Saroj Verma

Abstract

4.0  

Saroj Verma

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त्याग...!!

त्याग...!!

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अरे, बड़ी ठाकुराइन आपकी परेशानी दूर करने का उपाय लेकर आए हैं,अब ज्यादा दुखी होबे की जरूरत ना है,मनकी काकी भागते हुए आई।

ठाकुराइन चित्रलेखा के चेहरे की उदासी साफ-साफ देखी जा सकती थीं, वो हमेशा ऐसे ही उदासीन रहती थीं। उनके चेहरे की हंसी शायद वर्षो पहले गायब हो गई थीं, और उन्होंने इसे नियति मान कर स्वीकार कर लिया था,शायद उन्हें पता था कि इस सब की वो ही दोषी हैं।

"अब क्या है काकी, काहे हांफते चली आ रही हो, ऐसा क्या हो गया," चित्रलेखा बोली।

"कुछ सुना ठाकुराइन, पता है जो अपने गांव से नदिया पार जो गांव पड़ता है ना।सुना है , उस गांव में एक साध्वी है, जो सबका दुःख-दरद हर लेंबे हैं, कोई निराश ना लौटा, बहुत नाम है, सुना है आठ साल से तपस्या कर रही है,मुख में ऐसा तेज है,सारा गांव इज्जत करें है।"

"तुझे कैसे मालूम", चित्रलेखा बोली।

"वो मेरी भतीजी है ना, वहीं ब्याही है, उसने कही।"

" हम तो कहते हैं, ठकुराइन , छोटी ठकुराइन को एक बार वहां ले चलते हैं, शायद कोई आराम लग जाए।"मनकी काकी बोली।

" कितने डांक्टर ,हकीम-वैद, बाबा-बैरागियो को दिखा चुके हैं, अभी तक तो आराम ना लगा,एक साध्वी क्या कर पाएगी।" चित्रलेखा बोली।

" वो तो भगवान भी पत्थर के होवे, लेकिन लोग तो माने है ना, और चमत्कार भी करें है", मनकी काकी बोली

"ठाकुराइन, कभी भी कुछ भी हो सकें है,शायद उसी साध्वी के हाथों छोटी ठकुराइन का उद्घार लिखा हो। '

चित्रलेखा मान गई,बहु को ले जाने के लिए तैयार हो गई।उधर छोटी ठाकुराइन इंद्राणी गुम-सुम उदास अपने पति दुर्गेश से कह रहीं थीं, शादी को इतने साल हो गए इस घर को मैं वारिस नहीं दे पायी। इतने में बाहर से आवाज आई,इन्दू

" आयी मां जी,"

" कहिए मां ,क्या बात है? "

" वो मनकी काकी कुछ कह रहीं थीं,सो सोचा तुम्हें बता दूं।"

इतने में मनकी आ गई, और सारी बात कही।इंद्राणी ने बिना किसी ना-नुकुर के बात मान ली।और दूसरे दिन सास-बहू और मनकी काकी निकल पड़े साध्वी से मिलने।नाव ही एक साधन था उधर तक जा ने का।बहुत भीड़ थी, तो मनकी काकी और चित्रलेखा बाहर ही रह गयी। इंद्राणी कुटिया के अन्दर चली गई, साध्वी के चेहरे पे एक अजब सी शांति थी, और एक तेज था, जो सबको पृभावित कर रहा था।इंद्राणी को देखकर साध्वी मुस्कुरा दी, और आने का कारण पूछा, इन्द्राणी ने सारी ब्यथा कह दी। साध्वी बोली घबराने की बात नहीं है, तुम्हें लगातार पांच महीने आना पड़ेगा, बाद मैं आ जाया करूंगी, तुम्हारे पास, साध्वी ने इन्द्राणी की नब्ज टटोली और कुछ जड़ी-बूटियां दी, और बताया कैसे ले ना है और इन्द्राणी प्रसाद लेकर बाहर आ गई।

चित्रलेखा ने कहा,चलो अब घर चलते हैं, वैसे भी काकी तुम्हारे कहने पे आए हैं, मेरा तो मन ही नहीं था, वैसे भी भरोसा नहीं रह गया है इन सब पर।

अच्छा तो हम मिलकर आते हैं, मनकी काकी बोली।

नहीं ,काकी अगर मां कह रही हैं कि घर चलो,तो चलो, इंद्राणी बोली।

और सब वापस आ गये।ऐसे ही डेढ़ महीना बीत गया, अचानक एक दिन इंद्राणी चक्कर खा कर गिर गई, दुर्गेश परेशान हो गया। और डॉक्टर को बुलाया गया, डॉक्टर ने इन्द्राणी की जांच की और कहा खुशखबरी है। ठाकुर साहब आप पिता बनने वाले हैं। दुर्गेश ने खुश होकर मां को आवाज दी, चित्रलेखा ने मां शब्द सुना और भागी , चली आई।क्योंकि मां बेटे में आठ सालों से कोई बात नहीं हुई थीं।।चित्रलेखा के आंसू रूकने का नाम नही ले रहे थे,वो दादी जो बनने वाली थी,और दूसरा,आज आठ सालो बाद उसके बेटे ने मां कहकर पुकारा था। दो साल पहले बडें ठाकुर साहब का स्वर्गवास हुआ था,दिल का दौरा पड़ने से,तब भी दुर्गा ने बात नही की थी ,लेकिन आज..

मनकी काकी बोली,सब साध्वी का प्रताप है,हमने कही थी ना,कि आज भी चमत्कार होवे है।कल ही सब साध्वी से भेंट करने चलेगे।

"चित्रलेखा बोली,हां काकी ज़रूर, और साध्वी ने पांच महीनों तक बुलाया भी है ना इन्दू को, दुर्गेश तुम भी चलोगे बेटा?"

"नहीं मां,कल बहुत जरूरी काम है, शहर जाना है, कचहरी में काम है, वो जो शहर में जमीन थी, जिस पे कुछ लोगों ने अवैध कब्जा कर लिया था,उसकी कल सुनवाई है, और आपको भी चलना है, गवाही देने।"

"ठीक है बेटा, तो कल काकी और इन्दू ही चले जाएंगे,क्यो कि साध्वी तो केवल गुरुवार को बैठती है, और अगले गुरुवार इन्दू को तीसरा महीना लग जाएगा।"

काकी और इन्द्राणी गई, लेकिन काकी ,साध्वी को देखकर हैरान हो गई, ऐसा कैसे हो सकें है, काकी का दीमाग घूमगया, भगवान ने कैसी लीला रची है,का होने वाला है, काकी साध्वी से मिले बिना बाहर आ गई। और माथे पे पसीने की बूंदें झलक आयी, और सोचने लगी, इतने दिनों बाद तो घर में खुशियां आईं हैं,अब क्या होगा। इतने में इंद्राणी ने पुकारा, काकी आप बिना मिले बाहर आ गई।

"अरे अंदर भीड़ ज्यादा थी, तो घुटन हो रही थीं। अब काकी क्या बताती, वर्षो पुरानी नौकरानी थी उस घर की, चित्रलेखा की सास के साथ आई थीं दहेज में, पहले ठाकुरों के यहां नौकरो को दहेज में दे ने का रिवाज था, और चित्रलेखा की सास ने अपने ससुराल के एक नौकर से उसकी शादी करा दी जो उसे पसंद था।"

इसलिए चित्रलेखा भी उसे इतनी इज्जत देती है,अब मनकी काकी बहुत बड़ी दुविधा में थी,इस तरह दिन बीत रहे थे कि तीसरा महीना आ गया, काकी सोच ही रही थीं कि चित्रलेखा और दुर्गेश को साध्वी से ना मिलने दिया जाए।

लेकिन एक दिन चित्रलेखा गिर पड़ी और पैर में मोंच आ गई, काकी ने सोचा,अब ठाकुराइन तो नहीं जा पाएगी लेकिन दुर्गेश का क्या?

