वे पल हमें याद आएंगे सदा

वे पल हमें याद आएंगे सदा

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आठवी कक्षा में पढ़ते समय मधुरिमा ने शहर के नए स्कूल में दाखिला लिया था। इतनी कम उम्र में ही वह पढ़ाई के साथ-साथ शास्त्रीय नृत्य में विशेष रूप से पारंगत हो चुकी थी। उसने जिला और राज्य दोनों ही स्तरों पर कई प्रतियोगिताएँ जीतकर पदक प्राप्त किए थे। उसकी बड़ी-बड़ी भावयुक्त और कजरारी आंखों को देखकर सब यही कहा करते थे कि नृत्य कला में चार चांद लगाने हेतु ही वे नयन इतने बारीकी से तराशे गए हैं।


खैर, नए स्कूल में प्रवेश लेने के कुछ दिनों के बाद मधु को पता चला कि उनका विद्यालय एक इंटर- स्कूल नृत्य प्रतियोगिता में भाग लेनेवाला है। यह प्रतियोगिता बहुत ही प्रसिद्ध थी और जीतनेवाले को आयोजक समिति की ओर से शील्ड प्रदान किया जाना था। हर वर्ष इस प्रतियोगिता का आयोजन हुआ करता था और दूरस्थ सभी विद्यालयों के बीच इस शील्ड को पाने हेतु कठिन प्रतियोगिताएँ हुआ करती थी। मधुरिमा का विद्यालय भी कई वर्षो से उस शील्ड के लिए कड़ी मेहनत कर रहा था। इस बार की कोशिश कुछ ज्यादा ही जोर शोर से हो रही थी।


शहर की एक जानी मानी नृत्यांगना को प्रशिक्षक के रूप में बुलवाया गया था। रवीन्द्रनाथ टैगोर की नृत्यनाटिका चित्रांगदा को मंचस्थ करना था। प्रधान भूमिकाओं में कुरूपा हेतु मधुरीमा का चयन हुआ था और सुरूपा के लिए जुनियर कक्षा में से राजश्री चयनित हुई थी। अर्जुन हेतु मधुरीमा का ही सहपाठी दीपक चयनित हुआ था। दीपक बहुत लंबा और हैंडसम नौजवान था। करीने से काटे गए उसके घने किंचित घुंघरालु लटों के रंग उसकी आंखों की पुतलियो के रंग से मेल खाता था। उसके अधरों के ऊपर उभरते हुए मूछों का हल्का -सा आभास था। और नियमित योगाभ्यास से सधे हुए उसका सुगठित देह किसी योद्धा की देह से कम न दिखता था। अर्जुन की भूमिका के लिए वह सर्वापयुक्त था। परंतु एक कमीं उसमें थी कि नृत्य के विषय में वह बिलकुल कोरा था। इस मामले में उसकी जानकारी उतनी ही थी जितनी कि एक हिन्दी शिक्षक की सामान्यतया आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स के बारे में हुआ करती है!


खैर, जो भी हो, स्कूल के बाद हर रोज़ प्रतिभागियों को एक घंटे तक नृत्य का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। प्रतियोगिता कोई दो महीने बाद होने वाली थी। इतना समय प्रतिभागियों के लिए काफी समझा गया था। लड़कियाँ तो नृत्य कला में निपुण थी लेकिन दीपक को डांस के स्टेप्स समझ में नहीं आ रहे थे। हालांकि अर्जुन का रोल बहुत लंबा नहीं था। फिर भी इस नृत्य-नाट्य के नायक होने के कारण उसकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी।


शिक्षिका ने एकदिन दीपक को उसकी गलतियों के लिए बुरी तरह डाँट दिया था। जिससे नाराज़ होकर वह रिहर्सल छोड़कर चला गया था। फिर बहुत समझा बुझाने से और जुनियर लड़कियों ने जब जाकर भैया से मिन्नत की तब जाकर वह वापस अर्जुन बनने को तैयार हुआ था।


अब मधु पर दीपक को नृत्य सीखाने की जिम्मेदारी डाली गई।कुछ ही दिनों में सबने आश्चर्य से यह देखा कि मधु के सिखाने के तरीकों से दीपक के नृत्य में काफी सुधार आने लगा था! दीपक अब डांस के स्टेप्स पहले से बेहतर समझने लगा और वह नृत्य कला में भी उत्साह लेने लगा था! उन दोनों को अब जब भी फ्री पिरियड मिलता वे उसमें डाॅन्स की प्रैक्टिस करते! इस तरह दोनों की दोस्ती भी बढ़ने लगी और दोनों एक- दूसरे को करीब से जानने भी लगे थे। इसका असर उनके नृत्य पर भी पड़ने लगा था। दोनों की कैमैस्ट्री कमाल की थी। हाव और भाव- भंगिमाओं में उन दोनों ने एक अलग मुकाम हासिल कर ली थी, जो बहुत काबिलेतारीफ थी।


