तिष्यरक्षिता
तिष्यरक्षिता
जाना तो अवश्यमभावी है,चाहे चर हो या अचर।एक स्थान खाली होता है तो अगला उस स्थान को ग्रहण करता ही है । कई राजवंश आए कई गए । उनके जाने और पतन के भी कई कारक पहले से ही तैयार होते हैं।
आज बात करते हैं एक ऐसे राजवंश की जिसका साम्राज्य उत्तर से हिमालय गांधार से लेकर मध्य उज्जयिनी,विदर्भ ,दक्षिण , पूर्व,पश्चिम तक फैला था।कालांतर में कुछ ऐसे घटनाक्रम घटित होते हैं जो साम्राज्य विस्तार की लिप्सा युक्त एक हिंसक सम्राट को अंत में एक अहिंसक न्यायप्रिय ,और प्रियदर्शी के रूप में रूपांतरित कर देता है।
सम्राट अशोक और मगध इतिहास से कौन नहीं परिचित है?
मगध साम्राज्य में नंद वंश के समूल विनाश के बाद चाणक्य के निर्देशन में चंद्रगुप्त मौर्य ने राजगद्दी संभाली और मौर्य साम्राज्य का जन्म हुआ, उसके बाद उसके पुत्र बिम्बिसार और फिर अपने भाइयों की हत्या कर इस राजसिंहासन पर आसीन हुआ अशोक।
सम्राट अशोक ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया ,लेकिन बाद में उसने बौद्ध धर्म को अपना कर प्रजा और अपने जीवन को अहिंसा की ओर प्रेरित किया।
लेकिन ऐसा क्या कारण था कि उसके बाद उसके उत्तराधिकारी अयोग्य हुए ,मौर्य साम्राज्य को संभाल नहीं पाए और शीघ्र ही उस साम्राज्य का पतन हो गया।
कहते हैं स्त्री किसी पुरुष के सफल होने का कारण भी है तो पतन का भी।
आइए कहानी की मुख्य पात्र के बारे में जानते हैं ,एक ऐसी साम्रज्ञी जिसके बारे में इतिहास ने कुछ ज्यादा तो नहीं लिखा है लेकिन उसी ने इस वंश के पतन की इबारत लिख दी,साम्राज्य पतन में बहुत बड़ी भूमिका रही इस महारानी की।इसने ही बोधि वृक्ष को क्रोध में आकर कटवा दिया था,लेकिन सौभाग्यववश यह सूखा नहीं।
वो रानी थी पट्टमहिषी थी,अच्छी परिचारिका थी लेकिन इतिहास की सबसे खलनायिका, क्रूर रानियों में से भी एक थी।
परिचारिका से रानी बनने का सफर जितना ही रोमांचक था उतना ही उसका रहस्यमई व्यक्तित्व ।
वो मगध सम्राट अशोक की सबसे जवान रानी थी।यूं तो रनिवास में हर वय की रानियां थीं लेकिन उन सबमें तिष्यरक्षिता अनुपम सुंदरी थी। सम्राट अशोक की पटरानियों में_ देवी,कौरवकी, असंधिमित्रा,पद्मिनी,और वो स्वयं थी। तिष्यरक्षिता...... कोई राजपुत्री राजपरिवार ,श्रेष्ठि वर्ग से नहीं ताल्लुक रखती थी वो एक गरीब अनाथ साधारण सी लड़की थी उसे उसकी बाल्यावस्था से ही ताम्रपर्णी श्रीलंका के राजपरिवार में रानी की सेवा में रख दिया गया था।
एक बार राजा तिष्य अपनी राजमहिषी के साथ बगीचे में टहल रहे थे।रानी के साथ परिचारिकाएं उनका अनुगमन कर रही थीं।अचानक राजा चीखे ,एक काला नाग झुरमुट से निकल राजा को डस कर उन्ही झाड़ियों में कहीं घुस गया।ये इतनी तेज़ी से हुआ कि किसी को कुछ समझ में नहीं आया।
चारो ओर हड़कंप मच गया।सैनिक उस भुजंग