‌दुर्गेश , इन्द्राणी और मनकी काकी चौथे महीने भी साध्वी से मिलने गए, मनकी काकी दुर्गेश को ले तो गई लेकिन सोच रही थी कि, ऐसा क्या करु कि दुर्गेश, साध्वी से ना मिल पाए।

बहुत भीड़ थी, लेकिन इस बार मनकी काकी दुर्गेश को नहीं रोक पाई , इन्द्राणी और दुर्गेश अंदर चले गए साध्वी से मिलने।

लेकिन साध्वी को देखकर दुर्गेश को पता नही ,क्या हो गया, वो तुरंत बाहर आ गया और मनकी काकी से पूछा, इन सब के बारे में आपको पता था, लेकिन मनकी काकी कुछ कह पाती,इससे पहले इंद्राणी वहां आ गई।और बोली आप इतनी जल्दी बाहर क्यो आ गये, साध्वी से मिले बिना।

और सब घर को चल पड़े, रास्ते भर दुर्गेश पता नही क्या सोचता रहा,उसको कुछ समझ नही आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता है, जिन्दगी इतना बड़ा मजाक कैसे करें सकती मेरे साथ, इतने साल लग गए, खुद को संतुलित करने में और एक झटके में ही मेरा सन्तुलन बिगड़ गया।

तभी इंद्राणी ने दुर्गेश के कंधे पर हाथ रखा और बोली,क्या सोच रहे हैं, चलिए नाव से उतरिए,घर चलते हैं, और तीनों नाव से उतर गए, लेकिन मनकी काकी बहुत असमन्जस मे थी कि दुर्गेश को क्या जवाब दें और उधर दुर्गेश के मन में भी कई सवाल चल रहे थे, वो काकी से उनके जवाब चाहता था।

उधर चित्रलेखा मनकी काकी से कह रही थी, पता नहीं काकी लगता है, दुर्गेश की तबियत ठीक नहीं है, उदास और परेशान सा है,कल गुरूवार है और इन्दू को चौथा महीना लग गया है , कल साध्वी से मिलने जाना है, पिछली बार मैं मिल नहीं पायी थी, लेकिन इस बार जरूर मिल कर आऊंगी।

और अगले दिन काकी,इन्दू और चित्रलेखा साध्वी से मिलने गए और इस बार चित्रलेखा साध्वी से मिलने इन्दू के साथ अंदर चली गई और अंदर साध्वी और चित्रलेखा की नजरें मिली और दोनों एक-दूसरे को देखकर विचलित हो गई और चित्रलेखा बाहर आ गई। और मनकी काकी से कहा, शायद दुर्गेश इसलिए परेशान था, काकी तुमने बताया क्यो नही कि ये बात है।

हमे भी कुछ कहां पता था , ठाकुराइन वो हम जब पहली बार आए,तब ही पता चली साध्वी के बारे में।

और चित्रलेखा सोचने लगी , कैसे-कैसे खेल खिलाती है, हमें जिंदगी,जिस अतीत से मैं इतने साल से दूर भाग रही थी, वहीं मेंरा वर्तमान बन के मेरे सामने आ गया,अब क्या होगा?यही सोचकर वो परेशान हो रही थीं।सब साध्वी से मिल चुके थे, लेकिन कोई कुछ एक-दूसरे से कह नहीं रहा था।

घर पहुंच कर चित्रलेखा दिनभर परेशान रही, अजीब सी उथल-पुथल थी, उसके मन में,सोच रही थी, अगर सब कुछ अपने अनुसार ना चलाती तो शायद ज़िन्दगी इस मोड़ पर आकर ना ठहरती, लेकिन कैसे?उसे खानदान की इज्जत का डर जो था,लोग क्या सोचते?अगर वो दुर्गेश के कहे अनुसार चलती, लेकिन उसमें मेरा भी तो स्वार्थ था।

यही सोचते-सोचते, पता नहीं वो कब अपने अतीत के पन्नों को पलटने लगी।तीस साल पहले वो इसी हवेली में दुल्हन बनकर आई थी, बस सोलहवीं पार करके सत्रहवीं में लगी थी नाज़ुक सी,गोरा रंग,कंटीले नैन-नक्श,सटीले हाथ-पैर और गठा हुआ बदन, बहुत खूबसूरत थी वो,सास नजर उतारते ना थकती,बलाइयां ले लेकर निहाल हुई जाती। और चित्रलेखा के पति मानसिंह वो उससे दस साल बड़े थे, वो भी चित्रलेखा को बहुत प्यार करते थे, क्योकि पिता ठाकुर सुमेर सिंह का वर्षो पहले स्वर्गवास हो गया था तो जमींदारी की देखरेख उनके सर पे आ गई थीं, तो जमींदारी की वजह से ज्यादा वक्त नहीं दे पाते थे चित्रलेखा को। चित्रलेखा के विवाह को एक साल होने को था,अब वो अठारह की हो चली थी, तभी अचानक एक दिन एक घटना घटी, जिससे चित्रलेखा की जिंदगी में एक नया मोड़ आया, जो चित्रलेखा ने सोचा भी नहीं था।

एक दिन चित्रलेखा और उसकी सास सौभाग्यवती, मनकी काकी मन्दिर जा रहे थे कि एक पागल सांड ना जाने कहां से तीनों के सामने से दौड़ता हुआ आ रहा था, तीनों को सूझा ही नहीं कि क्या करें, इतने में ना जाने कहां से एक नवयुवक जिसकी उम्र होगी, कोई बीस-इक्कीस बीच में कूद पड़ा, तीनों को बचाने और सांड के सींगों में झूल गया, सांड ने उसे बहुत जोर से दूर पटक दिया और ना जाने कहां खेतों की तरफ अंदर चला गया।

उस नवयुवक को बहुत चोट आई, सौभाग्यवती घबरा गई, और उस नवयुवक को कुछ लोगों की मदद से घर ले आई।।

उधर सौभाग्यवती ने अपने बेटे मानसिंह से सारी घटना कह सुनाई, उसने बताया कि इस नवयुवक ने कैसे हमारी जान बचाई, तो मानसिंह उस नवयुवक से मिलने आए और उसका हाल-चाल पूछा और तीनों की जान बचाने के लिए धन्यवाद पृकट किया और उसके बारे में पूछा कि कौन हो और कहां रहते हो।

नवयुवक ने कहा कि मेरा नाम रघु है और मैं नदी के पार वाले गांव का हूं, मां-बाप बचपन में हैजे के पृकोप से भगवान के पास चले गए, कोई रिश्तेदार भी नहीं है मेरा, वर्षा ना होने से फसल खराब हो गई और कर्ज बहुत हो गया था, कर्ज ना चुका पाने से साहूकार ने सारी जमीन हथिया ली, मेरी झोपड़ी भी उसी जमीन पर थी, तो जमीन के साथ-साथ झोपड़ी भी चली गई, कुछ भी नहीं बचा तो मैं इस पार आपके गांव में आ गया और अभी दो ही दिन हुए आए ,तब से मन्दिर की सीढ़ियों पे रह रहा हूं, कोई थोड़ा बहुत पृसाद दे जाता है तो खा लेता हूं,रात को मन्दिर के पुजारी कुछ दे देते हैं खाने को बस ऐसे ही गुजर हो रही है, कोई काम भी नहीं है मेरे पास