दो महीने बाद


अगस्त का महीना था। प्रतियोगिता की तारीख निकल चुकी थी। नजदीकी एक शहर में प्रतियोगिता का स्थान निर्धारित किया गया था। वहाँ पर सारे प्रतिभागियों को एक रिसाॅर्ट में ठहराने का इंतज़ाम भी किया गया। नियत समय पर मधुरिमा के विद्यालय से भी दोनों चित्रांगदाएं, अर्जुन , सखियाॅ, ग्रामवासी आदि बने सभी सहयोगी कलाकारों और दो शिक्षिकाओं के साथ सत्रह जन की वह टोली चल पड़ी। 


स्कूल की ओर से एक बस पहले ही किराए पर ले लिया गया था। सभी बच्चे बहुत खुश थे। ऐसा लग रहा था मानों वे किसी पिकनिक पर जा रहे हो। उनदिनों, स्कूल में पढ़ाई केवल चाहरदीवारी के अंदर रहकर हुआ करती थी। बच्चों को बाहर जाने के अवसर बहुत कम मिलते थे। अतः वे पूरे रास्ते शोर करते, धमाल चौकड़ी मचाते, कभी गाते और कभी एक- दूसरे की टांग खींचने लगे। आज शिक्षिकाएँ भी दोनों दया की मूरत बनी हुई थीं। वे सबकुछ देखते सुनते हुए भी आज बच्चों की शैतानियाँ नजर अंदाज कर जाती थीं। और बच्चों के साथ कभी उनकी खिलखिलाहट भी गूंज उठा करती थी। रोज़मर्रे की जिन्दगी से थोड़ी -सी आजादी पाने का उनके लिए भी यह पहला ही मौका था।


मधु इस विद्यालय में नई थी। अभी ठीक से सबके साथ उसका परिचय न हो पाया था। ऊपर से वह शांत और अंतर्मुखी स्वभाव की थी। सिर्फ दीपक से ही वह थोड़ा बहुत बोल लेती थी। इस समय भी दीपक की बगल वाली सीट पर वह बैठी थी। एक कोने में बैठी सबकी करतूत देखकर मंद -मंद मुस्करा रही थी।


दीपक का मन इस समय जाने कैसा हो रहा था। वह सबके साथ होकर भी जाने कहाँ अपनी भावनाओं में गुम था। मधुरीमा जब उसके पास आकर बैठ गई तो उसे बहुत अच्छा लगा। उसकी सान्निध्य की भीनी- भीनी खुशबू से उसके जवाँ दिल में कुछ हलचल सी उठने लगी थी। कुछ अनजानी खुशियाँ से उसका रोम-रोम मानों महकने लगा था। वह अपनी इन भावों से बिलकुल अनभिज्ञ था। ऐसा क्यों हो रहा था उसे समझ में ही नहीं आ रहा था। लेकिन फिर भी उसे लग रहा था कि यह समयावधि कभी समाप्त न हो। और यह सफर अनंत काल तक चलता रहे!


नृत्य का कार्यकर्म बहुत सफल रहा। सभी प्रतिभागियों ने जो दो महीनों के जी तोड़ मेहनत की थी , उनकी वह मेहनत इस समय रंग लायी थी। विशेष उल्लेखनीय था दीपक का परफारर्मेंस । उसने तो मानों कोई कसर ही न छोड़ी थी। अपनी जान की बाजी लगाकर वह स्टेज पर उतरा था। मधु भी चित्रांगदा के वेश में कमाल लग रही थी! कमाल की डांसर तो वह थी ही मगर आखिरी सीन में जब--" मैं हूँ चित्रांगदा, मैं राज दुलारी" के गीत को नृत्य में माध्यम से उसने नारी को इतनी सुंदर तरीके से परिभाषित किया कि उसे देखकर दर्शक अपने स्थान पर खड़े हो गए !! तालियों की गड़गड़ाहट की ध्वनि देर तक चलती रही!!


पटाक्षेप के बाद, जब अर्जुन और चित्रांगदा अकेले रह गए थे, न जाने अर्जुन को क्या सूझा कि उसने अपने गले से फूलों का हार झट से उतार चित्रांगदा के गले में डाल दिया।


यह इतना जल्दी हुआ कि चित्रांगदा कुछ देर के लिए चित्रलिखित सी वहीं खड़ी रह गई! फिर अस्फुट स्वर में बोली--

" यह क्या किया?!!!"


और फिर वहाँ से त्वरित गति से चलती बनी। और इधर दीपक वहीं मंच पर खड़ा देर तक उसे जाते हुए देखता रह गया!


