Moumita Bagchi

Abstract Tragedy

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Moumita Bagchi

Abstract Tragedy

तिल का ताड़

तिल का ताड़

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"बेटा सारा सामान आ गया न? पंडितजी ने कल समानों की जो सूची दी थी, एकबार उसे मिलाकर देख लो, सब कुछ है कि नहीं! अभी भी कुछ रह गया हो तो विश्वास को आनंद स्टोर भिजवाकर मँगवा लेते हैं।"

" हाँ माँ, मैं कल जाकर सारा सामान खुद ही देख-भालकर ले आया हूँ! आप चिंता न करो!"

यह कथोपकथन चल रहा था माँ स्वर्णा देवी और उनके इकलौते बेटे संभव के बीच। ग्यारह दिन पहले स्वर्णा देवी के पति सारांश जी का दीर्घ बीमारी के बाद स्वर्गवास हो गया था। आज सुबह से उन्हीं के श्राद्धानुष्ठान हेतु सारी तैयारियाँ चल रही थी।


पंडित जी आने वाले थे और स्वर्णा देवी चाहती थी कि उनके आने से पहले सभी चीजे अपने सही जगह पर मौजूद हो। क्योंकि वे जानती थीं कि पंडित रामशरण शुक्ला जी बड़े गुस्सैल हैं। किसी भी चीज़ में कोई भी कमीं रह जाए तो वे सर आसमान में उठाने को देर न लगाते थे।

उधर स्वर्णा जी की बहू रुचिरा भी आज सुबह से ही किचन में व्यस्त थी। उसने अपनी माँ और छोटी बहन को भी हाथ बँटाने के लिए कुरुक्षेत्र से बुला लिया था। इस समय वे तीनों रसोईघर में भाँप, गरमी, हाथों में पड़े गरम तेल के छालों इत्यादि की परवाह न करते हुए श्राद्ध के बाद होने वाले ब्राह्मण- भोजन और अतिथि- भोजन हेतु पकवान बनाने में जुटी हुई थी।

रुचिरा को मालूम था कि कर्कट रोग से ग्रस्त बाबू जी का इलाज कराने में उसके पतिदेव की जेब में कितनी बड़ी छेद हो चुकी है! उस पर सौ लोगों के लिए भोज का आयोजन करना एवं पूजा- पाठ और श्राद्धानुष्ठान का सारा खर्चा उठाना उन लोगों के वश की बात न थी, फिर भी, करना तो था! क्योंकि माँ जी चाहती थी, कि बाबू जी का श्राद्ध बड़े धूम- धाम से किया जाए !जैसे कि उनके सभी बड़े भाइयों का हुआ हो।

लेकिन उनको कैसे समझाएं कि ताऊजी के बेटे सब अच्छे - भले पोस्ट पर हैं जबकि प्राइवेट फार्म में डाटा - ऑपरेटर की नौकरी करने वाले उसके पति, संभव के पास इतनी साधन- संपन्नता नहीं है। ऊपर से दवा- अस्पताल के खर्चे में इतना पैसा बह निकला था।


" रुचिरा, रुचिरा" की आवाज़ सुनकर उसे अपने विचारों से बाहर निकलना पड़ा! वह अपने गिले हाथों को साड़ी के पल्ले से पोछती हुई बाहर हाॅल में आई तो उसकी सास ने उसे देखते ही पूछा,

" बेटी काले तीलों वाला पैकेट तूने कहाँ रक्खा? ज़रा ला दें न? "

" यहीं तो रक्खा था, माँजी!" फिर सब मिलकर ढूँढने लगे। पर समय पर आवश्यक चीजें कब मिला करती थी, जो अब मिल जातीं?


इधर पंडित जी,

" जल्दी कीजिए जजमान, मुहुर्त निकला जा रहा है!"फिर जब तिल न मिला तो तिल- मिलाकर अपनी तोंद को ज़रा दाएं- बाएं हिलाकर बोले--

" कभी सुना है कि तिल के बिना श्राद्ध संपन्न होते हुए। जब वही नहीं है तो मैं यहाँ रुककर क्या करूँगा?"

" जानता तो हूँ कल के सभी बच्चें को! इसलिए सभी सामग्री की सूची पहले ही दे दी थी। फिर भी देखो, असली वस्तु ही लाना भूल गए।"

और इस तरह तिल का ताड़ बनाते हुए पंडितजी अपना आसन छोड़कर जाने लगे। तब सभी लोगों ने समझा- बुझाकर रोका! रुचिरा का बहनोई विश्वास तुरंत दुकान से तिल का पैकेट लेकर आया, तब जाकर पंडित जी का तिल-मिलाना कुछ कम हुआ! शांत होकर आसन जमाकर बैठे और श्राद्ध का अनुष्ठान आरंभ हो पाया!


विधिवत् श्राद्धानुष्ठान संपन्न हुआ! इसके बाद पंडित जी खाने बैठे उन्होंने खाने में बहुत मीन- मेख निकाला। तभी उनकी दृष्टि दान- सामग्री की ओर गई। वे खाद्य- सामग्री छोड़ दान- सामग्री की ओर भागे! 

दान में अपनी माँग अनुसार सोने की अंगूठी न पाकर उनका ब्रह्मतेज़ फिर से जाग उठा और अंततः वे भोजन छोड़कर उठ खड़े हुए! सोने के अंगूठी लिए बिना वे दुबारा अपना आसन ग्रहण करने को तैयार न हुए!


इधर ब्राह्मण- भोजन के बिना श्राद्ध की विधि पूरी न हो सकती थी! परंतु घर के सारे जेवर बिक चुके थे, केवल रुचिरा का मंगलसूत्र ही एकमात्र बचा हुआ था! 

वही बेचकर आनन- फानन में उसीसे सोने की एक अंगूठी खरीदकर किसी तरह वह शोक- संतप्त परिवार उसदिन ब्राह्मण देवता का क्रोध शांत कर पाया था!



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