इतना सुनकर ठाकुर मानसिंह बोले, तुम चिंता मत करो पहले ठीक हो जाओ, फिर हमारे यहां बहुत काम है, तुम्हें यहीं हम किसी काम पे लगा देंगे और तब तक तुम हवेली में रहकर आराम करो,तब तक तुम्हारी देखभाल मनकी काकी करेंगी, और मानसिंह चले गए।

और रघु मनकी काकी के कमरे में रहने लगा, मनकी काकी के भी कोई सन्तान नहीं थी तो वो भी रघु को बेटे की तरह मानकर दुलार लुटाने लगी। मनकी काकी की जिंदगी भी ऐसे ही गुजर गई कभी कोई सुख नहीं मिला, सौभाग्यवती के साथ दहेज में आ गई तो किशन को पसंद करने लगी तो सौभाग्यवती ने उन दोनों की शादी करवा दी, शादी को अभी पांच साल ही हुए होंगे कि एक दिन मनकी काकी के पति एक अड़ियल घोड़े को काबू में कर रहे थे तो घोड़े ने बहुत जोर की लात मारी और उनके पति किशन का सर पत्थर से जा टकराया और वो वही ढ़ेर हो गए।उनका एक बेटा भी था , जब वो दस साल का था तो उसे सांप ने डस लिया था और वो भी नहीं रहा।तो काकी रघु को अपने बेटे के रूप में पाकर थोड़ा खुश रहने लगी।

इधर रघु भी हवेली में काम करने लगा, उसे भी आसरा मिल गया, लेकिन उसे देखकर चित्रलेखा विचलित हो जाती, रघु के लिए चित्रलेखा के मन अलग ही भाव उठने लगे, वो उसके पास जा ने का कोई ना कोई बहाना ढूंढती रहती, उसका गठीला बदन और सुडौल बांहे देखकर वो अधीर हो जाती, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि उसे क्या हो रहा है,वो हर पल रघु को अपने सामने देखना चाहती थी, शायद वो रघु को चाहने लगी थी,रघु को छुप-छुप कर निहारती रहती,उसका किसी काम में मन ना लगता।

एक दिन आखिर उसने हद पार कर दी और अकेले में रघु से लिपट गई और बोली रघु मैं तुम्हें चाहने लगी हूं, लेकिन रघु बोला, छोटी ठाकुराइन ये आप क्या कर रही है, ये सब आपको शोभा नही देता और खुद को छुड़ाकर चला गया और उसने ठाकुर साहब से कहकर अपना काम खेतों में लगवा लिया और किसी से भी उस दिन वाली घटना के बारे में नहीं कहा। और कुछ दिनों बाद उसने काकी से कहा_

माई,हमारा भी ब्याह करवा दो,कब तक हमें बनाकर खिलाती रहोगी, काकी बहुत खुश हुई और एक अनाथ लड़की जो ठाकुर साहब के खेतों में काम करती थी जिसका नाम जानकी था,रघु से ब्याह करा दिया।

जानकी,रघु की दुल्हन बनकर आ गई

रघु बहुत खुश था, जानकी को पाकर और जानकी भी खूब खुश थी कि कोई तो है इस दुनिया में जिसे वो अपना कह सकती है इसी तरह खुशी-खुशी दिन गुजर रहे थे।

उधर चित्रलेखा भी रघु को भुला ने का प्रयास कर रही थी और कुछ दिनों बाद चित्रलेखा ने खुशखबरी सुना दी कि वो मां बनने वाली हैं, सौभाग्यवती बहुत खुश हुई और ठाकुर मानसिंह भी खुश हुए और कुछ महीनों बाद चित्रलेखा को बेटा हुआ जिसका नाम ठाकुर दुर्गेश पृताप सिंह रखा गया।

और उधर दुर्गेश एक साल का हुआ और जानकी ने भी खुशखबरी सुना दी और कुछ महीनों बाद उसे भी प्यारी सी बेटी हुई और उसका नाम रघु ने धानी रखा।

समय धीरे-धीरे गुजर रहा था,दोनो बच्चे साथ-साथ बड़े होने लगे और दोनो बच्चो की शरारतो से हवेली मे रौनक रहती,दोनो एक-दूसरे से लड़ते -झगडते बडे हो रहे थे। और इसी बीच सौभाग्यवती भी बिमारी के बाद चल बसी।

फिर आठवीं पास करके दुर्गेश आगे की पढा़ई के लिए अपने मामा के पास शहर चला गया।

उधर रघु ने अपनी झोपड़ी खेतों के पास ही बना ली थी, ठाकुर साहब की गौशाला भी वही थी, तो रघु और जानकी को गाय , भैंस,बैल और बछड़ों की देखरेख में आसानी होती थीं, लेकिन मनकी काकी को साथ नहीं ले गया, बोला माई तुम जिन्दगी भर हवेली में रहते आई हो, तुम यहीं आराम से रहो, वहां झोपड़ी में कैसे रहोगी?

धानी और दुर्गेश दूर-दूर रहकर बड़े तो हो रहे थे लेकिन दोनों के मन के किसी कोने में थोड़ा बहुत दर्द था एक-दूसरे से बिछड़ने का और कभी छुट्टियों में दुर्गेश आता तो धानी ज्यादा मिलने नहीं आती, क्योंकि जानकी हवेली में जाने से मना करती, उस को लगता था कि बेटी हवेली के रंग-ढंग देख के बिगड़ ना जाए,हम गरीब लोग ना उसको अच्छा पहना सकते हैं ना अच्छा खिला सकते हैं और ससुराल भी पता नहीं कैसा मिले, गरीब की बेटी है और गरीब घर ही ब्याही जाएगी।

इसी तरह दोनों बच्चे बड़े हो गए और उधर दुर्गेश अपने कालेज की पढ़ाई करके घर आ गया, क्योंकि अब ठाकुर साहब बीमार रहने लगे थे और उन्हें जमींदारी में एक सहायक की जरूरत थी,तो दुर्गेश को वापस आना पड़ा।उधर चित्रलेखा दुर्गेश के लिए दुल्हन ढूंढ रहुं थी, तभी उसके किसी रिश्तेदार ने एक रिश्ता बताया और चित्रलेखा ने हां कर दी और कहा हम छै महीने बाद नवरात्र में आयेंगे लड़की देखने।उधर,एक दिन काकी का बाजरे की रोटी और प्याज की चटनी खाने का मन था, तो जानकी से कह भिजवाया कि जरा धानी को भेज देना, तेरे हाथ की बाजरे की रोटी और प्याज की चटनी खाने का मन है,अब बूढ़े शरीर में ज्यादा चलने-फिरने की ताकत नहीं रह गई है तो मैं ना आ सकूंगी,तू भिजवा देना।

उधर काकी, धानी का बेसब्री से इंतजार कर रही थीं, हवेली के आंगन में, इतने मे दुर्गेश ने काकी से पूछा कि किसका इंतजार कर रही हो काकी? अपने लिए कोई दूल्हा ढूंढ लिया क्या?

