊपर से सब हटाती चली गई।पापा का कुर्ता-पजामा रखा था "खादी का कुर्ता"।


"देख ले आया इस बार खादी का कुर्ता, सम्भाल कर रख,अजय के जन्मदिन में पहनुँगा।"


"दुनिया आगे बढ़ रही है ।लोग कोट पहनते है और आप...हद करते हो जी ।पूजा-पाठ थोड़ी है।"

लेकिन अजय के जन्मदिन का अरमान मन में दबाए पापा एक दुर्घटना का शिकार हो सब कुछ यहीं छोड़ कर चले गए।शायद माँ के लिए पापा की पसंद का कुर्ता उस दिन से बेहद अज़ीज हो गया था।

नीचे देखा तो भाई के मुंडन जे कपड़े,अन्नप्राशन के कपड़े रखे थे।हरएक चीज माँ की ममता से ओत-प्रोत थी।अचानक हाथ में वो गुड़िया आ गई जो सलिला कभी जिद्द करके लाई थी,"सलिला अब जिद्द की तो चांटा लगने वाला है।""माँ दिला दो ना वो गुड़िया।"


"दिमाग खराब है तेरा।इतनी मंँहगी गुड़िया कुछ और ले- ले बेटा।थोड़े फिन बाद तू इसकी तरफ झाँकेगी भी नहीं।"

लेकिन सलिला पर तो निप्पल वाली, बड़ी सी गुड़िया का भूत सवार था।लाकर थोड़े दिन खेल उसे पटक दिया।पर माँ ने उसे हमेशा ये कह संभाला की तेरी बेटी को दूँगी।कितनी ऐसी यादें उस संदूक में कैद थी जो शायद एक माँ के लिए बहुत खास थीं।


"भाभी क्या ये संदूक मैं...।"


"हांँ- हांँ दी इसकी कीमत आपसे ज्यादा कोई नहीं समझ सकता।"देर रात तक बात कर सब सो गए।सलिला मद्धम रोशनी में दीवार पर लगी मांँ की तस्वीर को देखती रही,"कहाँ चली गई माँ।सब कुछ होते हुए भी तुम्हारी कमी कोई पूरी नहीं कर सकता।"पलक झपकते ही माँ साथ थी।


"सलिला,सारा समान रख लिया ना।ये देख ,ये साड़ी तेरे लिए रखी थी, रख ले इसे।"


"माँ ये तो तुम्हें मामा ने दी थी तुम पहनना ।"

"नही मैं पहनूँ या तू एक ही बात है।मैं ये रंग कहाँ पहनती हूँ ।उसी दिन तेरे लिए रख दी थी।ये ले ये आचार की शीशी भी रख।"


"माँ... भाभी क्या कहेगी!"


"कोई कुछ नहीं कहेगा। ये मैंने चुप-चाप तेरे पसंद की डालकर रख दी थी, रख ले बैग में।"

सुबह विदाई दी,चुपके से पर्स निकाल एक रुमाल में लगी गांँठ खोलने लगी और कुछ पैसे निकाल बिटिया के हाथ में रख दिए।

"ये क्यों माँ! इतना कुछ तो दे दिया।"

."मेरा आशीर्वाद है बेटा ।अभी पापा होते तो बिना कहे कितना कुछ करते।चल जल्दी कर कुछ खाए बिना घर से नहीं निकलने दूँगी।ससुराल में ऊँच-नीच हो तो बात वहीं दबा देना ।खुश रहना।"और इतना कह मांँ ने प्यार भरी झप्पी दे दी ।"सलिला-सलिला सोती रहेगी ट्रेन का टाइम हो गया है।"


"हांँ माँ "कह जैसे ही आंँख खोली, भाभी सामने खड़ी थी।

मन में आया कह दे क्यों उठाया भाभी,माँ के सानिध्य में थी ।

फटाफट उठ तैयार हुई भाभी ने नाश्ता करवा विदा किया।भाई भी पीछे खड़ा था,"दी आती रहना ।जल्दी-जल्दी आना।"

सीने से लग दोनों के आँसू छलक पड़े," कभी पराया मत समझना ।तेरे मायके में तेरा सम्मान हमेशा इसी तरह होगा, ये एक भाई का वादा है।"

मुस्कुरा माँ की फ़ोटो को प्रणाम कर जाने लगी,"जा रही हूँ माँ ,आज तेरे बगैर मायका क्या होता है ये जान लिया।तुम सिर्फ आंँखों से दूर हुई हो तुम्हारी मौजूदगी तो मायका शब्द में है।"


घर पहुँच गुमसुम बैठी थी।


"क्या मैडम, तुम तो दो-चार दिन में आने वाली थीं।भाई के मोह में बंँधकर रह गई।खूब आवभगत कर दी भाई ने।सारे गिले-शिकवे लगता है दूर हो गए हैं।तुम तो जाने से पहले घबरा रही थीं कैसा लगा माँ बिन मायका।"


आंँखों में आँसू लिए, भरे गले से बोली,"माँ बिन मायका नहीं होता।उसकी मनुहार ,डांट, प्यार सब अपने आप में अनूठा होता है।उसका गले लगना, उसकी बातों में अपना बचपन जी लेना।अपने बच्चे की पसंद-नापसंद सब मायके में माँ पूरा करती है।बेशक अजय ने पूरी कोशिश की उनकी कमी न खले लेकिन वही बातेँ ये एहसास करा गईं की कल तक कुछ भी बोल देने वाला लड़-झगड़ अपना प्यार जताने वाला भाई आज जिम्मेदारियों में बंध मुझसे कितना दूर हो गया है।जिन बातों के लिए माँ ताने देती थी फिर भी वो उन्हें पूरा नहीं करता था आज उन्हीं सब बातों का खयाल रख जानती हूँ वो अपनी जिम्मेदारी निभा रहा था।माँ के जाने से मेरा भाई दूर हो गया उसकी जगह एक जिम्मेदार पति,पिता और रिश्ता निभाने वाला भाई खड़ा था।आँसूं पौछ बोली,"माँ बिन मायका कैसा जी?माँ बिन मायके की कल्पना करने से भी रूह काँपती है।आते-आते कह रहा रहा था जल्दी आना।यहीं तो मायके की दूरी का आभास हुआ ।पहले मन में जाने की एक उत्सुकता थी।माँ हर घड़ी कहती लाडो कब आ रही है?सच है विवेक मायके में चाहे कितना ही आपका इंतजार हो पर माँ बिन मायका ,मायका नहीं होता।"भारी मन से उठ चली गई,अपनी लाडो को मायके का सुख देने।


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