उसका खत आया है - भाग 1
उसका खत आया है - भाग 1
बड़े दिनों बाद उसका खत आया है। कई कई बार पढ़ चुका हूँ लेकिन समझ नहीं पा रहा कि मैं कहाँ चूक गया हूँ? उसने लिखा है....
प्रिय _ _ _,
चन्द बरस ही तो हुए हैं मगर लगता है कि ये रिश्ता के जन्मों से चला आ रहा है।ये फिल्मी बात लगेगी तुम्हे मगर कुछ बातें इतनी हकीकत से भरी होती हैं कि उन्हें और किसी तरह नहीं लिखा जा सकता। सुनो! शुक्रिया, आज तुम्हे शुक्रिया कहने का दिल करता है। आज ही क्यों सारी जिंदगी भी कहती रहूँ तो कम होगा। तुम्हारा मेरी जिंदगी में आना अप्रत्याशित था। अपने ही ककून में दुनिया के बीच खामोशी से रही ।किताबी दुनिया और उसकी खुशफहमियाँ इनके बीच किस्मत से तूफानों से बचती रही।तुम्हारा किसी खामोश फरिश्ते की तरह मेरे इर्द गिर्द बने रहना।बिना कहे मेरी छोटी बड़ी राह को आसान करना ,मेरे डर को समझना, साथ देना और कभी भूले से भी अहसान न जताना ।ये मुझे किसी सामान्य इंसान का व्यक्तित्व नहीं लगा।
फिर भी मेरी कमअक्ली ने तुम्हे कई बार मर्माहत भी किया मगर तुम्हारा निश्छल समर्पित स्वभाव हर बार मुस्कराता हुआ,समझता हुआ... मेरे दोषों से भी मुझे संभालता रहा, बचाता रहा।
धीरे-धीरे तुम्हारा साथ और तुम्हारी अजीबोगरीब(हां तब ऐसा ही लगता था) कोशिशें मुझमे आत्मविश्वास जगाने की, मुझें मेरी सुरक्षित सीमाओं से बाहर ले गईं।सच कहूँ ! बहुत उफनाई थी मैं उस पल ,तोड़े तट बंध भी लेकिन तुम्हारे विश्वास और सागर सी विशालता और गहराई ने समा लिया मेरा सारा रोष।
क्या लिखूं ,जब पूरी दुनिया मेरे चलन पर मुझे नकारात्मक दृष्टी से परिभाषित कर रही थी,वो सिर्फ तुम थे जिसे मेरे अंतर्मन की सुंदरता पर अटूट भरोसा था।तुम्हारा कहना "गुलाब भूल जाता है कि उसके पास कांटे भी है,इसलिए तोड़ा मसला जाता है।"मैंने सीखा गुलाब सा महकना और कांटों को ओढ़ना। तुमने कहा"चाहे सही हो या गलत अपनी आवाज बनो। रुको नहीं डर से , राह निकालो" मैं आज गिरती पड़ती ,तन मन पर चोट खाती हुई भी जो दूरी तय कर रही उसमे हर डग पर तुम्हारी सीख मुझे राह दिखाती है।
तुमने ही कहा था न "तुम ऊपर उठोगी तो मेरा भाल भी ऊपर उठेगा, पर कभी जो तुम लडख़ड़ाई तो मेरा साथ तब भी रहेगा । " मैं नही जानती में कहां तक उठूंगी या कहां पर लड़खड़ाऊंगी मगर तुम्हारा ये कहना मुझमे आत्मबल भर गया था। यह भी जानो आज कि उस दिन किसी प्रियजन के मुझे मेरे आत्मविश्वास पर, एक छोटी सी उपलब्धि पर पागलों सा खुश होता देख,उस खुशी को हर जगह बंटता देख ...अहंकारी कहलाये जाने से...मेरे आंखों में भर आये थे आंसू । इस पर तुम्हारा तब जोर से हँसना बहुत खला था मुझे। मगर जब तुमने कहा "प्रभावित मत हो, वह सिर्फ प्रतिक्रिया है , तुम्हारी उपलब्धि भले कितनी छोटी हो ,वह प्रतिक्रिया उसके स्तर की नहीं है , तुम बस यह देखो की आगे और क्या कर सकती हो।" कैसे लिखूँ की इन बातों ने कैसे जादुई मरहम का काम किया मेरे मन पर।
