"स्वतंत्रता"
"स्वतंत्रता"


दो दिन बाद दिव्यांशु के स्कूल में 74 वां स्वतंत्रता दिवस मनाया जाना था और वह चाहता था कि वह उस में पार्टिसिपेट करे क्योंकि बोलने में उसकी रुचि थी तो उसने अपनी मां से इस विषय में तैयारी करवाने के लिए कहा।उसकी मां भी एक अध्यापिका थी और बुद्धिजीवी थीं।उन्होंने उसको कुछ अलग हटकर विचारात्मक लेख लिखने के लिए प्रेरित किया और कुछ पुस्तकों और व्यावहारिक सोच की मदद से उसको एक सुंदर लेख तैयार कराया।
मंच पर आते ही दिव्यांशु ने मुख्य अतिथि का अभिवादन किया और सभी सम्माननीय अतिथियों और गुरुजनों को प्रणाम किया और उसके बाद अपने विचार व्यक्त करने के लिए अनुमति मांगी। दिव्यांशु ने अपने विचार रखने प्रारंभ किए।
सर्वप्रथम मैं सभी देशवासियों को भारत के 74वें स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई देता हूं और यह कामना करता हूं कि हमारे देश की यह स्वतंत्रता अनवरत बनी रहे।मैं चाहता हूं कि हम शारीरिक रूप से ही स्वतंत्र ना रहे बल्कि अपनी मानसिक गुलामी,आत्महीनता की स्थिति से भी स्वतंत्र हो जाएं।मेरे विचार स्वतंत्रता के विषय में कुछ हटकर हैं। यह मैं अपनी बात प्रारंभ करने से पहले कहना चाहता हूं।वास्तव में स्वतंत्रता का मतलब है। स्व एवं तन्त्र यानी स्वयं के तंत्र का बन्धन से मुक्त होना लेकिन अगर हम पूरी तरह से मुक्त हो जाते हैं सभी प्रकार के बंधनों से तो इसका मतलब स्वच्छंदता हो जाता है लेकिन स्वच्छंदता हानिकारक होती है।इसीलिए स्वतंत्रता का मतलब होगा कानून से बंधी हुई एक सीमा में अपने आप को पूर्ण रूप से विकसित करने की क्षमता। आजादी का वास्तविक अर्थ यही है।
आजादी पर जब भी चर्चा होती है या चिंतन मनन होता है। तब बात सिर्फ 200 300 साल पुराने समय से आरंभ होती है।
क्या हम सिर्फ अंग्रेजों से आजाद हुए..?
क्या अंग्रेजों ने ही हमें गुलाम बनाया था...?
उससे पहले क्या हम स्वतंत्र थे..?
क्या हमें हर तरह के हक थे..?
क्या हम खुली हवा में सांस ले रहे थे..?
क्या हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता थी..?
क्या हमें अपनी सभ्यता संस्कृति और धर्म के प्रति आस्था रखने की छूट थी.?
अगर यह सब नहीं हासिल था हमें तो हम स्वतंत्र कैसे थे, आजाद कैसे थे.... .?
तो इस भ्रम को जनता के दिलो-दिमाग में बनाये रखा गया कि हमें अंग्रेजों ने गुलाम बनाया उससे पहले सब ठीक ठाक था।इसका सबसे बड़ा कारण बाबर का आकर बसना और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी शासन और यह भ्रम कि वह तो इसी देश के पैदा हुये हैं।
यह ठीक है कि जिस समय स्वतन्त्रता आन्दोलन शुरू हुआ, उस समय हम अंग्रेजों के अधीन थे,हम उनकी दासता में थे, उनकी गुलामी में थे लेकिन उससे पहले भी हम गुलाम ही थे और वह गुलामी थी मुगलों का शासन।एक विदेशी आक्रांता बाबर का भारत पर आक्रमण और फिर यहां के वैभव को भोगने की लिप्सा ने उसे यहां रोक लिया।
