तुम्हारा इकरार बहुत प्यारा था
तुम्हारा इकरार बहुत प्यारा था
आज फिर आ गई थी मीता उस पेड़ के नीचे, जहां वह आती थी घूमने अपने प्रेम के साथ और उसके नीचे बैठकर वह कितनी कितनी बातें उसके साथ करती थी।सच तो यह था कि वह संस्कारवश कभी कह ना पाई प्रेम से, पर बचपन की दोस्ती में मिलते-जुलते, घूमते-खेलते वह चाहने लगी थी उसे। पर अब वह उसके प्रेम को शिद्दत से महसूश करने लगी थी लेकिन अपने जज़्बातों को किसी के साथ बांट नहीं पा रही थी।यहां तक कि प्रेम से भी नहीं।
यह उसका नित्यक्रम हो गया था।शाम को सारे काम से निवृत्त होकर जामुन के पेड़ के नीचे आकर बैठ जाती , उसी को उसने जैसे अपना साथी बना लिया था।जो गांव से बाहर आम के बगीचे में लगा हुआ था। रोज बैठती अपनी यादों को याद करती और फिर, फिर यहां बैठकर मानो प्रेम का सान्निध्य प्राप्त कर लेती।
दरअसल प्रेम उसका बचपन का साथी था। दोनों के परिवारों में बहुत बनती थी। मीता के पिताजी और प्रेम के पिताजी आपस में गहरे दोस्त थे। दोनों की मातायें भी एक गांव की थीं।परिवार का आपस में मेलजोल ने उनके रिश्ते को धीरे-धीरे प्रगाढ़ कर दिया।
जैसे जैसे बच्चे बड़े होते गए, दोनों के लगाव व साथ को देख कर दोनों परिवारों ने उनका रिश्ता पक्का करने की सोच ली और छह महीने पहले ही दोस्ती को रिश्तेदारी में बदलने का निश्चय किया।
जबसे मीता और प्रेम को इस बात का पता लगा, दोनों की भावनाएं व व्यवहार में बदलाव आ गया।
ऐसा क्यों हुआ उन्हें खुद अहसास न हुआ।जब भी प्रेम छुट्टियों में आता, मीता के घर भी आता, सभी मिलते , बातें करतें पर लज्जावश मीता उससे बात ना कर पाती, बस छिप-छिप कर देखती।जब प्रेम चला जाता तो फिर आने का इंतजार करती।
बारहवीं के बाद प्रेम अपनी आगे की पढ़ाई के लिए शहर चला गया था और मीता गांव में रहकर प्राइवेट पढ़ाई करने लगी क्योंकि गांव में आगे पढ़ाई की व्यवस्था नहीं थी और शहर काफी दूर था।
प्रेम भी संकोचवश सबके सामने उससे बात ना कर पाता।हर बार सोचकर आता कि अपने दिल की बात कहेगा पर हाय री किस्मत! मौका ही ना मिल पाता, मीता की शर्म आड़े आ जाती और फिर प्रेम निराश हो अगली बार ना आने की सोचता।
कभी खुद पर तो कभी मीता पर झुंझलाता और अबकी बार फिर उसने ना आने का निश्चय किया कि अबकी वह गांव ही नहीं जायेगा, सारा ध्यान पढ़ाई में लगायेगा।क्या फायदा कितने अरमान लेकर वह जाता है पर मीता वह जैसे मिलना ही नहीं चाहती पता नहीं वह प्यार भी करती है या नहीं कहीं ऐसा तो नहीं उसने ही गलत समझ लिया हो और मां बाप की मर्जी के कारण ही शादी की बात हुई हो बहुत सारी शंकाएं उसके मन में सिर उठाने लगीं।
पर शादी की बात से पहले तक तो सब ठीक था, वह मन ही मन तर्क वितर्क करता