को खोजने लगे , चीख पुकार मच गई ,सारी मर्यादाओं को लांघ कर वो परिचारिका राजा की जान बचाने आगे आई ,और अपने ज्ञान से मुंह लगाकर सारा विष निकाल दिया,राजा की जान बच गई लेकिन वो मूर्छित हो गई। राजवैद्यों ने त्वरित चिकित्सा कर उसे बचा लिया। उस दिन के बाद उस परिचारिका का नाम तिश्यरक्षिता हो गया अर्थात राजा तिश्य की रक्षा करने वाली।उसके बाद वो राजपरिवार की सबसे विश्वस्त और अमूल्य निधि बन गई।
बौद्ध धर्म की दीक्षा के बाद सम्राट अशोक ने दुनिया में इसके प्रचार प्रसार के लिए अपने पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा को भेजा ।महारानी देवी की संतान महेंद्र और संघमित्रा को राजकाज में कोई दिलचस्पी नहीं थी।
वे धम्म के प्रचार प्रसार में लगे थे,इसी संदर्भ में महेंद्र श्रीलंका गए ,वहां राजा तिष्य को उन्होंने बौद्ध धर्म से दीक्षित किया ,जब महेंद्र लौटने लगे तब राजा ने उन्हें बहुमूल्य वस्तुएं भेंट की,उन बहुमूल्य वस्तुओं में तिष्यरक्षिता भी शामिल थी। यौवनावस्था की दहलीज पर पग रखती वो चित्ताकर्षक रुपसी जिसका रूप बड़े बड़े ऋषि मुनियों को चित्त करने में सक्षम था।
राजकुमार महेंद्र संग जब वो राजदरबार में लाई गई तो, सबकी आंखें और मुंह खुले रह गए।अमात्य ,आमजन ,सम्राट अशोक की आंखें अपलक उस सुंदरी के रूप को निहारने लगी एक मौन सन्नाटा पसर गया था राजदरबार में।
सारे अमूल्य रत्न उस एक स्त्री रत्न के सामने फीके पड़ गए थे,मोती, माणिक्य की चमक तुच्छ थी ,तिष्यरक्षिता के सामने।
आखिरकार महेंद्र ने मौन का सन्नाटा तोड़ा और अपनी सारी उपलब्धि जब सम्राट अशोक के सामने बतानी शुरू की ।एक हर्ष और गर्व की लहर वहां बैठे सभी लोगों के चेहरे पर फैल गई।
तिश्यरक्षिता को रनिवास में भेज दिया गया। सम्राट की नजदीकी तिश्यरक्षिता से बढ़ने लगी वो उसके रूप यौवन के मोहपाश में पूर्णतः आबद्ध हो चुके थे। तिश्यरक्षिता एक शातिर ,महत्वकाँछी स्त्री थी।उसकी साम्रज्ञी बनने की चाह अब जल्द ही पूर्ण होने वाली थी ।
( "ज्यादातर पुरुष अपनी वय,और उसके दूरगामी परिणाम को न देखते हुए त्वरित वस्तुस्थिति को ही देखते हैं जिससे भविष्य में उन्हें उसके दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं।")
सम्राट ने कुछ समय के बाद ही तिश्यरक्षिता से विधिवत् विवाह कर लिया। अब तिश्यरक्षिता को कई शक्तियां हासिल हो गई थीं।एक आम स्त्री से खास रानी का सफर शुरू हो चुका था।
आज तिष्यरक्षिता उद्यान में अपनी दासियों के साथ विहार कर रही थी,पुष्पों पर भौरों को मंडराते देख उसका मन उल्लासित हो रहा था ,उसकी कामना हिलोरें ले रही थी ,लेकिन सहसा एक गहरी उछवास,एक अतृप्ति का वेग जो सम्राट के साथ पूर्ण नहीं हो पा रही थी उसके चेहरे को उदास कर रहा था।तभी उसे शोर सुनाई दिया ," ये कैसा शोर आज रनिवास में है ",उसने कंधे उचकाते हुए पास खड़ी दासी से पूछा। आज राजकुमार कुणाल ,महारानी असंधिमित्रा से मिलने आ रहे हैं। तिष्यरक्षिता ने आश्चर्य से प्रश्व लिए आंखों से दासी की ओर देखा ।