कैसी बात कर रहे हो छोटे ठाकुर, वो तो हम मरी धानी का इंतजार कर रहे थे, जाने कहां मर गई चुड़ैल, बाजरे की रोटी और चटनी लाने वाली थी।

कौन, धानी ; वहीं जो बचपन में हमारी हवेली में रहा करती थी।

हां, वहीं

अभी तक नहीं आई

बहुत जोरों की भूख लग रही है

मैं भी खाऊंगा, मैंने भी जानकी चाची के हाथ का बना खाना बचपन से नहीं खाया,दुर्गेश बोला।

और इतने में धानी आ गई

और धानी को देखते ही , दुर्गेश अपनी सुध-बुध खो बैठा।

छोटे ठाकुर,इतना कहकर धानी खाना देकर भाग गई।

उधर , रघु भी धानी के लिए रिश्ता ढूंढ रहा था और उसे भी एक किसान लड़का मिल गया, जो कि अपने मां-बाप का इकलौता बेटा था, नवरात्र में रघु ने भी धानी का रिश्ता तय करने की सोची।

धानी को इतने सालों बाद देखकर, दुर्गेश का मन धानी से मिलने के लिए फिर करने लगा , दिन भर इसी उधेड़बुन में लगा रहा कि जाऊं कि नहीं और यही सोचते-सोचते शाम हो गई और फिर रात........

रात का खाना खाकर दुर्गेश अपने कमरे में गया और किताब पढ़ने लगा और अचानक उसे कुछ याद आ गया, उसने अपना बड़ा सा संदूक खोला और कुछ खोजने लगा , अचानक उसे वो छोटा-सा लकड़ी का बक्सा मिल गया जिसे वो ढूंढ रहा था जिसमें एक पैर की पायल,एक खाली स्याही की दवात और एक रिबन था,और वो पायल को हाथों में लेकर देख ही रहा था कि चित्रलेखा दूध लेकर आ गई और उसने दुर्गेश को आवाज दी तो दुर्गेश ने झटके से सब रख के संदूक बंद कर दिया और बोला हां मां आ जाइए।

ले दूध पी लें, आज तूने ठीक से खाना नही खाया, चित्रलेखा बोली, तबियत ठीक है तेरी!

हां,मां सब ठीक है वो दोपहर में जानकी चाची ने मनकी काकी के लिए बाजरे की रोटी और प्याज की चटनी भिजवाई थी, तो मैंने भी खा ली थी , दुर्गेश ने कहा।

अच्छा ठीक है, लेकिन उन लोगो से थोड़ी दूरी बनाए रखना,कहां वो और कहां हम चित्रलेखा बोली।

अच्छा अब सो जाओ, चित्रलेखा ने जाते हुए कहा

ठीक है ,मां दुर्गेश ने बिस्तर पर लेटते हुए कहा

लेकिन दुर्गेश की आंखों में नींद कहां? वो तो बस धानी के बारे में सोच रहा था और पक्का मन बना लिया कि कल जरूर धानी से मिल के रहेगा।

और सुबह होते ही धानी से मिलने गौशाला पहुंच गया और जानकी से राम-राम की, खुश रहो जानकी ने आशीर्वाद दिया।

अच्छा हुआ, छोटे ठाकुर आप आए ।

और रघु चाचा कैसे हैं? दुर्गेश ने पूछा

ठींक है, अभी खेत गये है, जानकी बोली

लेकिन दुर्गेश धानी के बारे में कैसे पूछे,ये ही सोच रहा था, इतने में धानी आ गई तो जानकी बोली बड़ी देर कर दी नहर से कपड़े धोकर लाने में और जा बाबा को खाना दे आ खेत पे, खाना बधां रखा है,भूखे हों आए होंगे तेरे बाबा।

अच्छा,अम्मा जाती हूं धानी बोली

और झोपड़ी के अंदर गई और खाना उठाया और खेत को चल दी।

कुछ देर जानकी से बात करके, दुर्गेश भी खेतों की तरफ चल दिया।

धानी, खेतों की तरफ चली जा रही थीं, इतने में दुर्गेश के अचानक सामने आ जाने से चौंक गई और बोली "डरा दिया छोटे ठाकुर", जैसे बचपन में राक्षसों वाली हरक़त करते थे बिल्कुल वैसे ही, धानी बोली।

और तुम भी बचपन में चुड़ैलो वाली हरकत किया करती थीं,याद है कुछ कि मुझे कितना परेशान करती थीं, मुझे पढ़ने ही नही देती थीं, दुर्गेश बोला।

तब मैं बच्ची थी, धानी ने कहा

हां,भाई अब तुम जवान हो गई हो, और सुंदर भी

दुर्गेश ने इतना कहा तो

धत्त! छोटे ठाकुर , धानी ने शर्माते हुए कहा

और कल तुम हवेली से भाग क्यो आई थी? दुर्गेश बोला

वो आपको देखकर डर लग गया था,कहीं आप बचपन की तरह फिर से मेरी चोटी ना खींच दो। धानी बोली।

अच्छा ऐसे, और दुर्गेश ने धानी की चोटी पकड़ कर खींच दी,

छोटे ठाकुर तुम वही बचपन वाले राक्षस हो

और गुस्सा करते हुए भाग गई।

उधर रघु के पास पहुंची तो रघु ने पूछा,का हुआ बिटिया? शकल काहे उतरी है,

कुछ नहीं बाबा,पैर में कांटा चुभ गया था,धानी ने कहा।

और अगले दिन दुर्गेश फिर खेतों की ओर चला गया, धानी से मिलने की चाह उसे आतुर कर रही थी और धानी को मनाना भी था वो रूठकर जो गई थी।

उसने देखा तो धानी खेतों में बैठकर अमरूद खा रही थी, उसके पास जाके बोला, मुझे भी अमरूद खिलाओ,

जैसे बचपन में खिलाती थी,बाग से चुरा कर।

मुझसे बात ना करो, छोटे ठाकुर, मुझे गुस्सा आ रहा है,धानी गुस्से से बोली।

अरे, काहे नाराज हो? दुर्गेश बोला

कल जो तुमने हमारी चोटी खींची थी, धानी बोली

अच्छा ठीक है, माफ़ कर दो

लो अब तो कान भी पकड़ लिए,कहो तो उठक-बैठक लगा दूं , दुर्गेश बोला।

अरे, नहीं छोटे ठाकुर ऐसा मत करो, मुझे पाप लगेगा।

अच्छा चलो माफ किया और ये लो अमरूद खाओ,उसी बाग से चुराए है।

और दोनों बैठ के अमरूद खाने लगे।

इसी तरह दिन गुजर रहे थे, दोनों कभी गांव की पहाड़ी पे, कभी नहर के किनारे, कभी अमरूद के बागों में साथ-साथ घूमने निकल जाते।

और इसी तरह नवरात्र भी आ गई, और दोनों के रिश्ते भी पक्के हो गऐ, और दुर्गेश का ब्याह होली बाद तय हुआ और धानी का अगले साल क्यो कि धानी के होने वाले दूल्हे की दादी को मरे, अभी एक साल नहीं हुआ था।

और एक दिन पता नहीं, किसने जाकर चित्रलेखा को बता दिया।

कि दुर्गेश और धानी साथ-साथ घूमते हैं।

चित्रलेखा ने तुरंत जानकी को बुला भेजा, और कड़े शब्दों में बहुत खरी-खोटी सुनाई, जानकी अपना सा मुंह लेकर वापस चली गई और घर जाकर धानी को खूब सुनाया और कहा तू घर से बाहर कदम भी नहीं रखेगी,तेरा ब्याह तय हो गया है, घर में रहाकर और कई दिन हो गये धानी दुर्गेश ना मिली।

