प्यार का बसंत।

प्यार का बसंत।

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भई बसंत तो बसंत होता है। पहला क्या और दूसरा क्या। किंतु प्यार में तो हर बसंत, नया और पहला ही लगता है।

"पतझड सावन, बसंत बहार

एक बरस के मौसम चार

मौसम चार

मौसम चार

पांचवां मौसम प्यार का इंतजार का।"

किसी फिल्म का ये गाना भी क्या खूब कहता है।

सच में जो युगल प्रेम रस में डूबे होते है, उनकी अपनी अलग ही दुनिया। उनका अपना अलग ही मौसम होता है। ना सर्दी का ग़म, ना गर्मी से तंग ना बारिश से तकरार।। बस हर वक्त बसंत ही बसंत।

गुलाबी ठण्ड पूरी तरह से खत्म भी ना हुई और गर्मी का तो दूर दूर तक अता पता भी नही, ऐसे दिल को ललचाने वाले पतझड के मौसम में , सजन सजनी का हाथों में हाथ, दिल से दिल का मेल वाकई प्रेमी युगल को धरती पर ही जन्नत मिली हो।

आंगन की बगीया में, फूलों से झुलती बेले, गुलाब की घमघमाती खुशबू मानो जैसे धरती पर कायनात उतर आइ हो।

परंतु, प्रकृति के इस रुहानी सुंदरता को कौन देख पाता है।

फूलों की महकी महकी खुशखू को कौन महसूस कर पाता है।

ठंडी ठंडी हवा के झोकों की पाँव से लेकर सर तक दौडती सिरहन से कौन सिहर उठता है।

इन सब का एक ही जवाब होगा, जो सारी दुनिया को भुलाकर प्रेम रस में डूब चुका हो, वही प्रकृति के इस मंजर को देख, समझ, और महसूस कर पायेगा।

जैसे सावन के अंधे को, चारों ओर हरियाली ही हरियाली नजर आती है, वैसे ही कुदरत के इस प्यार के अजूबे में खोये हुये प्रेमी को ही पतझड़ हो या सावन, बहार ही बहार, बसंत ही बसंत नजर आयेगा।

बसंत रुत का नज़ारा महज आँखो से देखने भर की चीज़ नही। तो उसे दिल की गहराई से अनुभूति, महसूस करना पड़ता है। और इसके लिये दिल में दिमाग में प्यार बसा होना चाहिये।

प्यार जो मुकम्मल करता है जीवन को।

प्यार जो मुकम्मल करता है सादगी को।

प्यार जो मुकम्मल करता है रुह को।

प्यार जो मुकम्मल करता है, हमारे इंसानियत को।

प्यार जो मुकम्मल करता है, धरा और गगन के मेल को।

ना जाने प्यार के कितने रूप है, और कितने मौसम में इसके रूप खिलते है।

शिशू के नन्हे नन्हे कपोल को चुमते माँ के थरथराते होंठ और डबडबायी आँखें, माँ और शिशू के पहले प्यार के पहले बसंत का रूप। भला कौन इनकार कर सकता है, प्यार के इस पहले बसंत से।



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