, बाबर उज्बेकिस्तान में पैदा हुआ था और पांच बार उसने समरकंद पर आक्रमण किया जिसमें 3 बार ने कब्जा भी किया लेकिन जीत नहीं पाया और इसी हार को जीत में बदलने के लिए यहीं पर बस गया। ठीक-ठीक वास्तविकता तो नहीं पता पर कहा जाता है की बाबर को राणा सांगा ने इब्राहिम लोदी से लोहा लेने के लिए बुलाया था और कुछ धन लेकर उसे वापस चले जाना था।दूसरा बड़ा कारण भारत की अकूत धनसंपदा थी।
30 अप्रैल1526 में पानीपत के मैदान में उसने इब्राहिम लोदी को हराया और खुद दिल्ली के सिंहासन पर बैठ गयाऔर पानीपत में पहली मस्जिद बनबाई। 1527 में राणा सांगा के साथ खंडवा में उसका युद्ध हुआ क्योंकि वह वायदे के मुताबिक वापस नहीं गया था और चंदेली के मैदान में 1528 में अफगानों के साथ युद्ध हुआ।
वास्तविकता तो यह है अधिकांश मुस्लिमों ने आजादी की लड़ाई में हिंदुओं का साथ दिया तो उसका एक सबसे बड़ा कारण यही था कि वह अपने को सत्ताधारी मानते थे और वह मानते थे कि उनका राज चला गया है और जिसको उन्हें वापस पाना है और उनकी सोच ने उन्हें हिंदुओं के थोड़ा सा करीब कर दिया। वैसे भी सैकड़ों सालों के साथ ने या कुछ हद तक हिन्दू से मुस्लिम बनी जनता ने आजिज होकर इस आन्दोलन में भाग लिया। हिंदुओं को भी यह बात पता थी और यह एक मौका था जब वह मुसलमानों के सहयोग से स्वयं को आजाद करा सकते थे।
इस बात का आभास अंग्रेजों को भी हो गया था,तभी उन्होंने दोनों से पृथक पृथक बातें की और दोनों को बांटने की हर संभव कोशिश की ताकि वह इस देश में जमे रहें।सभी ने ये इतिहास पढा है पर आधा-अधूरा पढ़ा है। लेकिन जब भी बात चलती है सिर्फ अंग्रेजी शासन की उनकी क्रूरता की तो हम भूल जाते हैं उससे पीछे झांकना।उससे पहले क्रूरता की चरम सीमा हमने कब देखी,कितनी देखी इसके बारे में सभी मौन हैं क्यों..?
क्या मुगलों की बर्बरता जायज थी, क्या दूसरे देश पर आकर उस पर अपना शासन स्थापित करना सही था.?
क्या दूसरे के धर्म पर आघात करना और अपने धर्म को उनपर जबरन लादना क्या नैतिक और सामाजिक दृष्टि से ठीक था..? अगर नहीं तो,क्या फिर हम गुलाम नहीं थे..?
अगर कोई कहता है कि मुगलों ने भी हिंदुओं को सम्मान दिया तो कहां दिया, कब दिया, कितना दिया और क्यों दिया या देने का दिखावा किया..?
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सिर्फ अपनी सत्ता के केंद्र बिंदु को बनाए रखने के लिए, जहां-जहां उन्हें जरूरी लगा,वहां वहां उन्होंने कुछ हिंदू राजाओं को किसी को भय से किसी को छल से,किसी को लोभ-लालच हर तरह के उपयोग से अपने पाले में ले जाने की कोशिश की। और कुछ मजबूरी बस तो कुछ लोग बस अपनी प्रजा की भलाई के लिए और भी अनंत कई कारणों से उनका सहयोग करते रहे।यह तो अंग्रेजों के टाइम में भी हुआ। अंग्रेजों ने भी भारतीय जनता को काबू में करने के लिए बहुत से राजाओं और अमीरों को उपाधियां दी ताकि वह उनके साथ मित्रवत व्यवहार रखकर सारे भारत पर अपनी हुकूमत का रखें।
वास्तव में यह कोई सम्मान नहीं था चाहे वह मुगलों ने बख्शा और चाहे अंग्रेजों ने।यह उनकी जरूरत थी अपनी हुकूमत को कायम रखने की।मुगलों के राज में बहुतायत से हिंदू मुसलमान बन गए, डर से, भय से, गरीबी से बचने को या अपनी इज्जत सम्मान बचाने को।लेकिन हमें ऐसा अंग्रेजों के राज में देखने को कब मिला...?
