वड़वानल - 7

वड़वानल - 7

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निवेदक कह रहा था, ‘‘कल प्रेस कॉन्फ्रेन्स में नेताजी ने घोषणा की कि ब्रिटिश साम्राज्य  के जुए से आजाद हुआ पहला हिन्दुस्तानी भू–भाग है शहीद द्वीप–अण्डमान, इम्फाल पर किये जा रहे हमलों में आज़ाद हिन्द सेना की गाँधी ब्रिगेड सम्मिलित हुई  है।’’

नेताजी के मतानुसार हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए आवश्यक परिस्थिति का    निर्माण    अब    हो    गया    है।महत्त्वपूर्ण बात  यह है कि हिन्दुस्तान  में जारी स्वतन्त्रता संग्राम  और  उनके  द्वारा  बाहर  से  लड़ा  जा  रहा  संग्राम - इन  दोनों  को  एकत्रित होना   होगा।

खबरें   सुनकर   गुरु   ने   सोचा   कि   उन्हें   भी   कुछ   करना   चाहिए।   बर्मा   पर   अपना पलड़ा भारी करने के उद्देश्य से ब्रिटिशों ने दिसम्बर में ही सेना की दो डिवीजन वहाँ भेज दी थी, जापानी सेना की आठ डिवीजन बर्मा में पहले ही मौजूद थी।

इंग्लैंड  के  मुख्यमन्त्री  विन्स्टन  चर्चिल  को  इस  बात  का  पूरा  एहसास  था कि  इस  महायुद्ध  के  हिन्दुस्तान  पहुँचने  पर  हिन्दुस्तानी  नागरिक  आज़ाद  हिन्द  सेना का सिर्फ स्वागत ही नहीं करेंगे, बल्कि उसमें शामिल भी हो जाएँगे, और ब्रिटिशों को अपना उपनिवेश खोना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने इस मोर्चे के सारे सूत्र लॉर्ड माउंटबेटन   के   हाथों   सौंपकर   उन्हें   इस   बारे   में   सूचित   कर   दिया   था।

‘‘विजयप्राप्ति के लिए आवश्यक किसी भी मार्ग का अवलम्बन करें, चाहे जो   साधन   प्राप्त   करें।   मेरा   पूरा   समर्थन   आपके   साथ   है।’’

मित्र  राष्ट्रों  की  सेनाएँ  जापानी  सेना  को  पीछे  खदेड़  रही  थीं।  मित्र  राष्ट्र अपनी   ताकत   बढ़ा   रहे   थे।  जापानी   सेना   के   जनरल   कोवाबा   को   कोहिमा   से   इम्फाल तक पीछे हटना पड़ा और आजाद हिन्द सेना को भी इम्फाल से चिंदविन नदी के   पश्चिमी   किनारे   पर   वापस   लौटना   पड़ा।

अंग्रेज़ बर्मा में सेना और युद्ध सामग्री झोंक रहे थे। हिन्दुस्तानी नौसैनिकों को बर्मा लाया गया था। निर्धारित भाग की उन्हें आँखों में तेल डालकर निगरानी करनी  थी।  गुटों–गुटों  में  पहाड़ी  पर  से  निगरानी  करनी  थी।  संदेहास्पद  बात  दिखते ही  हेडक्वार्टर  को  वायरलेस  द्वारा  सूचना  देनी  होती  थी।  हर  गुट  में  दो  टेलिग्राफिस्ट और  अन्य  आठ  सैनिक  होते  थे।  ड्यूटी  तो  एक  दिन  की  होती  थी,  मगर  यदि सैनिक कहीं और व्यस्त हों तो दो–दो दिन भी करनी पड़ती। खाना और पानी साथ ले जाना पड़ता। बदली सैनिक के आए बिना ड्यूटी छोड़ना मना था। साथ लिया भोजन और पानी यदि समाप्त हो जाए तो परिस्थिति बुरी हो जाती थी।

बर्मा  पहुँचने  के  बाद  से  आजाद  हिन्द  सेना  के  पीछे  ही  हटने  की  खबर मिल रही थीं। अंग्रेजों की विजय की खबर से सैनिक नाचने लगते। गुरु और दत्त   किसी   भी   तरह   की   प्रतिक्रिया   न   दिखाते।

उस दिन जापान के हाथों से इम्फाल पर अंग्रेज़ों के कब्ज़ा करने की खबर पाकर रामलाल खुशी से तालियाँ बजाते हुए नाचने लगा। गुरु को रामलाल पर गुस्सा आ गया।

‘‘इतना क्यों नाच रहे हो ?’’

‘‘अरे, गोरे फिर से जीत गए, जापानी भाग गए।’’

‘‘ठीक है, मगर तू क्यों नाच रहा है ?’’