उधर दुर्गेश परेशान था, धानी से ना मिल पाने के कारण।

और एक दिन जानकी बिमार पड़ गई,घर में लकड़ियां खत्म थी तो धानी को मजबूरन जंगल जाना पड़ा।शाम हो चली थीं, और धानी चली गई, और बादल घिर आये, इतने में क्या देखती है कि दुर्गेश उसका पीछा करते हुए,जंगल तक आ गया और गले लग के बोला, धानी तुम बात क्यो नही करतीं, मुझसे मिलना क्यो नही चाहती।

धानी अपने आप को छुड़ाते हुए बोली, छोटे ठाकुर क्या कर रहे हो , मेंरा ब्याह तय हो गया है और तुम्हारा भी।

लेकिन धानी मैं तुमसे प्यार करने लगा हूं और मुझे किसी की परवाह नहीं, दुर्गेश बोला।

लेकिन मुझे है,मैं अपने अम्मा-बाबा का नाम बदनाम नहीं कर सकती, धानी बोली।

बदनामी कैसी धानी? अभी चलो मैं सबको सबकुछ बता दूंगा,हम खुश नहीं रह पायेंगे, एक-दूसरे के बिना, दुर्गेश बोला

अब भी बताओ ,क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करती।

हां करती हूं, छोटे ठाकुर बचपन से करती हूं और तुम्हारे बिन नहीं रह सकती और दुर्गेश के गले लग गई और दोनों घर आने लगे सबसे बात करने तो बहुत जोर की बारिश होने लगी और अंधेरा भी हो गया, भीगते-भीगते गांव पहुंचे।

लेकिन उधर चित्रलेखा, दुर्गेश के घर जल्दी ना आने से परेशान थी,पता नहीं कहां चला गया और बारिश भी तेज हो रही है और उसने किसी से पता करवाया तो पता चला उसे धानी के पीछे-पीछे जंगल की तरफ देखा गया है, उसे बहुत गुस्सा आया और उसने रघु को बुलवाया और कहा कि तुम्हारी बेटी अपनी औकात भूल गई है, दुर्गेश से शादी करने के सपने देख रही है, ये कभी नहीं हो सकता, तुम ने एक दिन मेरा प्यार ठुकराया था, आज मैं तुम्हारी बेटी को ठुकराती हूं और ये गांव अभी इसी वक्त अपने परिवार के साथ छोड़ कर चले जाओ, जहां से आए थे।

रघु बोला, जानकी की तबियत खराब है और तेज बारिश हो रही है, ऐसे में कहां जाऊ।

मैं कुछ नहीं जानती, जो करना है करो, लेकिन गांव छोड़कर जाओ, चित्रलेखा बोली।

रघु वापस आ रहा था, उसने देखा दुर्गेश और धानी एक-दूसरे का हाथ थामे चले आ रहे हैं, रघु को गुस्सा आया और धानी को अपने साथ ले जाने लगा , दुर्गेश ने रोकने की कोशिश की,कि काका मेरी बात तो सुनिए लेकिन रघु ने एक ना मानी और बोला, बाद में बात करेंगे, छोटे ठाकुर घर जाइए ठाकुराइन आपका हवेली में इन्तजार कर रही है। दुर्गेश चला गया और रघु ने कुछ जरूरी सामान बांधा और परिवार के साथ निकल पड़ा , रातों-रात बिना किसी को बताये, नदिया की ओर, बारिश बहुत जोर से हो रही थी, बिजली भी कड़क रही थी, लेकिन रघु ने परवाह नहीं की,आज उसके आत्मसम्मान को ठेस लगी थी, और उसने एक नाव खोली जो कि बहने के डर से रस्सी से बंधी थी और परिवार को बैठाया और नाव खेने लगा लेकिन कुछ दूर जाकर नाव बेकाबू हो गई क्योंकि पानी का बहाव बहुत ज्यादा था और बारिश भी बहुत जोरों से हो रही थी और नाव डूबने लगी और थोड़ी देर बाद नाव डूब गई।

तभी चित्रलेखा का ध्यान टूटा, बाहर कुत्ते के भौंकने से।

दोपहर का समय है ,

साध्वी, सीढ़ियों पे उदास बैठी थीं ,तभी मन्दिर के पुरोहित जी अपने छड़ी के सहारे धीरे-धीरे चलते हुए,साध्वी के पास आकर बोले।

क्या हुआ बेटी? इतनी उदास क्यों बैठी हो?क्या परेशानी है,बोलो बेटी, पुरोहित जी बोले।

कुछ नहीं बाबा,बस थोड़ी थकान है, साध्वी बोली।

अपना ख्याल रखा कर बेटी,तेरे सिवा अब कौन है मेरा,अब तो पुरोहितन भी नहीं रही, जब तू आठ साल पहले मेरी और पुरोहितन की जिंदगी में आई तो तुझे देखकर लगा की वर्षों से जो हमारी जिंदगी में सन्तान की कमी थी, वो पूरी हो गई।

इतना कहते -कहते पुरोहित जी की आंखें भर आईं।

ऐसा क्यों कह रहे हैं बाबा, तुम्हारे रुप में मुझे भी तो मेरे बाबा मिल गये, तुम और पुरोहितन अम्मा ना होती तो मेरा क्या होता।

इतना कहकर साध्वी की आंखों से आंसू टपक पड़े।

अच्छा,अब खाना भी खिलाएगी कि बस ऐसे ही_____

चल उठ,खाना खाते हैं, बहुत भूख लगी है,

और आज क्या बनाया है, मेंरी बेटी ने, पुरोहित जी बोले।

ये रहा खाना, तुमने कहा था ना बाबा कि अब उम्र के हिसाब से तुम्हारे दांत कमजोर हो गये है तो कुछ ऐसा बनाया कर जो आसानी से खाया जाए तो ये रहा,दूध और दलिया, लौकी की सब्जी,आलू का भरता,हरी धनिया की चटनी और गेहूं की नरम-नरम रोटी।

बहुत अच्छा बेटी, कितना ख्याल रखती है तू मेरा ,पुरोहित जी बोले।

और साध्वी ने खाना परोस दिया और बोली लो बाबा खाओ।

अरे,तू नहीं खाएगी पुरोहित जी बोले।

नहीं बाबा मन नहीं है, मैं बाद में खा लूंगी, साध्वी बोली।

तू नहीं खाएगी तो मैं भी नहीं खाऊंगा, पुरोहित जी बोले।

क्या, तुम भी बाबा बच्चों जैसी जिद लेके बैठ जाते हो,साध्वी बोली।

तू भी तो दिन भर लोगों की सेवा में लगी रहती है, कभी तू भी आराम कर लिया कर, कितना काम करती है तू,पूरोहित जी बोले।

अच्छा चलो खा लेती हूं, नहीं तो बाबा तुम कुछ ना कुछ कहते रहोगे, साध्वी बोली।

और दोनों लोग खाना खाकर अपनी-अपनी कुटिया में आराम करने चले गए।

और थोड़ी देर बाद बादल घिर आए और बारिश होने लगी,तभी साध्वी अपने अतीत के उस दिन की बारिश वाली रात याद आ गई जिस दिन वो छोटे ठाकुर से दूर हुई थी।

उस दिन उसने पहली बार अपने बाबा का गुस्सा देखा था।

गुस्से से कैसे कांप रहे थे, बाबा

छोटे ठाकुर के हाथ में मेरा हाथ देखकर, शायद उनको इस सब की उम्मीद नहीं थी और सच भी तो है,उस दिन उनकी बेटी ने उनके स्वाभिमान को ठेस जो पहुंचाई थी।