बल्कि आजाद भारत में ऐसा कुछ ज्यादा दिखा।
मुगलों और अंग्रेजों में एक बहुत बड़ा फर्क था।जहां मुगलों ने तलवारों की नोक पर धर्म परिवर्तन करवाये थे वहीं अंग्रेजों ने लोगों को लोभलालच देकर लेकिन लक्ष्य दोनों का एक ही था- अपने अपने धर्म को सभी पर थोपना।अपने धर्म का प्रचार प्रसार बाकियों को कुचल देना।
आज मुगल भी गए और अंग्रेज भी लेकिन उनकी कुछ तथाकथित औलादें अभी भी जिंदा है और उन्होंने आजाद भारत में भी कुछ ऐसा बातावरण बना दिया, जहां मुगल भी सामाजिक एकता के पैगाम देते सरीखे लगते हैं महानता के मूर्ति दिखाई देते हैं और कुछ ने अंग्रेजों के कुछ सुधार कार्यक्रम को विकास माडल बताकर उन्हें भी भारत के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाला बता दिया।वे भूल जाते हैं देश में कुछ अच्छा किया तो वह भारत की भलाई के लिए नहीं किया था। अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए,भोली भाली जनता को भरमाने के लिए और अपनी सत्ता को अच्छे तरीके से चलाने के लिए। अगर उन्होंने सड़के बनवाई तो इसलिए के जहां कहीं भी विद्रोह हो वह आसानी से पहुंच सकें।अगर उन्होंने कुछ शिक्षा नीति बनाई इसलिए कि उन्हें कामकाज के लिए क्लर्क बगैरह मिल सकें अब अपने सभी काम सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने देश की आबादी तो यहां ला नहीं सकते थे।हो सकता है इन चीजों से थोड़ा बहुत जनता को फायदा भी मिला हो लेकिन उनका लक्ष्य यह नहीं था।इसी प्रकार मुगलों ने भी अपने शासन के दौरान अगर कोई अच्छा काम किया तो इसलिए नहीं कि वह हमारा भला चाहते थे बल्कि इसलिए कि जनता को भरमाया जा सके।स्वयं को महान घोषित किया जा सके।
आज हम कुछ हद तक आजाद तो हो चुके हैं लेकिन मन अभी भी हमारा गुलामी से भरा पड़ा है।अंग्रेजी भाषा,अंग्रेजी रहन-सहन या फिर हिंदू मुस्लिम भाई भाई इस तरह की सोच क्या वास्तव में देश की उन्नति में योगदान दे रही है।
यह सोचनीय है जिस तरह की मानसिकता और उग्र विचार देश में जगह-जगह समय-समय पर फैलाये जाते हैं और जिनकी बजह से देश पहले ही तीन टुकड़ों में बंट चुका है, क्या वह एकता के प्रतीक हैं।
आजादी कोई एक वस्तु नहीं थी जो किसी ने दी और हम ने ले ली।यह हमसे छीना गया हमारा सम्मान था,मान था जो हमें किसी भी कीमत पर वापस चाहिए था,चाहे इसके लिए प्राणों की बलि देनी पड़े चाहे इसके लिए किसी भी तरह के कर्म अकर्म करने पड़ें।कहते हैं कि जब किसी चीज की अति हो जाती है तो परिणाम भयंकर होते हैं और हम हिंदुस्तानियों पर भी हुये अत्याचारों की अति से भी ज्यादा अति हो चुकी पिछले 400- 500 सालों में हो चुकी थी और जनता अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी और किसी भी कीमत पर आजादी चाहती थी।
गीता में भी कहा गया है कि आप धर्म के लिये कर्म कीजिए अच्छे लक्ष्य के लिए किसी भी तरह के हथियार का सहारा लिया जा सकता है सिर्फ लक्ष्य प्राप्ति होनी चाहिए।
आज हमें आजादी चाहिए भ्रष्टाचार से गरीबी से सांप्रदायिकता से और महिलाओं को आजादी चाहिए खौफ से। जिस दिन यह आजादी पूर्ण हो जाएगी तभी हम अपने आप को वास्तविक अर्थों में आजाद कह पाएंगे।इसी के साथ मैं अपनी बात को विराम देना चाहता हूं और उम्मीद करता हूं कि जो बातें मैंने कहीं वह सभी के लिए विचारणीय होंगी।अगर इनमें कुछ विचार या बात किसी को अनुचित लगी हो तो उसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूं। धन्यवाद।
भारत माता की जय। जय हिंद।
जैसे ही दिव्यांशु ने अपना भाषण समाप्त किया। सारा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। इस तरह का नया और अनोखा भाषण आजादी के बारे में आज तक किसी भी बच्चे के द्वारा नहीं दिया गया था।वही रटीरटाई कुछ पंक्तियां, कुछ बातें शहीदों के योगदान की, चर्चा आजादी के बाद हुये कार्यो की बस...। मुख्य अतिथि महोदय ने उठकर दिव्यांशु की पीठ थपथपाई और सभी ने उसकी भाषण की तारीफ की।
इस भाषण की तैयारी ने दिव्यांशु में भी एक नया मानसिक वैचारिक दृष्टिकोण पैदा किया और सुनने वालों को भी एक नई दृष्टि से देखने के लिए मिली हो।अगले दिन अखबारों में दिव्यांशु के इस भाषण की तारीफ छपी हुई थी और इधर उसे पढकर दिव्यांशु अपनी मां के चरण स्पर्श कर उन्हें इतने अच्छे भाषण लिखने के लिए प्रेरित करने के लिए धन्यवाद कर रहा था।