गुरु की बुद्धि पर तरस खाते हुए रामलाल बोला, ‘‘अरे, मेरा क्या है इसमें ?

बर्मा अंग्रेज़ों के कब्जे में आ गया कि हम लोग हिन्दुस्तान वापस जाएँगे।’’ पल भर रुककर उसने गुरु से पूछा, ‘‘क्या तेरा दिल नहीं चाहता वापस हिन्दुस्तान लौटने को ?’’

‘‘मेरा भी दिल चाहता है। मगर हिन्दुस्तान आज़ाद होना चाहिए।।।” वह अपने आप से पुटपुटाया। उसे अपने गाँव के क्रान्तिकारी प्रसाद की याद आई। बम्बई में जब वह मिला था तो कह रहा था, ‘‘इस युद्ध में यदि इंग्लैंड हार जाता है तो हिन्दुस्तान आज़ाद करने का एक अच्छा अवसर प्राप्त होगा।’’

गुरु की इच्छा थी कि इस लड़ाई में इंग्लैंड की पराजय हो जाए। बर्मा जापानियों के ही पास रहे और आज़ाद हिन्द सेना हिन्दुस्तान में घुस जाए।

मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ आगे बढ़ रही थीं। इंग्लैंड को अपनी अन्तिम विजय में विश्वास नहीं था। जहाँ से सम्भव था वहाँ से इंग्लैंड सैनिकों तथा युद्ध सामग्री को बर्मा भेज रहा था। पुरानी टुकड़ियों के स्थान पर नयी टुकड़ियाँ आईं और पुरानी टुकड़ियों को इम्फाल भेजा गया।

इम्फाल में सैनिकों को बैरेक्स में रखा गया जहाँ काफी जगह थी, खाना समय पर दिया जाता था। सप्ताह में एक दिन शहर में जाने की इजाजत मिलती थी।

अंग्रेज़ों का गुप्तचर विभाग इम्फाल के स्वतन्त्रता प्रेमी हिन्दुस्तानी व्यापारियों और हिन्दुस्तान की आजादी के लिए स्थापित किए गए संगठनों के कार्यकर्ताओं को ढूँढने का काम कर रहा था, मगर ये व्यापारी और संगठन परवाह किए बिना आज़ाद हिन्द फौज के लिए धन जुटा रहे थे, आह्वान कर रहे थे। उस दिन गुरु की ड्यूटी रात को आठ बजे से बारह बजे की थी। पिछले पन्द्रह दिनों में वह बाहर निकला ही नहीं था। आसपास की पहाड़ियों पर लुकआउट के लिए लगातार आठ दिनों तक जाना पड़ा था। बाजार में कुछ छोटा–मोटा सामान खरीदना था इसलिए वह रामलाल और नेगी के साथ शहर में गया। ज़रूरत का सामान खरीदते–खरीदते सात बज गए। रामलाल और नेगी और अधिक अँधेरा होने तक घूमना चाहते थे। उन्हें एकाध पैग पीना था, सम्भव हुआ तो किसी हट्टी–कट्टी लड़की के साथ घण्टा–दो घण्टा मौज–मस्ती करनी थी। गुरु को पौने आठ से पहले

बैरेक पहुँचना जरूरी था। गुरु ख़यालों में डूबा हुआ था। बर्मा के लोग सोचते थे कि हमें और हमारे देश को जबरन ही इस युद्ध में घसीटा गया है। आज़ाद हिन्द सेना और नेताजी के कारण बर्मा के लोगों को हिन्दुस्तानी ‘अपने’ लगते थे।

‘‘अगर नेताजी को पर्याप्त सैनिक सहायता मिलती तो आज़ाद हिन्द सेना की हर पराजय के साथ हिन्दुस्तान की आज़ादी भी एक–एक कदम पीछे हट रही है। गुरु का विचार–चक्र घूम रहा था।’’

गुरु एक छोटी–सी गली में मुड़ा वहाँ लोगों का आना–जाना बिलकुल ही नहीं था। रास्ते पर वह अकेला ही था। अचानक एक अजनबी आकर उसके सामने खड़ा हो गया।

''Are you Indian?''

''Yeah, I am.''