उन्होंने किस तरह छोटे ठाकुर के हाथ से मेरा हाथ छुड़ा कर, झोपड़ी के अंदर ले गए और पूछा_____

क्या ये सब सच है?और हां अगर ये सच है तो तुझे आज के बाद छोटे ठाकुर को भूलना होगा, मुझे वचन दे कि तू आज के बाद छोटे ठाकुर से नहीं मिलेगी।

और उन्होंने मुझसे उस दिन छोटे ठाकुर से ना मिलने का वचन ले लिया और साथ में गांव छोड़ ने का फैसला भी और किस तरह तूफान और बारिश में निकल पड़े,मैं , अम्मा और बाबा।

और उस दिन के तूफान ने कई दिलों को तबाह किया था, बाबा बहुत गुस्से में थे,उस रात तूफान में बाबा हम लोगों को ले तो गए लेकिन इतनी तेज बारिश और तूफान में नाव बेकाबू होकर डूब गई और बाबा और अम्मा की लाशे बाद में मिली, और मैं दूसरे दिन बेशुध होकर पड़ी थी, नदी किनारे_____

तभी पुरोहित बाबा अपने रोज़ के नियमानुसार नदी पे स्नान करने आए और मुझे देखा और पास आकर मेरी नब्ज टटोली तो मैं सिर्फ़ बेहोश थी।

पुरोहित बाबा ने आस-पास के लोगों को आवाज देकर बुलाया और मुझे मंदिर के पास झोपड़ी में ले गये और पुरोहितन अम्मा से फौरन मेंरे कपड़े बदलने को कहा और तुरंत मेरा इलाज अपनी जड़ी-बूटियों द्ववारा करने लगे, क्योंकि पुरोहित के साथ-साथ वो जाने -माने वैध भी थे और होश में आते ही मैंने पहले अपने बाबा और अम्मा के बारे में पूछा तो गांव के सारे लोगों ने उन्हें ढूंढने में मदद की और मिली भी तो अम्मा-बाबा की लाशे।

और फिर पुरोहित बाबा ने ही अम्मा और बाबा का अंतिम संस्कार किया, और मुझे अनाथ के सर पे हाथ रखा और मैं पुरोहित बाबा और पुरोहितन अम्मा के साथ रहने लगी और लोगों की सेवा करने लगी, बाबा ने अपनी सारी वैध -विद्या सिखा दी तो मैं भी उनके साथ दूर्लभ जड़ी-बूटियों को खोजने जाने लगी, फिर मैंने सोचा क्यों ना इन जड़ी-बूटियों को मंदिर के पीछे जो जमीन है वहां उगाया जाए और गांव के सरपंच जी की इजाजत से मैंने ऐसा किया, मंदिर के तालाब से घड़ों में पानी भरकर पौधों को सींचती , मुझे ऐसे देख कर गांव के लोग भी मदद करने लगे और देखते ही देखते मन्दिर के चारों तरफ हरियाली ही हरियाली छा गई,आठ सालों में।

तभी पुरोहित बाबा ने आवाज दी, बेटी जरा कम्बल तो दें, बारिश की वजह से ठंड लग रही है,

अभी लाई बाबा, साध्वी ने कहा।।

चित्रलेखा बहुत परेशान थी और विचलित भी कि अब न इंद्राणी को पांचवां महीना लग गया था और उसे साध्वी के पास ले जाना था लेकिन समस्या ये थी कि उसके साथ किसको भेजा जाए,कुछ भी समझ नहीं पा रही थी, चित्रलेखा।

लेकिन इस बार दुर्गेश , इंद्राणी,काकी और चित्रलेखा सभी गये।इस बार धानी ने चित्रलेखा और काकी के पैर छुए, इन्द्राणी ये सब देखकर थोड़ी ससंकित हुई लेकिन किसी से कुछ पूछा नहीं और फिर धानी ने इंद्राणी की नब्ज टटोली और कुछ जड़ी-बूटियां देकर कहा इन्हें समय से लेते रहना और सब ठीक है ,हां और अगली बार मैं आऊंगी ,आपकी जांच करने आपके घर, अब आपके दिन आराम करने के हैं,सफर करना आपकी सेहत के लिए अच्छा नहीं है।

और सब घर आ गये......

आज कुछ ज्यादा ही मरीज थे और उन्हें देखते-देखते दोपहर हो गई और फिर बाबा के लिए खाना बनाना था, ज्यादा देर होने से उसने साथ में शाम का खाना भी बना भी बना कर रख दिया, बाबा को खाना खिला और खुद भी खाना खाकर निकल पड़ी, इंद्राणी की जांच करने, चित्रलेखा की हवेली____

पहुंचते-पहुंचते धानी को शाम हो गई और नदी का रास्ता वापस कैसे आएगी,जाना भी जरूरी है, इंद्राणी को छठा महीना लग गया है, उसकी जांच करनी भी जरूरी है,अगर देर हो गई तो वहीं गांव के मन्दिर में रूक जाऊंगी लेकिन हवेली में कभी नहीं ,यही सब विचार उसके मन में चल रहे थे कि तभी नाविक ने कहा ...........

दीदी गांव आ गया और सम्भाल कर उतरिएगा__

ठीक है भइया,कितने रुपए हुए, धानी बोली

आप से क्या रुपए लेना दीदी? आप तो सारे गांव की सेवा करतीं हैं, आपने इतने लोगों को ठीक किया है.....

अरे भाई ऐसे करोंगे तो कमाई कैसे होगी, धानी बोली

अच्छा ठीक है,जब वापस आइएगा तो तब ले लूंगा, नाविक बोला।

कितना कुछ बदल गया है,आठ सालों में, सबकुछ और साथ में मेरी जिंदगी भी, चलो हवेली भी आ गई।धानी को हवेली पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो गया, उसने दरवाजे पर दस्तक दी, तो एक नौकरानी ने आकर दरवाज़ा खोला और पूछा किससे मिलना है?

बड़ी ठाकुराइन है, उनसे मिलना था , धानी बोली

हां, अंदर आइए।

बड़ी ठाकुराइन देखिए, कोई आया है

सुन यहां बैठक में भेज दें, चित्रलेखा बोली।

ठीक है ठकुराइन भेजती हूं

धानी बैठक में पहुंचीं तुरंत चित्रलेखा के पैर छुए और बोली जल्दी से छोटी ठाकुराइन को बुला लीजिए, मुझे वापस जल्दी जाना है, नहीं तो नांव की आखिरी फेरी भी निकल जाएगी।

कोई बात नहीं,हम अभी जानकी को नदी किनारे भेजकर नाविक से तुम्हारे गांव ख़बर पहुंचवा देते हैं कि आज तुम हमारे साथ रूक रही हो , चित्रलेखा बोली।

नहीं, बड़ी ठाकुराइन आप छोटी ठाकुराइन को बुला दीजिए, मैं उनकी जांच करके वापस चली जाऊंगी, धानी बोली।

क्यो? धानी हमें माफी मांगने का भी मौका नहीं दोगी और चित्रलेखा रो पड़ी, उसकी आंखों में पाश्चाताप के आंसू थे।

धानी चित्रलेखा के आगे विवश हो गई,उस रात वो हवेली में रुकी, इंद्राणी की जांच की, थोड़ी देर चित्रलेखा और काकी से बातें करने के बाद.......

