वो बरसात
वो बरसात
आज कल जब सुधा खिड़की से बाहर झाँक कर, तेज़ बारिश का पानी गिरता देखती है, तो वह बहुत डर जाती है।
भीतर ही भीतर उसकी रुह कांप जाती है, जब उसे याद आता है वह वाक़या,जब पूरा गाँव, इसी मौसम में पानी में डूबा था।
उस साल काफी सूखा पड़ा था। धुप काले में चारों ओर पानी की कमी से हा हाकार मचा था। खेत में फसल तो क्या, पेड़ो में एक हरी पत्ती भी दिखाई नहीं देती थी। सब आँखों में जान सिकोड़े, उपर गगन की ओर देख दिन बिता रहे थे।
और जुलाई के महीने में पलक झपकते सब कुछ पलटकर रख दिया, २५ जुलाई का वो दिन था।
"आज मत जाइए काम पर, इस बारिश ने तो मेरा जी डरा दिया है।" अपने पति से कहते हुये, विनती करने लगी, पर "पगली है तू, हम गरीबों के लिये धूप क्या और बारिश क्या? भूल गयी, सूखे में इस कंपनी के काम ने हमे दो वक्त का निवाला मिल सके इसलिये रोजी रोटी दी।" कहकर चला गया।
सुधा काफी बेचैन हो रही थी। दोपहर के समय, "अरे भागो। भागो। देखो। कंपनी की दिवार ढह गयी।" गाँव मे हो हल्ला उठा। सुधा भी नंगे पाँव दौड़ते हुये कंपनी तक पहुंची.. तो उसने देखा, उसका पति माथे पर सफेद पट्टी बांधे, साथियों को सहारा दे बाहर निकाल रहा था।