उस अजनबी ने दो–चार काग़ज गुरु के हाथ में ठूँस दिये। ‘‘फेंकना मत, सारे पढ़ना, मैं भी हिन्दुस्तानी हूँ। इसमें हमारे फायदे की बात ही लिखी है।’’

और वह व्यक्ति गली में गायब हो गया। यह सब इतना अकस्मात् हुआ कि अगर कोई देख भी रहा होता तो समझ नहीं पाता कि असल में हुआ क्या है। गुरु ने वे कागज जेब में ठूँस दिये। और मानो कुछ हुआ ही नहीं इस ठाठ से वह चल पड़ा।

‘‘कैसे काग़ज होंगे ? कम्युनिस्टों के।।।हिन्दुस्तान के किसी क्रांतिकारी गुट के या नेताजी के ही–––’’

बैरेक में पहुँचते ही वह बैटरी लेकर सीधे शौचालय गया। वही एक ऐसी जगह थी जहाँ एकान्त मिल सकता था। कोई उसकी ओर ध्यान भी नहीं दे सकता था। उसने जेब से कागज निकाले। वे आज़ाद हिन्द सेना के पत्रक थे। नीचे नेताजी के हस्ताक्षर थे। उन हस्ताक्षरों को देखकर उसका रोम–रोम पुलकित हो उठा। पलभर को उसे लगा जैसे वह नेताजी का विश्वासपात्र दूत है। पत्रक में नागरिकों का आह्वान किया गया था, प्रत्येक वाक्य हृदयस्पर्शी था। हर वाक्य में सुभाष बाबू की मनोदशा का दर्शन हो रहा था।

‘‘यदि हमें आजादी प्राप्त करनी है तो हिन्दुस्तानी सेना का निर्माण करना ही होगा। स्वतन्त्रता के लिए कुर्बानी देने को तैयार सेना मुझे चाहिए। जॉर्ज वाशिंगटन के पास अमेरिका में ऐसी सेना थी इसीलिए अमेरिका आज़ादी हासिल कर सका। गॅरिबाल्डी के पास सशस्त्र स्वयंसेवकों का ऐसा दल था, इसीलिए वह इटली को मुक्त करवा सका। हिन्दुस्तानी नौजवानो! उठो। अपनी प्रिय मातृभूमि को स्वतन्त्र करवाने के लिए हाथों में शस्त्र उठाओ।

‘‘ईश्वर का स्मरण करके हम ऐसी पवित्र शपथ लें कि भारतभूमि को और तीस करोड़ बन्धु–बान्धवों को गुलामी से मुक्ति दिलाएँगे। स्वतन्त्रता के लिए आरम्भ किया गया यह युद्ध आखिरी साँस तक अथक निष्ठा से जारी रखेंगे।

‘‘आज तक तुम औरों के लिए लड़े। अब अपनी भारत माँ के लिए लड़ो। यदि केवल जापानियों के त्याग के फलस्वरूप हिन्दुस्तान को आजादी मिलती है तो वह गुलामी से भी अधिक शर्मनाक होगी। हमें जो आजादी चाहिए, वह हिन्दुस्तानियों के त्याग के फलस्वरूप ही मिलनी चाहिए।

‘‘दोस्तो, ‘चलो दिल्ली’ की गगनभेदी गर्जना करते हुए तुम लड़ो। मैं तुम्हारे साथ प्रकाश में भी हूँ और अँधेरे में भी। मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं छोडूँगा। तुम्हारे और मेरे सुख–दुख एक हैं और हमेशा एक ही रहेंगे। दुख के क्षण में, सुख के क्षण में और दिव्य विजय के उस क्षण में हम सब एक ही रहेंगे। फ़िलहाल तो हमारे हिस्से में है भूख, प्यास, खतरनाक मार्ग और मृत्यु। इसके अलावा तो आज तुम्हें देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं। यदि तुम जीवन में, और मृत्यु के क्षण में भी मेरे पीछे आओगे, तो मैं तुम्हें अथक परिश्रम से विजय के और

स्वतन्त्रता के दिव्य मार्ग पर ले जाऊँगा। स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए हम सबको अपना सर्वस्व न्यौछावर करना होगा। जय हिन्द!’’

गुरु ने उन काग़ज़ों को ऐसे सँभालकर अपनी अलमारी में रखा जैसे परम्परा से प्राप्त तीर और कलम पूजा घर में भक्तिभाव से रखे जाते हैं। 

इम्फाल के उस बैक–स्टेशन (Rear Base - पिछले भाग) पर हिन्दुस्तानी सैनिकों के साथ अमेरिकन, ब्रिटिश, चीनी और ऑस्ट्रेलियाई सैनिक थे। उनकी बैरेक्स अलग–अलग थीं, मेस भी अलग थीं। विभिन्न देशों के सैनिक एक–दूसरे से मिलते, परिचय होने पर एक–दूसरे की बैरेक में गप्पें मारने जाते। उनके स्वभाव भिन्न थे। अफ्रीकी सैनिक गुस्सैल और चिड़चिड़े प्रतीत होते, अमेरिकन खुले दिल वाले, स्वच्छन्द,   उनके   चेहरों   पर   युद्ध   का   तनाव   नहीं   झलकता   था