दासी ने हंसते हुए कहा _"आप राजकुमार कुणाल को नहीं जानती ,ये रानी पद्मिनी के पुत्र हैं,रानी के देहावसान के बाद महारानी असंधिमित्रा ने ही इनका लालन पालन किया है वे और सम्राट राजकुमार से बहुत प्यार करते हैं ,जिस दिन सम्राट ने बौद्ध स्तूप बनवाने की घोषणा की थी उसी दिन राजकुमार का जन्म हुआ था इसीलिए वे सम्राट को विशेष प्रिय हैं। राजकुमार भी एक अच्छे पितृ भक्त,पुत्र और प्रजा पालक भी हैं।"
तिश्यरक्षिता ने दासियों को देखते हुए कहा _"ऐसी क्या खास बात है ,,,जो राजकुमार महेंद्र, तीवर और जालौक में नहीं ।"
" ये सच है कि ये सभी वीर ,प्रतापी हैं लेकिन राजकुमार कुणाल की जितनी प्रसंशा करूं वो कम ही है ,आप धीरे धीरे उन्हें जान जाएंगी। उन्हें उज्जयनी का राजा ,सम्राट ने बनाया हुआ है आज वहां से ही आ रहे हैं ,सर्वप्रथम माता से मिलेंगे ,फिर सम्राट से।"
थोड़ी देर में जयघोष की आवाजें आने लगी राजकुमार का पदार्पण हो रहा था।कौतुक वश तिश्यरक्षिता आगे बढ़ी और महारानी की ओर चल पड़ी वो देखना चाहती थी थी , कि आखिर कौन है ये राजकुमार ।
कुणाल महारानी के पास पहुंच कर उन्हें प्रणाम करते हैं ,सहसा उनकी नज़र तिश्यरक्षिता पर पड़ती है जो अपलक राजकुमार को देख रही थी।
" प्रणाम माते…..." अपनी ओर राजकुमार को अभिवादन करते देख वो चौंक गई। उसने सर झुका कर अभिवादन स्वीकार किया।
राजकुमार ने आगे कहा _आपकी सुंदरता की चर्चा तो पूरे देश में हो रही है ,आज आपको देखने का सौभाग्य भी मिल गया।
तिश्यरक्षिता बिना कुछ कहे अपने कक्ष में चली गई।आज उसका दिल पहली बार बड़ी जोरों से धड़का था ,राजकुमार को देख ।राजकुमार करीब करीब उसी के वय के थे।उसकी उठती,सोई कामना पुनः जागृत हो गई । वह खुद को संयत करने की असफल कोशिश कर रही थी।उसके मन में प्यार का अंकुर राजकुमार के लिए प्रस्फुटित हो उठा था।
उसकी पूरी जिंदगी का खेल तो नियति ही खेल रही थी ।एक राजा के राज्य से दूसरे वृद्ध राजा के शयन कक्ष तक का सफर उसकी कभी अपनी इच्छा नहीं पूछी गई।
उसे एक गुलाम और फिर भोग्या ही समझा गया।
प्रथम दिवस से कुणाल को जब से उसने देखा था वो लगातार कामदेव के तीर से घायल हो रही थी।कुणाल जब भी आते तो वो किसी न किसी बहाने उनके अंग लग जाती और उसकी काम की ज्वाला और भड़क जाती।
समय बीत रहा था,कुणाल को पाने की इच्छा लगातार बलवती हो रही थी, असंधिमित्रा की भी मृत्यु हो चुकी थी ,अब साम्रज्ञी के रूप में उसे राजनीतिक और असीमित अधिकार मिल चुके थे।
उसे सम्राट का सहचर्य कतई पसंद नहीं था,सम्राट के उसके कक्ष से जाने के बाद अलसायी सी, अनमनी अपने बिस्तर पर पड़ी थी आंखें बंद करती तो कुणाल का चेहरा उसके आंखों के सामने आ जाता ।दासियों ने राजकुमार के नामकरण की बात बड़े विस्तार से बताई थी_" उनका नाम कुणाल , कुणाल पक्षी जो हिमालय की तराई में पाया जाता है उसकी आंखे बहुत खूबसूरत होती हैं,राजकुमार की आंखें भी उस पक्षी की भांति बहुत खूबसूरत थी इसीलिए सम्राट ने कुणाल रखा था।"
