स्वर्ग नरक
स्वर्ग नरक


कहा है, स्वर्ग और नरक इस धरती पर ही है।अपने कर्मो का फल आदमी जब तक यहाँ भुगत न ले, शरीर के पिंजरे से आत्मा का पक्षी मुक्त नही हो पाता। मै भाई जी, के दोनो पैर पकड़, कलप रहा हूँ। भाई जी, मुझे आजाद कर दो, अपनी इस कुबेर नगरी से, किसके लिये मै जीयुं, जिसके लिये मै उन्मादित हो, धन बटोरने मे लगा था, जिसे मै ताज़िन्दगी एशो आराम जुटा रहा था, जब वही नहीं रहा। मेरे आँसू उनके पैरों को भिगो रहे थे।
भाई जी निश्चल, मृत्यु शैय्या पर लेटे थे विगत एक वर्ष से, न सुन पाते थे, न समझ पाते थे।एकटक उनकी आँखे छत निहारती रहती, शरीर का कोई अँग क्रिया शील नही था, पर सांसे थीं कि जाने किस आस मे गतिमान थी। आखिर विलाप से बेहाल हो, मैंने उनके पैरो से अपने को अलग किया, देखा उनके आंखों के कोरों मे दो अश्रु बिन्दु झलक रहे थे। मृतपाय भाईजी, पुत्र सम प्रिय उनका कारिंदा मै, सोने की चिड़िया सा कारोबार, पश्चाताप मे झुलस रहे थे।अतीत का नाग अब रह रह कर डस रहा था, --- "बच्चे, कोई भी काम करो, उसमे उस्तादी होना जरुरी है, अभी बहुत कच्चे हो मियाँ"मैने उस आदमी की जेब मे हाथ डाला ही था।कि उसने मेरा हाथ जोर से पकड़ लिया गया।
"माँ, बाप हैं "प्रश्न हुआ। मैने न मे सिर हिलाया। "मेरे साथ चलोगे, मेरे घर।काम मे मेरा हाथ बटाना। खाना, रहना, कपड़ा सब मिलेगा" भाई जी, मैं उन्हे भाई जी कहता, वो भी मेरी तरह अनाथ होंगे।तभी अकेले रहते थे।छोटा सा घर, दो कमरे, सामने दालान।दालान ही दुकान थी।सीजन मे थोक मे मूँगफली खरीदते।और बंधी दुकानों और ग्राहको को बेचते।मूँगफली, कुछ बिना छिलकों की, कुछ छिलकों समेत। लग गया मै काम पर।भाई जी और अपना खाना बनाना, सफाई करना, फिर माल साइकिल पर रख दुकानों पर पहुंचाना।
भाईजी का विशेष स्नेह रहा मुझ पर।काम दिन ब दिन बढ़ता गया।मै बाईक पर माल ले जाने लगा।फिर मेटाडोर पर माल पहुंचाने लगा।छोटा सा मकान दो, दो से, तीन मंजिलों मे तब्दील होने लगा।भाई जी सबसे कहते "छोटे के हाथ में बरक्कत है।" नादान नहीं था मैं।बरक्कत कहाँ और किसके हाथ में सब जानता था। पर मैं क्या, मेरी परछाईं तक गुलाम थी मेरे आका (भाई जी)की।हुक्म बजा लाना फर्ज था मेरा, फिर भाई जी मेरे हिस्से में ज़रा भी कोताही नहीं करते, दिल खोल के देते थे। भाई जी ने एक सुन्दर सुशील पर गरीब लड़की से मेरा विवाह करवाया।
और विवाह के साल भर बाद मुन्ना ने जन्म लिया।बदनसीब मां का सुख नही देख पाया। भाई जी ने सारा कारोबार मुझे सौंप दिया।मुन्ना एक दाई की निगरानी मे बड़ा होने लगा। मुन्ना पढ़ने विदेश चला गया।भाई जी अस्वस्थ हो, बिस्तर मे सिमट गये।और मुझे धुन लग गई, मुन्ना के लिये सारी सुविधा, एशो आराम जुटाने की। मुन्ना की पैसों की हर जायज, नाजायज डिमांड को पूरा करना मेरा मकसद बन गया।
कारोबार उन्नति के चरम पर था।युवा लड़के, लड़कियाँ अफीम के नशे मे अपना भविष्य डुबा रहे थे।असमय काल के गाल मे समा रहे थे।मुझे सब खबर थी, लेकिन मुझे क्या, मै तो मुन्ना के लिये कमा रहा था। मूँगफली के छिलके अपने पेट मे अफीम भरकर, चाँदी के सिक्कों मे ढ़ल रहे थे।मैं खुश था। सुबह ही मुन्ना का फोन आया।फोन पर मुन्ना नही उसका कोई दोस्त था- अंकल, विपुल(मेरा मुन्ना) एडमिट है हॉस्पिटल में, उसने ड्रग्स का ओवर डोज ले लिया है"पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई मेरे।बाद के कोई शब्द सुनाई पड़ने बंद हो गये। थोड़ी देर मे फिर कॉल आई, ये कॉल काल बनकर आई मेरे बच्चे की। "ही इस नो मोर"