चित्रलेखा बोली चलो खाना खा लो, तुम्हारे लिए अलग से खाना बनवाया है, बिना प्याज, लहसुन और मसालों का_____

सारी हवेली में लालटेन की रोशनी थी, धीमी-धीमी सी और सब बैठकर खाना खाने ही वाले थे कि तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई____

नौकरानी ने दरवाजा खोला तो दुर्गेश आ गया था, चित्रलेखा ने पूछा ,जानकी कौन आया है?

छोटे ठाकुर आए हैं, मालकिन

अच्छा ठीक है,

चित्रलेखा बोली, उनसे कह दो हाथ-पैर धोकर खाना खाने आ जाए।

ठीक है मां, अभी आता हूं, दुर्गेश बोला।

दुर्गेश जैसे ही खाना खाने पहुंचा, धानी को देखकर थोड़ा विचलित हो गया।

सब चुपचाप खाना खा रहे थे,सब जगह खामोशी छाई थी, कोई किसी से बात नहीं कर रहा था, अजीब सा माहौल था,सब उलझन में थे कि किससे क्या बोले,बस सब सोच रहे थे कि खाना जल्दी खत्म हो।

खाना ख़त्म होते ही चित्रलेखा ने कहा, धानी ,तुम मेहमानों वाले कमरे में सो जाओ,जानकी तुम्हें ले जाएंगी।

ठीक है, बड़ी ठाकुराइन, धानी बोली।

और सब अपने-अपने कमरों में सोने चले गए।

धानी को आज सब अजीब-अजीब सा लग रहा था,काश ये सब बातें बड़ी ठाकुराइन पहले समझ लेती तो उसके अम्मा-बाबा आज उसके साथ होते, ये ही सब सोच रही थी कि उसे किसी के आने की आहट सुनाई दी, दरवाजा किसी ने धीरे से खटखटाया, धानी ने दरवाजा खोला तो सामने दुर्गेश था, धानी ने दरवाजा बंद करना चाहा तो, दुर्गेश ने कहा, धानी मुझे कुछ बात करनी है तुमसे,बस आखिरी बार, फिर आज के बाद मैं कभी तुमसे बात करने की कोशिश नहीं करूंगा,बस एक बार_____

धानी दरवाज़े से अलग हट गई, दुर्गेश अंदर आया,

दुर्गेश बोला, धानी ये लो तुम्हारी कुछ चीजें मेरे पास थी,वो ही वापस करने आया हूं,

जो देना है या कहना है जल्दी कहो, कहीं छोटी ठाकुराइन को कुछ पता चल गया तो, मैं खुद को माफ नहीं कर पाऊंगी, धानी बोली।

इतनी नफ़रत करती हो मुझसे, दुर्गेश बोला।

हां,करती हूं, तुमसे प्यार करके मुझे क्या मिला, सिवाय दु:ख के,उस दिन मैं तुम्हारे साथ ना होती तो ना बाबा को इतना गुस्सा आता और आज मेरे अम्मा-बाबा मेरे साथ होते, और धानी बोलते-बोलते रोने लगी।

तुम्हें,क्या लगता है,तुम ही बस दु:खी हो, तुम्हारे मरने की खबर से मेरे दिल पर क्या बीती, दुर्गेश बोला।

हां, तभी तो तुमने तुरंत शादी कर ली, धानी बोली।

धानी, वो एक वादा था, पिता जी के एक दोस्त थे बीमार थे, उनकी पत्नी पहले ही स्वर्गवासी हो गई थी, तो उन्होंने मरते वक्त पिताजी से वादा लिया था कि उनकी बेटी को वो अपनी बहु बनायेंगे, पिता जी ना नहीं बोल पाये और उनके मरने के बाद साधारण तरीके से मंदिर में शादी करके इंद्राणी को हम लोग ब्याह लाए, दुर्गेश बोला।

अब भी मुझे माफ़ नहीं करोगी, मेरी गलती क्या है?

और दुर्गेश की आंखों से भी आंसू बहने लगे।

दोनों ही फूट-फूट कर रो रहे थे,आठ सालों का गुबार जो दोनों के मन में भरा था वो आज जाके निकला था।

दुर्गेश ने कहा,देखो मैं तुम्हारे लिए क्या लाया हूं ये छोटा सा बक्सा इसमें देखो क्या-क्या है।

धानी ने बक्सा खोला तो उसमें उसके बचपन की छोटी सी पायल,एक रिबन जिससे वो बाल बांधती थी,स्याही की दवात जो उससे गिर कर फैल गई थी, छोटे-छोटे घोंघे और सीपी जो उन दोनों ने मिलकर नहर के किनारे खोजें थे, धानी ये सब देख कर खुश हो गई , उसके मन के सारे गिले-शिकवे दूर हो गए।

धानी ने कहा, छोटे ठाकुर तुम जाओ, मैं नहीं चाहती कि कोई हमें साथ में देखें और गलत मतलब निकाले।

दुर्गेश ने कहा अब मैं जाता हूं, दुर्गेश चला गया और धानी सो गई,

सुबह सबसे विदा लेकर चल पड़ी, नदी के किनारे वहीं कल वाला नाविक मिला,वो बोला, दीदी आप कल लौटीं नहीं थी, लेकिन हमने आपके बाबा तक खबर पहुंचा दी थी।

ठीक है, धन्यवाद धानी ने कहा,

और नाव में बैठ,चल पड़ी, अपने गांव की ओर__

धानी,इस बार हवेली गई, बिना किसी शंका और झिझक के, उसके मन की सारी उलझने जो सुलझ गई थी,वो

अब खुद को मुक्त महसूस कर रही थी।

उसने इंद्राणी की जांच की और कहा कि अब आपको मेरी जड़ी-बूटियों की जरूरत नहीं है,बस आप अब खान-पान का ख्याल रखिए,हल्का खाना खाए और हरी शाक-सब्जियां ज्यादा खाएं और सुबह-सुबह की ताज़ी हवा में टहले बस, क्योंकि सातवां महीना लग गया है,अब आपको अपना ज्यादा ख्याल रखना होगा।

और अब मैं चलतीं हूं, छोटी ठाकुराइन, धानी बोली।

आप मुझे छोटी ठाकुराइन क्यो कहती हैं, मैं तो आपसे छोटी हूं, इंद्राणी बोली।

एक बात कहूं धानी जी, पिछली बार आप आई थी तो आपके और छोटे ठाकुर के बीच की बातें मैंने सुन ली थीं,माफ कीजिए मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था लेकिन जब आपने मां और काकी के पहली बार मिलने पर पैर छुए थे तो मुझे थोड़ी शंका हुई कि शायद आप पहले से सबको जानती है और फिर छोटे ठाकुर उस दिन आपको घर में देखकर थोड़ा विचलित हो गये थे तो मुझे ये सब देखकर अच्छा नहीं लगा, फिर सबके सोने के बाद छोटे ठाकुर कमरे से बाहर आए तो मैं भी उनके पीछे-पीछे आई तो देखा वो आपके कमरे के पास रूक गए और आपके दरवाजे पर दस्तक दी और शायद आप दरवाजा नहीं खोलना चाहती थीं लेकिन बाद में आपने दरवाजा खोला वो अंदर गये तो मैं खुद को नहीं रोक पाई आपकी बातें सुनने से लेकिन आप लोगों की बातें सुनने के बाद मेंरे मन से सारी शंकाएं दूर हो गई।

धानी जी मेरा तो मायके मे कोई नहीं है,क्या आप मेरी बड़ी बहन बनेगी?