सच ही था उन्हीं आंखों ने तिश्यरक्षिता को पूरी तरह. दासियों ने खबर दी कि राजकुमार कुणाल आए हुए हैं। अनमनी तिश्यरक्षिता का मलिन चेहरा पुष्प की भांति खिल गया।उसने दासियों से उसे तैयार करने को कहा।चंदन,गुलाब ,और हल्दी का लेप पूरे तन पर तगाया गया ,सुगंधित पुष्प ,और इत्र के जल से उसने स्नान कराया गया।कई सुगंधित धूप के धुंए को उसके शरीर के पास घुमाया गया। उसने सबसे सुंदर वस्त्र धारण किए।सैरंध्री ने उसके केश को अपनी कला से सुसज्जित किया।
उसने अपनी दासी को आदेश दिया ,_"राजकुमार को पूरे सम्मान के साथ कमरे में लाया जाए,और हां ध्यान रहे ,कक्ष में मेरे और राजकुमार के अलावा कोई न रहे,बाहर खड़े प्रहरी को भी कमरे के आस पास नहीं रहने को कह देना।"
दासी ने हामी भरी और चली गई राजकुमार को बुलाने। वो आईने के पास बैठी ,खुद को देख कर मंत्रमुग्ध हो रही थी,उसके रूप के सामने स्वर्ग की अप्सरा भी फीकी पड़ जाएं इतनी रूपवती लग रही थी।
वो मन ही मन बहुत खुश थी ,उसे पूर्ण विश्वास था कि राजकुमार उसे अनदेखा कर ही नहीं सकते वो जरूर उसके निवेदन को स्वीकार करेंगे। कुछ देर वो वहीं बैठी भविष्य के सपने राजकुमार के साथ बुनने लगी ।तभी दासी की आवाज सुनाई दी और वो अपनी चेतना में लौटी_,महारानी जी ,राजकुमार आ गए हैं।
" ऊंह...." वह उठकर पलंग पर जा बैठी।
दासी उसके कहे अनुसार कक्ष से बाहर चली गई,बाहर खड़े प्रहरी भी कमरे के बाहर से अन्यत्र चले गए।
राजकुमार ने आगे बढ़ते हुए कहा _"प्रणाम माते ।"
" माते ..आप ये कह मुझे वृद्ध होने का अहसास करा देते हैं, जाइए फिर मैं आपसे नहीं बोलूंगी"_तिश्यरक्षिता ने ओंठो हो दांतों से दबा रूठने का बहाना किया।
" उम्र में हम समव्यस्क हो सकते हैं ,परंतु ओहदे में तो आप मेरी माता हैं"_कुणाल ने कहा।
"अच्छा चलिए ,आइए मेरे करीब बैठिए ,खड़े क्यों हैं।"
कुणाल संकोच करते हुए वहीं एक कुर्सी पर बैठ गए।
" ये क्या ?आप इतनी दूर.."कहती तिश्यरक्षिता पलंग से उतर राजकुमार के करीब आ गईं।
राजकुमार को उसके हाव भाव ठीक नहीं लग रहे थे,वो जल्द से जल्द वहां से जाना चाह रहे थे। करीब आते ही तिश्यरक्षिता ने उनके चेहरे को उठाया _"ये खूबसूरत आंखें ,आपकी इन्हीं आंखों ने मुझे घायल कर दिया है राजकुमार।"उसने जानबूझ कर अपना उत्तरीय सरक जाने दिया ,जिससे उसके सुघड़,श्वेत अंग साफ साफ गोचर हो रहे थे। उस अवस्था में भी कुमार संयमित ,अप्रभावित शिव की भांति बैठे रहे।
"मैं आपसे अनुराग कर बैठी हूं,मुझे आपके बिना इस बिस्तर पर जैसे सैकड़ों सर्प डसते हैं,मैं सम्राट के सहचर्य में भी आपको भूल नहीं पाती।मेरे प्रेम को स्वीकार करें कुमार। मैं सर्वदा आपकी दासी बनकर रहूंगी।"
अचानक कुणाल एक शेर की तरह उठकर तिश्यरक्षिता को अपने से दूर धकेल गुर्राए _"ये क्या कर रहीं हैं,आप पूर्णतः मर्यादा को भूल चुकी हैं"।
" हां हां मैं भूल चुकी हूं ,तुम्हें देख मैं लगातार काम के ज्वर से तप रही हूं।मुझे अपना लो कुमार" _वो फिर गिड़गिड़ाई।"
"छीः मुझे तो अब आपको स्त्री कहने में भी लज्जा आ रही है।आप मेरे पिता की पत्नी हैं, मेरी माता समान हैं।और हां मै एक विवाहित पुरुष जो अपनी पत्नी कनकलता से बेहद प्रेम करता हूं और पूर्णतः संतुष्ट हूं।"