शायद वो सिर्फ अच्छा दोस्त मानती हो पर अगर ऐसा था तो वह मुझे तो बता सकती थी
फिर उसका दिल कहता, नहीं , यह सच नहीं, वह जरूर उससे प्यार करती है, बस अब रिश्ता बदल गया है तो शरमाने लगी है ।
घर उसने पढ़ाई की बाबत रूकने की बात कहकर पत्र लिख दिया।जब मीता को जब ये पता लगा तो उसे झटका सा लगा।पिछले तीन साल में यह पहली बार था जब वह छुट्टियों में गांव नहीं आ रहा था और अब वह उसकी याद में यहां आकर बैठ जाती है।उसे अपने ऊपर गुस्सा भी आता है।सत्य तो यह है कि वह अपने-आप से ही लड़ रही है।वह आये ही क्यों और वह क्यों चाहती है कि वह आये
जब से रिश्ते की बात हुई उसने तो उससे बात करना मिलना ही बन्द कर रखा है।उसकी आंखों में आंसू भर आये।ऐसा क्यों हो रहा है उसके साथ
आज फिर वह वहां बैठी है। यहां आते हुये पूरे बीस दिन हो गये हैं।वह आंखें बंद किये प्रेम की याद में डूबी है।वह बुदबुदाने लगी।
प्रेम तुम क्यों नहीं आये??
क्यों आता??
मुझसे मिलने ।
तुमसे मिलने क्यों आता ?
क्यों, क्या तुम्हें मुझसे प्यार नहीं ?
मुझे तो है, पर तुम्हें तो नहीं ?
नहीं ये सच नहीं प्रेम।
तो सच क्या है ?
मैं तुमसे बहुत बहुत प्रेम करती हूं।
ऐसा क्या , फिर कभी कहा क्यों नहीं ?
तुमने देखा नहीं ?
क्या प्रेम देखने की चीज है ?
तुम मुझे देखते तो सुन जाता, तुमने ध्यान से सुना ही नहीं।
सच में ऐसा क्या
बिल्कुल सच कहा नहीं तो क्या , तुम्हें समझना चाहिए था ना।उसकी आंखों से आंसू निकलकर कपोलों को भिगोने लगे।
अभी बात और आगे बढ़ती कि किसी ने मीता को झकझोर दिया।
मीता दीदी , मीता दीदी उठो , घर पर बुलाया है।
हड़बड़ा कर मीता उठ खड़ी हुई और आंखें फ़ाड़-फ़ाड़ कर यहां वहां देखने लगी।कोई नहीं था, वहां वह बन्द आंखों से सपना देख रही थी।
छोटे भाई के साथ वह पागलों सी घर की ओर जा रही थी।
घर पर प्रेम के माता-पिता आये हुये थे और सगाई की तिथि तय करदी गई थी।वह चाय बनाने के लिए रसोई में गई।वैसे तो खुशी की खबर थी पर प्रेम का ना होना उसे विरह की पीड़ा से जला रहा था।क्या सच में प्रेम रूलाता है ।
तभी उसे पीछे से बांहों में जकड़ लिया गया।अभी वह कुछ समझ पाती, पीछे से प्रेम आगे आ गया।
मीता की सांसें मानो धड़कना भूल गईं।
"सच में तुम हो???"
वह जैसे स्वप्नावस्था में थी।अभी जो बगीचे में गुजरा था उसके साथ, उसके बाद वह संभल नहीं पाई थी।
प्रेम ने उसके मस्तक को चूमा।
"हां मैं ही हूं
मीता की आंखों से खुशी के आंसू छलक प्रेम की शर्ट पर ढलक गये।और बगीचे में
वहां भी मैं ही था ।
तभी तो मुझमें तुम्हें छूने की हिम्मत आई।
"तुम्हारा इकराऱ , बहुत प्यारा था मीता।"
शरारत प्रेम की आंखों में थी। मीता की आंखें ख़ुशी के आंसुओं से भीग गईं और वह प्रेम की शरारत पर शर्मा कर अन्दर भाग गई।