तकलीफ
तकलीफ
अस्पताल के बाहर चप्पलों का ढेर देख समझ गयी, "आज बहुत ज्यादा भीड़ है, पता नहीं मेरा नंबर कब आयेगा। ये रोज रोज की परेशानी, ना जाने और कब तक अस्पताल के चक्कर काटने होंगे।"
सोचते सोचते बरामदे तक पहुंच गयी। वाकई भीतर बहुत ज्यादा ही भीड़ थी। किंतु वे सब डाक्टर से बिमारी की जाँच कर, दवाइयाँ लेने कतार से बैठे थे।
जब कि मैं , कुछ और ही तकलीफ चक्करें काट रही थी।
सब को बाजू कर, डाक्टर साहब ,
"चलो" मुझे कहते हुये उस कमरे में ले गये, जहाँ एक्यू प्रेशर की मशीन लगाई जाती थी।
पिछले दस दिन से, कमर, कुल्हे और पाँव मे सूई चुभोकर, करंट लेने की वजह से, मैं अपने दर्द को ही बड़ा समझने लगी थी। तब तक, जब तक बाजू के बिस्तर पर, किडनी स्टोन का आपरेशन करवा चुकी मरीज ना देखी।
"आँ.." बिस्तर पर लेटते हुए वह,
"धीरे बेटा, धीरे, संभलकर, आपरेशन की बाजू से ना लेटो, तकलीफ होगी।" शायद वह उसकी माँ थी।
"हाथ को अच्छे से दबाओ।" डाक्टर बाजू खड़ी सिस्टर से कहने लगे।
"आँ। बहुत तकलीफ हो रही है। ..... उ माँ.." एक जोर की चीख के साथ, हाथ की नस से रक्त बहने लगा।
और मेरी तो रूह डर से सिकुड़ कर,
"उफ, कितनी तकलीफदेह होती है, यह बदन की तकलीफें ,ना सही जाती है, ना दबायी जाती है। तकलीफ चाहे कोई भी हो, किसी भी हिस्से की हो, तकलीफ आखिर तकलीफ ही होती है।