राजकुमार शायद पहली बार इतने गुस्से में थे, वे उसे धिक्कारते हुए तेज़ी से बाहर निकल गए।
तिश्यरक्षिता के अहम को आज अत्यंत चोट लगी थी,उसके आंसू लगातार बह उसके वस्त्रों को भिगो रहे थे ।घायल शेरनी की तरह कुछ देर तक उसका रुदन चलता रहा।
कुछ देर बाद दासी ने कक्ष में प्रवेश किया ,लेकिन उसने आने से मना कर दिया ,उसने आज सम्राट को भी आने से मना करवा दिया था,वो पूरी तरह से अकेला रहना चाहती थी।
अगले दिन ही राजकुमार कुणाल वापस उज्जयिनी लौट गए,जबकि सम्राट की इच्छा थी कि वो कुछ दिन पाटलिपुत्र में ही रुकें।
समय बीत रहा था ,अचानक एक दिन सम्राट की तबियत बहुत बिगड़ गई।महारानी ने उनकी खूब सेवा सुश्रुषा की ,वो उनकी सेवा से मौत के मुंह से बच गए, अब तो सम्राट पूरी तरह से महारानी के काबू में थे। राजकाज के निर्णयों में अब महारानी का हस्तक्षेप अप्रत्याशित रूप से बढ़ गया।उसने सम्राट से कह कर राजमुद्रिका जिसे उस समय दंतमुद्रिका कहते थे । दंत मुद्रिका का प्रयोग अति शीघ्र आदेश पर मुहर के रूप में होता था।
तक्षशिला में पुनः विद्रोह हो गया था ,उससे पहले सम्राट किसी को उस विद्रोह को दबाने जाने का आदेश देते ,महारानी ने सम्राट अशोक से आग्रह किया कि वे शीघ्र उज्जयिनी के राजा कुणाल को तक्षशिला कूच कर विद्रोह का दमन करने का आदेश दें। अशोक ने कुणाल को राजज्ञा भिजवाई कि वे तत्काल उज्जयिनी के लिए कूच करें।
कुणाल ने तत्क्षण तक्षशिला के लिए प्रस्थान किया,इधर एक षड्यंत्र उनका बेसब्री से इंतजार कर रहा था।राजकुमार के वहां पहुंचने से पहले एक राजाज्ञा पहले से कुणाल का इंतजार कर रही थी। कुणाल के वहां पहुंचते ही किंकर्तव्यविमूढ़ अमात्यों ने राजदंतिका मुहर लगी आदेश कुणाल को दिखाया ,जिसमें लिखा था कि, सम्राट की आज्ञा है कि, कुणाल के वहां पहुंचते उनकी आंखें निकाल कर उनका वध कर दिया जाए।
उसमें लिखी बातें सर्वथा अविश्वसनीय लग रही थी, लेकिन प्रमाण के तौर पर वह आदेश सामने मुंह चिढ़ा रहा था।किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि सम्राट अपने प्राणों से प्रिय राजकुमार को कैसे वध करने की सजा दे सकते हैं, और आखिर कुमार की गलती भी क्या थी?वैसे भी सम्राट अहिंसा का व्रत ले चुके हैं।क्या हो रहा है ,ये सब सबकी समझ से परे था।
सम्राट के आदेश की अवहेलना नहीं हो सकती थी ,और सम्राट से पूछने की किसी में हिम्मत भी नहीं थी। आखिरकार अमात्यों की दुविधा को देख कुणाल ने पितृ इच्छा की मर्यादा रखते वधिक बुला स्वयं ही अपनी आंखें निकलवा दी,लेकिन उनका वध करने का किसी में साहस नहीं था।वैसे भी एक दृष्टिहीन कुमार मृतप्राय ही था, वह उत्तराधिकारी बनने के अयोग्य ही था ।
पूरे तक्षशिला में हाहाकार मच गया ,सभी सम्राट अशोक को निरंकुश ,और निर्मम पिता के रूप में कोसने लगे । उधर तिश्यरक्षिता अपने कक्ष में बैठी अत्यंत आनंदित थी,उसे राजकुमार के अंधे होने की खबर मिल गई थी।उसका प्रतिशोध पूरा हो गया था,जिन आंखों ने उसे घायल किया था अब वे आंखें सदा सदा के लिए निकाल ली गई थी।उसका सुंदर मुख अत्यंत रौद्र दिख रहा था,वो पागलों की तरह अट्टहास लगाने लगी और धीमे धीमे बड़बड़ाने लगी _"क्या मांगा था उससे ,सिर्फ प्यार...।"
