तसल्ली
तसल्ली
पटना के पौष एरिया का शांति सदन; जहाँ कल रात से ही अशांति का साम्राज्य व्याप्त था।सिन्हा परिवार पर दुखों का पहाड़ टूटा था।
पूरा मुहल्ला भी दुख के सुनामी में डूबा था।कल रात से किसी के घर में चूल्हा नहीं जला था।
क्या बच्चे क्या बड़ेसभी ग़म में डूबे।
“पता नहीं क्या हो गया है ?”आज कल के बच्चों को”
बड़ा ही हँसमुख और होन हार था।
तीन बहनों के बाद हुआ था नकुछ ज़्यादा ही लाड़ प्यार मिला इसलिए।
इतने कम उम्र में शोहरत ,पैसा संभाल नहीं सका।
सभी स्तब्ध और सवालों से जूझते।
बच्चों का आइडल ,जिसके जैसा बनने के लिए बच्चे सपने देखते थे। आज वह।
कम से कम कुछ बोलता ,अपने अंतर्मन में हो रहे हलचल को अंदर ही अंदर दबाने के बजाय परिवार वालों से साँझा करता।हर बात डायरी में लिखने वाला क्यों नहीं कुछ लिखा।कम से कम आज एक नोट छोड़ जाता।तो दिल को तसल्ली होती करोड़ों चाहने वाले हज़ारों अनसुलझे सवालों के भँवर में फँसे।
बूढ़ी माँ को तो विश्वास ही नहीं हो पा रहा थाबार- बार सबसे कह रही थी मेरी तसल्ली के लिए एक बार मेरे मुन्ने को दिखा दो।
मुन्ने की माँ अब बुत बनी “ज़िंदा लाश सी सबसे पूछती ,जूझती रोज़ हर रोज़।”
“क्या फाँसी ही एकमात्र हल था। इतनी क़ीमती ज़िन्दगी का ?”