एवार्डों की जब घोषणा हुई तो परिणाम की ऐसी आशा किसी को न थी। सारे पुरस्कार इसी विद्यालय को प्राप्त हुए थे। श्रेष्ठ परफॉरर्मेस ( मेल और फीमेल दोनों ही श्रेणियों में) और श्रेष्ठ विद्यालय के पारफार्मेंस की ट्राफियाॅ और शील्ड भी उन्हें ही मिला। पुरस्कार लेते हुए प्रतिभागी स्टेज से उतर ही न पाते थे कि दुबारा उनके नाम की घोषणा कर दी जाती थी !


पुरस्कार पाकर सभी खुश थे। सबसे अधिक खुश था दीपक! उस जैसे नाॅन-डांसर को मधुरिमा ने रातोंरात प्रसिद्ध कर दिया था। लोग उससे दस्तखत लेने के लिए कतारों में उपस्थित होने लगे! कृतज्ञता और प्रेम से भरी उसकी नज़रें केवल मधु को ढूंढ रही थी। परंतु वह कहीं गायब थी। वह जो पाॅरर्फार्मेंस के बाद स्टेज से उतर कर गई थी, दुबारा उसे किसी ने न देखा था। उसका एवार्ड भी दीपक को लेना पड़ा।


पुरस्कार- समारोह समाप्त हुआ तो दीपक पागलों की भाॅति मधुरिमा को ढूंढने लगा। पर वह कहीं भी नहीं थी। दीपक थक हारकर अपने कमरे में लौट आया। कपड़े बदलने के बाद वह कुर्ता पायजामा पहनकर बाॅलकनी में आया। वहाँ किसी सुंदर स्त्री को कोने में बैठा हुआ पाया। पास जाकर देखा तो वह मधु थी!! उसे मालूम न था कि मधु उसके बगल वाले कमरे में ठहरी थी और दोनों कमरे के बीच बाॅलकनी की साझेदारी थी।


मधु इस समय उदास सी दिख रही थी। शायद वह थोड़ी देर पहले रो भी रही थी। उसने अभी तक अपने पोषाक भी न बदले थे। दीपक ने पास जाकर धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा तो वह एकाएक चौंक पड़ी। दीपक को सामने देखकर वह फिर शर्म से गुलाबी पड़ गई!


" अरे तुम यहाँ हो? मैं कब से तुम्हें खोज रहा हूँ!"


" क्यों खोज रहे थे?" हौले से उसने पूछा।


"पता है तुम्हें और मुझे श्रेष्ठ नृत्य प्रदर्शन हेतु पुरष्कार मिला है। और हमारे विद्यालय को भी "बेस्ट स्कूल" का एवार्ड मिला है।

दीपक ने चहकती हुई आवाज़ में कहा।


" तुम्हें तो मिलना ही था, लेकिन सभी आश्चर्य हो रहे हैं कि मुझे भी कैसे यह एवार्ड मिल गया!" दीपक के स्वर से खुशकियाँ छलककर गिरने को तैयार थी।


" सबकुछ तुम्हारे दिए हुए ट्रेनिंग का कमाल है, रीमा ( वह उसे इसी नाम से पुकारता था।),


तुम्हीं मेरी गुरु हो।" वह विगलित होकर बोला।

" गुरु मानते हो तो फिर गुरुदक्षिणा भी दो!" स्मित मुस्कान के साथ मधु ने कहा।


" बोलो, क्या चाहिए? "काँपते हुए स्वर से दीपक पूछा।


" तो फिर झुक जाओ!"


" क्या ?"

" सवाल मत करो। गुरुदक्षिणा दो--"


वह बेचारा क्या करता? झुककर नतमस्तक होकर उसके समक्ष बैठ गया!अचानक उसके गले में वही फूलों की माला उसी तरीके से वापस आ गई थी! दीपक ने आंखे उठाकर अपनी रीमा को देखा। फिर उसने खड़े होकर अपनी दोनों बाहें उसके लिए फैला दी! रीमा की छोटी सी काया धीरे-धीरे उसके वक्ष से आकर टकरा गई। दोनों का अस्तित्व इसके बाद एक दूसरे में घुल-मिलकर एक हो गया था!

उसी समय दूर कहीं से एक गाने के बोल सुनाई पड़ रहे थे-----" पत्तों का है जिस्म जानम भीग जाने दो--!" वे दोनों भी प्रेम की रिम- झिम फुहारों में भीग रहे थे।खेद है, आगे चलकर मधुरिमा और दीपक के लड़कपन के इस प्रेम कहानी को अंजाम न मिल पाया था। लेकिन उस दिन के वे चंद खुशियों के पल उनके जेहन में आजीवन अंकित रहे!!



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