"उसका सहचर्य,क्या जाता उसका ,राजा की तो अनेकों रानियां होती हैं वो चाहे तो अनेकों से संबंध बनाए ,लेकिन स्त्री को ये अधिकार नहीं। मैं गिड़गड़ाती हुई कहती रही ,_राजकुमार मेरे तन बदन की आग इस बेमेल विवाह से बुझ नहीं रही बल्कि तुम्हें देख और धधक जाती है , तो तुमने कुलटा,मर्यादाहीन,और पता नहीं क्या क्या सुना दिया...."फिर वो हंसी।आज से पहले वो कभी इतनी कुरूप नहीं लगी।
उधर जब सम्राट को ये बात पता चली कि उनके नाम पर राजाज्ञा भेजी गई थी जिसमे कुमार का वध करने की बात लिखी गई थी,वो आग बबूला हो गए। राजदंतिका महारानी के पास है,उन्हें समझते देर न लगी कि ये महारानी का किया धरा है।
कुणाल की खबर ने उन्हें जीते जी ,निष्प्राण कर दिया था।राजकाज छोड़ वे अपने महल में चले गए ,उनके मन में महारानी के प्रति वितृष्णा भर गई थी।कुणाल उन्हें सभी बच्चों में प्रिय थे ,वो हमेशा उनकी हर इच्छा के लिए तत्पर रहते ,रानी पद्मिनी हंसती हुए कहती हैं,इसे जब देखो कुछ न कुछ आपसे चाहिए ही होता है।अशोक कहते _मुझे कुणाल की हर बात जबां पर आने से पहले मालूम हो जाती है।
" हाय री नियति, मैं कैसे न समझ पाया अपने पुत्र पर मंडराते उस संकट को ,जो बाहर से नहीं अपनों से थी।कनकलता को क्या जवाब दूंगा ,जब वो मुझसे अपने पति का गुनाह पूछेगी।" उसकी आत्मा चीत्कार उठी, वो उठे और राजदरबार की ओर चल पड़े,उनके पैर उठ नहीं रहे थे सिर्फ घिसट रहे थे महेंद्र और अंगरक्षकों ने सहारा दिया उन्हें राजदरबार तक जाने में।
आपातकाल सभा बुलाई गई,आदेश पारित किया गया कि महारानी को तत्काल उनके समक्ष प्रस्तुत किया जाए।तिश्यरक्षिता एक कैदी की तरह सम्राट के सम्मुख लाई गईं।उसकी आंखों में ग्लानि के भाव नहीं बल्कि आत्मसंतुष्टि की मुस्कान खेल रही थी।म्राट उसके सुंदर मुखड़े के पीछे के दैत्या को अब एक पल भी देखना नहीं चाहते थे,उन्होंने तिश्यरक्षिता की ओर बिना देखे ही आदेश दिया।इस दुष्टा को जीवित ही जला दिया जाए,जिससे देश ,समाज के सामने ऐसे दुष्कृत्य को लोग करने क्या सोचने से भी डरें।दरबार में हर कोई दुखी था ,लेकिन ये कैसी सजा दी सम्राट ने ,उपस्थित बौद्ध भिक्षु,अमात्य गण,सेनापति सभी अचंभित थे।
आखिरकार चौराहे पर अग्निवेदी बनाई गई और तिश्यरक्षिता को उसमें बिठा आग लगा दी गई। चिता धू धू कर जलने लगी ,उस चिता में बहुत कुछ जल गया,सम्राट का विश्वास ,एक मजबूत भावी चक्रवर्ती सम्राट का उज्जवल भविष्य।
आखिर सम्राट अशोक की मृत्यु के बाद साम्राज्य के कई टुकड़े हो गए,कुणाल के पुत्र को कार्यवाहक सम्राट बना कुणाल ने शासन तो किया लेकिन बहुत कमजोर और असंतुलित शासन परिणामस्वरूप शक्तियों का ह्रास शुरू हुआ और फिर धीरे धीरे साम्राज्य का पतन।
(ये कहानी ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करती है,लेखिका ने अपने विवेक से कई काल्पनिक स्थितियां कहानी को रोचक बनाने हेतु किया है।)