 हमेशा   हँसमुख   रहते। ब्रिटिश सैनिक ऐसी गुर्मी से बर्ताव करते, जैसे ‘सारी दुनिया मेरे पैरों तले है।’ और हिन्दुस्तानी सैनिकों के साथ बातें करते हुए तो इस बात का अनुभव बड़ी तीव्रता   से   होता।सम्पर्क   भाषा   अंग्रेजी   होने   पर   भी   हरेक   का   उच्चारण   अलग–अलग होता था। ब्रिटिश सैनिक मुँह ही मुँह में बोलते, अमेरिकन सैनिकों के उच्चारण स्पष्ट  होते,  मोटे–मोटे  होंठों  वाले  अफ्रीकी  सैनिकों  के  उच्चारण  और  भी  अलग होते।  इन  सबके  मन  में  हिन्दुस्तान,  वहाँ  के  लोग,  उनके  रीति–रिवाज  आदि के बारे में कुतूहल होता   था।

''You Know Kotnis? He was a great man.'' चीनी सैनिक कहता।

‘‘तुम  महात्मा  गाँधी  को  जानते  हो ?  कैसे  रहते  हैं  वे ?  क्या  खाते  हैं ?’’  नीग्रो का  उत्सुक  प्रश्न।

इन सभी की युद्ध की समाप्ति के पश्चात् हिन्दुस्तान आने की इच्छा थी, यहाँ   के   लोगों को   देखना था। जंगलों   में   घूमना   था।

‘‘क्या  रे,’’  एक  अमेरिकन  सैनिक  दत्त  से  पूछ  रहा  था,  ‘‘हम  तो  अपनी मातृभूमि के लिए लड़ रहे हैं, तुम किसलिए लड़ रहे हो ?’’ 

यही सवाल तो उसके मन में बार–बार उठता था, ‘‘जवाब क्या है ?’’ उसे याद आया, उसने कहीं पढ़ा था,  ‘‘हम  फासिज्म  के  खिलाफ  लड़  रहे  हैं।’’

‘‘और  उपनिवेशवाद  के  विरुद्ध, 942  के  बाद  क्या  किया ?’’  दत्त  के  पास जवाब   नहीं   था।

‘‘मेरा   देश   भी   उनके   अधीन   था।   हमने   सेना   बनाई,   युद्ध   किया   और   गुलामी का जुआ उखाड़ फेंका। तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिए नरभक्षक शेर को गोली ही मारनी चाहिए। तुम लोग फासिज्म नष्ट करने के स्थान पर उपनिवेशवाद को मजबूत   बना   रहे   हो।’’

दत्त   के   मन   में   विचारों   का   तांडव   हो   रहा   था।   हिन्दुस्तान   पर   युद्ध लादनेवाले ये अंग्रेज कौन हैं ? शत्रु की मुसीबत ही हमारे लिए एक सन्धि है––– युद्ध समाप्त होने  के  बाद  क्या  अंग्रेज़  हिन्दुस्तान  छोड़  देंगे ?  या  आज  ही  जैसी  चर्चाओं  का नाटक।।। हिन्दुस्तान सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी।।। इंग्लैंड के औद्योगिक विकास का आधार।।। अंग्रेज़ ये सब कुछ छोड़ देंगे ? ना ! हिन्दुस्तानी नेताओं को सिर्फ़ लटकाए रखेंगे।

‘‘मैं  इंग्लैंड  का  प्रधानमन्त्री,  उसका  दीवाला  निकालने  के  लिए  नहीं  बना हूँ।’’ ऐसा कहने वाला चर्चिल क्या हिन्दुस्तान छोड़ेगा ? भँवर में फँसा मन सूखे पत्ते जैसा हलकान हो रहा था।

‘‘आजाद हिन्द सेना का निर्माण करके अंग्रेज़ों के विरुद्ध डंड पेलते खड़े नेताजी; मुझे हिन्दुस्तान की आज़ादी सिर्फ सत्य–अहिंसा के मार्ग से ही प्राप्त करनी है - ऐसा कहने वाले गाँधीजी और उनके निष्ठावंत अनुयायी; इस विचारधारा से कुछ दूर छिटके जयप्रकाशय लोहिया, राजगुरु, सुखदेव, धिंग्रा जैसे देशभक्तों का हिंसा का मार्ग और हँसते–हँसते स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर जान निछावर करने वालों का अहिंसक मार्ग।।।योग्य मार्ग कौन–सा है ? किस मार्ग से स्वतन्त्रता शीघ्र प्राप्त होगी ?’’ विचार गड्डमड्ड हो रहे थे।

जब विदेशी सैनिक मिलते और स्वतंत्रता पर बातचीत होती तो भावना प्रधान स्वाभिमानी सैनिक अस्वस्थ हो जाते।


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