दुनिया मे कई रंग और ढंग के आयामो से घबरा कर जब तुम्हारी ओर भाग कर आना चाहा तुमने आभासी दूरी बनायी। उसका औचित्य तब भी मैं समझ नहीं पाई ।कितना कोसा था मन ही मन मैने तुमको।क्या क्या नहीं कहा था तुमको, मगर तुम शांत भाव से मुझे सुनते रहे।मेरी व्यग्रता को ,मेरे उबाल को तुमने अपने शालीन स्वभाव के छीटों से पल में शांत कर दिया।और जब तुमने कहा "तुम जब भी मैदान में उतरो ख़ुद को औरत मर्द के चश्मे से मत देखना, याद रखना औरत से ही जन्मता है विनम्रता और शौर्य।"बस उसी पल खुल गईं मेरी अंतर्निहित बेड़ियां।अब समभाव से सबसे खुले मन से मिलती हूँ, देती हूँ स्नेह सम्मान समानता का और भिड़ती भी हूँ जहां गलत लगता है कुछ भी।
अब व्यंग्यबाण आहत नहीं करते मुझे की तुमने कहा था "व्यंगबान अधिकतर अहम पर चोट और कुंठा से उपजते है, ऐसा लगता है कि वे तुम पर आक्षेप है मगर तुमसे उनका कोई लेना देना नहीं होता।"
तुमने कहा था न "मन की कोमलता जाहिर मत होने देना तब जब की तुम अब कर्मक्षेत्र में हो।" अब जब झूझती हुई निकलती हूँ अवरोधों से तब समझ आता है इसका मतलब। जानते हो इनदिनों सुनती हूँ कि "क्या से क्या हो गयी हूँ!" तो याद आता है तुम्हारा कहना ।तुमने कहा था "सरलता, मैनीपुलेटर का मौका होती है, सरल रहो लेकिन कहाँ और किनके बीच ये चुनो" । हाँ, अब लोगों से मैनीपुलेट नहीं होती, परिस्थितियों और व्यक्तियों के अनुसार रहना सीख रही हूँ। इसलिए "रंग बदलती हूँ" सुनती रहती हूँ। पर तुमने कहा था न "सुनो और समझो कि ये भाव कहाँ से और क्यों आ रहा है?" तो सुन कर समझा लेती हूँ मन को।
तुम कहोगे आज हुआ क्या है,क्यों ये सब लिख रही हूँ?तो तुम्हारी बातों के अनुसार देखूँ तो कुछ भी नहीं हुआ है। बस दिल किया है कि तुम्हे मुझे कोकून से बाहर एक क्रूर और स्वार्थी दुनिया मे अपनी अंतर्निहित कोमलता अक्षुण्ण (किंतु दृष्टि से ओझल) रखते हुए आत्म विश्वास के साथ ले आने के लिए शुक्रिया कहूँ। जानती हूँ तुम पढ़ोगे तो दुनिया को क्रूर और स्वार्थी कहने पर भी मुझे टोकोगे।तुम फिर से मुझे कहोगे "जानो सब पर जताओ मत!"। है न! हहहहह तो सुनो ...हाँ, अब इस पर मेरा काम जारी है।
शुक्रिया! बार बार हर बार।
तुम्हारी _ _ _
... उसका "काम जारी" रहना अब भारी पड़ रहा है मेरे मन पर। सोचता हूँ ,वह जब ये कहती थी कि उस पर मेरी हर बात असर करती है उसका मतलब क्यों नहीं समझ पाया कि वो मेरी तरह बनती जा रही है और में अब कुछ उसकी तरह हो गया हूँ। हर बात मुझ पर असर कर रही है। कि उसे गढ़ते गढ़ते ये क्यों नहीं समझ पाया कि उसके व्यक्तित्व को गढ़ने में निकला शोर मेरे मन के उस कोने को भर रहा है,जहां उसे रखा था। ये क्यों है कि जिन बातो के लिए उसे समझाया करता था वही बात मुझमे रेंगने लगी है।अब वो मुझे ही क्यों अजनबी सी दिखने लगी है।हालांकि उसके खत में अब भी उसका वही अंदाज है। मैं कहीं उसे दुनिया के चश्मे से तो नहीं देखने लगा हूँ? कहीं मैं ही तो उसके लिए "क्रूर और स्वार्थी दुनिया"नहीं हो रहा हूँ?
मैंने सही किया या गलत किया?ये सवाल क्यों झांक रहा है? क्या मैं तैयार था उसे दुनिया के लिए तैयार करते हुए? मैंने सुना था क्या ..जब उसने कहा था "मेरी दुनिया मे तुमको मिला कर सिर्फ चंद लोग हैं" ,"मुझे क्या मतलब किसी से? तुम हो न काफी!!" ," कभी बदलोगे तो नहीं न !" ये क्या कर दिया है मैंने.. उसके साथ ? नहीं, नहीं.. शायद अपने साथ, हमारे साथ!
ख़ैर, उसका खत आया है, बार बार पढ़ रहा हूँ।
