एक दिन फुरसत की जिंदगी
एक दिन फुरसत की जिंदगी
"एक दिन, फुरसत की जींदगी।"
"क्या हुवा?क्यो सुबह सुबह माथे पर सिकंज भिंचे हुये चिल्ला रहे है ?"
सुधाकर बाबू की पत्नी रसोइ मे सब्बी बघारते हुये चिल्लाई, तो सुधाकरबाबू हात मे धरा फोन सोफे पर फेकते हुये,
"हद हो गयी यार, मैं तंग आ चुका हूँ। इस मोबाइल फोन ने तो ना रात को रात रहने दिया और ना छुट्टी के दिन छुट्टी। बड़े साहब कभी फोन करेंगे, तो कभी वाट्सप पे पत्र डाल काम को पिछे लगा देते है।"
"तो दिक्कत क्या है ?" पत्नी के पुछने पर क्या जवाब दे, सुधाकर बाबू को कुछ भी ना सुझा और वह शांत हो गये।
कुछ वक्त सुधाकरजीकी पत्नी रसोइ मे अपने कामो मे वस्त हो गयी और सुधाकरजी वही सोफे पर बैठे कुछ सोचने लगे। घर में तो जैसे सन्नाटा छा गया। बस रसोई में बर्तन और चुड़ियों की जो आवाज हो रही थी, वही सुनाई दे रही थी।
कुछ वक्त वैसे ही बिता। अपने कामोंको निपटाकर सुधाकरजीकी पत्नी पल्लू सवाँरते हुये उनके पास आ बैठी।
"क्या सोच रहे है ?" पति के हात को हिलाते पुछा।
"मैंने तय कर लिया है। आजसे छुट्टी के दिन मतलब हप्ते मे एक दिन मोबाइल फोन स्वीच आँफ करके रखूंगा। अरे यार, एक दिन, फुरसत की जिंदगी जीने को मिले।"
और दोनों एक दूजे की तरफ देख कर मुस्कराने लगे।