और इन्द्राणी की आंखों में आंसू आ गये तो धानी ने उसे गले लगा लिया और दोनों एक-दूसरे के गले लगकर रोई,

उनकी ये सब बातें दुर्गेश ने भी सुन ली और उन लोगों के पास जाकर इंद्राणी से बोला, मुझे माफ़ कर दो इन्दू , मैंने तुमसे बहुत कुछ छुपाया।

आप मुझसे माफ़ी ना मांगे छोटे ठाकुर,वो तो आपका अतीत था और जो होना था वो तो हो गया, इंद्राणी बोली।

फिर धानी बोली,अब मैं चलतीं हूं, बाबा की तबियत ठीक नहीं रहती, वो मेरा इन्तजार कर रहे होंगे।

धानी गांव पहुंची तो देखा, बाबा लेटे हैं

क्या हुआ बाबा? तबियत ठीक नहीं है, ऐसे क्यो लेटे हैं

पता नहीं बेटी,आज तबियत कुछ ज्यादा ही ख़राब लग रही है, जड़ी-बूटियां भी ली लेकिन आराम नहीं लगा, लगता है भगवान का बुलावा आ गया है।

ऐसा मत कहो बाबा, आपके सिवा मेरा कौन है, धानी बोली।

लेकिन बेटी बहुत ठंड लग रही है,

धानी ने बाबा के माथे को छुआ तो, बहुत गर्म था, उन्हें बहुत तेज बुखार था

बाबा, आपको मैं कुछ जड़ी-बूटियां देती हूं, शायद कुछ आराम लगे

नहीं, बेटा अब कोई भी दवा असर नहीं करेंगी,

इसी तरह दो हफ्ते गुज़र गए लेकिन बाबा की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ और एक दिन बाबा धानी को छोड़कर चले गए।

धानी खुद को बहुत अकेला महसूस कर रही थी, उसके जीने का बहाना जो चला गया था , बाबा की तेरहवीं में चित्रलेखा और दुर्गेश आए, धानी को दिलासा देकर चले गए लेकिन जिसके ऊपर बीतती है वहीं जानता है, इधर धानी अपने आपको सम्भालने की कोशिश कर रही थी, लेकिन अब भी उसका मन किसी काम में नहीं लगता था, वो ज्यादा मरीजों को भी नहीं देखती थी और ना खाना बनाती, कोई कुछ खिला देता तो उसे खाए ही दिनभर बनी रहती, अंदर से उसके जीने की इच्छा मर गई थी।

वो धीरे-धीरे अंदर से बीमार हो रही थी,उधर इंद्राणी का आठवां महीना खत्म होने को था लेकिन धानी जांच करने नहीं पहुंचीं थी।

चित्रलेखा ने दुर्गेश को भेजा धानी को लाने, दुर्गेश पहुंचा तो देखा कि धानी की हालत कुछ ज्यादा ठीक नहीं है लेकिन धानी ने कहा वो ठीक है और साथ में चलेगी इंद्राणी की जांच करने और वो चल पड़ी और फिर से वही नाविक मिला।

आइए दीदी बड़े दिनों बाद आई,नाविक बोला।

हां,तेरा नाम क्या है रे? धानी ने पूछा।

मेरा नाम श्याम है नाविक बोला।

ऐसे ही बातें करते-करते गांव आ गया, और धानी हवेली पहुंची, इंद्राणी की जांच की और कहा एक-दो दिन बाद नौवां महीना लगने वाला है अब खास ख्याल रखना होगा, धीरे-धीरे चला करो, कोई भी भारी काम नहीं करना है, अब मैं चलती हूं,इस बार मैं तीन-चार बार आऊंगी जांच करने और धानी वापस आ गई।

उधर इंद्राणी को नौवां महीना लग गया था, धानी हफ्ते में एक बार जरूर जांच करने आती,इसी तरह दो हफ्ते गुज़र गये उधर धानी की तबियत भी बहुत खराब थी बहुत तेज बुखार था उसे और हवेली भी जाना था लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी।

लेकिन एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसे किसी ने सोचा भी नहीं होगा, बारिश का मौसम था और बादल छाए थे।

शाम का समय था,इंद्राणी सीढ़ियों से गिर गई और उसे चोट आई और प्रसव-पीडा होने लगी,

चित्रलेखा ने तुरंत नाविक द्वारा धानी तक खबर पहुंचाई, नाविक ने खबर पहुंचाई ,शाम होने को थी धानी जैसे ही नदी किनारे पहुंची, वैसे ही बारिश होने लगी, नाविक ने कहा दीदी अभी नहीं जाते, बारिश आ गई है और आपकी तबियत भी ठीक नहीं है।

मेरा जाना बहुत जरूरी है, किसी को मेरी मदद की जरूरत है

लेकिन दीदी ऐसे मौसम में कैसे जाएगी? श्याम बोला

मैं जा रही हूं,तेरी छोटी वाली डोंगी दें दे, मैं खुद ही खेकर चली जाऊंगी

और धानी डोंगी लेकर चली गई, और उसने साथ में सारी जड़ी-बूटियां उस छोटे से बक्से में रख ली जो दुर्गेश ने दिया था।

और बारिश धीरे-धीरे तेज होने लगी, और हवा बहुत तेज थी, धानी डोंगी को खे नहीं पा रही थी ,आधी दूर से ज्यादा पार कर आईं थीं डोंगी में पानी भरने लगा, क्योंकि, बारिश बहुत तेज थी, धानी ने बक्से को साड़ी के पल्लू की मदद से कमर में बांधा और तैरकर जाने की सोची, और निकल पड़ी, उसकी हालत बहुत खराब थी, ऊपर से तबियत भी ठीक नहीं थी, वो तैर नहीं पा रही थी लेकिन उसने हार नहीं मानी, जैसे-तैसे वो अपनी मंजिल तक पहुंच गई, गिरते-पडते अंधेरे और भरी बरसात में हवेली पहुंची।

दरवाजा खटखटाया और दरवाजा खुलते ही अंदर आकर गिर पड़ी, जानकी ने तुरंत चित्रलेखा को आवाज लगाई, चित्रलेखा के आते ही धानी ने कहा, मेरी कमर जो बक्सा है, उसमें कुछ जड़ी-बूटियां है, उन्हें निकाल कर खिला दें और कुछ पेट में मल दें छोटी ठाकुराइन को आराम लग जाएगा।

पहले तुम अपने कपड़े बदल लो, तुम्हारी तबियत भी ठीक नहीं लग रही है, चित्रलेखा बोली।

आप मेरी चिन्ता ना करें,मरीज का ख्याल रखना बहुत जरूरी है, धानी बोली चित्रलेखा ने वहीं किया,जैसा धानी ने कहा,जानकी ने सहारा देकर जैसे ही धानी को बिस्तर में लिटाया, धानी हिचकियां लेने लगी, इतने में दुर्गेश धानी के पास आया, धानी की ऐसी हालत देखकर रोने लगा, धानी बात भी नहीं कर पा रही थी, उसे सांस लेने में बहुत परेशानी हो रही थी।उधर इंद्राणी को धानी की जड़ी बूटियों से आराम लग गया और प्रसव-पीडा कम हो गई और प्रसव आसानी से हो गया।इतने में चित्रलेखा ख़बर लेकर आई कि बेटी हुई है और धानी ने ये खबर सुनकर अपनी आंखें मूंद ली और हमेशा के लिए सो गई ।।



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