कलम बोलती है
कलम बोलती है


"माँ, मैं जरा गाँव का चक्कर लगा कर आता हूँ "मैने माँ से कहा। इस बार मैं बहुत दिनों बाद गाँव, माँ ,बाबू के पास अकेला,चार दिनों का अवकाश लेकर आया था। बाबू का स्वास्थ ठीक नहीं था। सोचा दोनो को अपने साथ शहर लेकर ही जाऊँगा। साइकिल उठाई और निकल पड़ा। इन दस सालों मे ये गाँव, बहुत बदल गया था। पक्की सड़कें, बिजली, पानी पक्के घर, सुविधा संपन्न। सायकिल के पैडिल अपने आप मुड़ गये बशीर चाचा के घर की ओर। ये क्या, पुस्तकालय के दरवाज़े पर बड़ा सा ताला लटका था। मैने साइकिल खड़ी की, और चाचा को आवाज़ देने ही जा रहा था कि चाचा बाहर निकले। कहाँ गया उनका बलिष्ठ शरीर, हंसमुख चेहरा, वहाँ तो खड़ा था एक दुबला सा, टूटा तन मन लिये, बूढ़ा आदमी। "चाचा ये क्या बीमार हो क्या, और ये पुस्तकालय बन्द क्यों? आपकी, इस लाइब्रेरी की, ये हालत कैसे" "बाहर ही से सब तहकीकात कर लोगे बरखुरदार अंदर आओ।"वो मुस्कराये । मैं अंदर गया। उन्होने गफूर को आवाज़ दी "गफूर मियाँ, चाय तो ले आओ देखो पंडित जी के बचवा आयें है" बहुत देर चाचा और मेरी बातें हुई। बहुत दिनों का दबा मन का गुबार निकला। अपनी कही मेरी सुनी। पर उन्होने ये नहीं बताया की लाइब्रेरी बंद क्यों है। शायद वो बताना नहीं चाह रहे थे। "अच्छा चाचा चलता हूँ "मुझे देर हो रही थी और थका हुआ भी था। "फिर आना बेटा" "जी ज़रुर "मैने कहा। चलते समय अनजाने में मेरी नज़र फिर लाइब्रेरी के ताले पर जम गई। धूल और जालों से भरा हुआ। थके होने के बावजूद आँखो में नींद नहीं थी। अतीत उभर कर सामने आने लगे। बशीर चाचा, बाबू से कम से कम दस साल तो छोटे होंगें। वो बाबू को भाईजान कहते। बहुत अदब करते बाबू का। मजहब अलहदा ,पर प्रेम के तार जुड़े हुए। बशीर चाचा की शादी में मैं आठवीं में पढ़ता था।सुना था चाची, बहुत पढ़ी लिखी हैं । पहली बार उनसे मिला तो देखता ही रहा, बिल्कुल परी की तरह लगी। वो मुझे अपने कमरे में ले गईं। मिठाइयों की प्लेट मेरे सामने थी और मैं--- "क्या देख रहें है आप?" मीठी आवाज़ से मैं एकदम चौंका, मैं उन्हे नहीं ,उस कमरे मे किताबों से भरी दो अलमारियों को देख रहा था। "ये आपकी हैं, आप इतनी किताब पढ़ती है" "हाँ, हम पढ़ते है। तुम्हें पढ़ना अच्छा लगता है " मैने हाँ मे सिर हिलाया। "क्या पढ़ना अच्छा लगता है" "नन्दन, चम्पक, मोटू पतलू "मैने नाम गिनाये। "हमारे पास बच्चों के लिये किताबें है। तुम चाहो तो ले सकते हो" "यहीं आकर पढूंगा। अपने दोस्तों को ला सकता हूँ?" "ज़रुर" जम गई हमारी महफिल। चाची हम लोगो के लिये नयी पत्रिकायें भी मंगा देती। समय की रफ्तार के साथ, हमने कादम्बनी, नवनीत, धर्मयुग हिंदुस्तान पढ़ने शुरु किये। प्रेमचंद साहित्य तो मुझे प्रिय था।
अब मैं बारहवीं कक्षा का छात्र था। बोर्ड परीक्षा मे जिले में मैं अव्वल आया। अब आगे की पढ़ाई शहर में ही सम्भव थी। जाने से पहले मैं बशीर चाचा से मिलने गया। चाची कुछ लिख रही थी। "आप क्या लिख रही है" मेरे प्रश्न पर वो केवल वो मुस्करा दी। जवाब बशीर चाचा ने दिया। "हाँ बरखुरदार,आपकी चाची बहुत बढ़िया लिखती है। इसीलिए तो इनके अब्बू
अम्मी ने इनका नाम अलीमा रखा।" "अलीमा ,कितना प्यारा नाम "मैने मन में कहा। "मुन्ना ,आप चले जायेंगे। तो ये किताब-घर तो सूना हो जायेगा।" "चाची, एक काम करे। अगर आप इजाज़त दे तो।" "बताओ ,"चाचा और चाची एक साथ बोले। "क्यों न हम इस कमरे को लाइब्रेरी का रुप दे। वो जो दरवाज़ा बंद है उसे खोल दे। बाहर की तरफ खुलता है। सभी को किताबें पढ़ने को मिलेगी" "ग्रेट।" चाची बच्चों की तरह चहकी--- "कुछ अखबार, हिंदी, उर्दू,अं ग्रेजी के और लगवा ले।" "नाम क्या रखे लाइब्रेरी का"मैने पूछा। "अलीमा- लाइब्रेरी" चाचा बोले। चाची हँस दी।" इन्हे तो बस--- इसका नाम रखे "कलम बोलती है, पुस्तकालय।--' कैसा रहेगा" राय जानने के लिये, उनकी आँखें ,मेरी और चाचा की ओर घूम गईं। "फ़र्स्ट क्लास" मैने कहा। आनन फानन मे बोर्ड बना। मैं, मेरे दोस्त ,चाची के निर्देश पर लाइब्रेरी का रुप संवारने में लग गये। बोर्ड तन गया।उदघाटन का गौरव मुझे दिया गया। बोर्ड परीक्षा में अव्वल जो आया था।
अब फोन पर ही गाँव की खबर मिलती। लाइब्रेरी बहुत बढ़िया चल रही है। सुबह से ही लोग अखबार पढ़ने ,किताबें पढ़ने ,आ जाते हैं, देश विदेश की चर्चा होती है। चाचा ,अपनी आटा चक्की का काम छोड़ ,अब लाइब्रेरी संभालते है। सुनकर मन प्रसन्न हो जाता था। बीच बीच मे मैं जब घर जाता। तो निसंतान चाचा और चाची की व्यस्तता देख दिल को सुकून मिलता। अब ये लाइब्रेरी ही जैसे उनकी सन्तान थी। नौकरी लगी, विवाह हुआ मेरा। और परिवार के साथ शहर मे ही बस गया। माँ, बाबू तो अपना पैत्रिक घर छोड़ शहर आना ही नहीं चाहते थे। चाची नही रहीं, माँ ने खबर दी थी, उस समय पत्नी अस्वस्थ थी।चाहकर भी घर न जा पाया। गृहस्थी के जंजाल में पूरा अतीत कहीं गुम होकर रह गया। आज बाबू की तबियत सुन गाँव आया। सुबह उठते ही चाय पी सीधे बशीर चाचा के यहाँ गया। चाची की चर्चा कर मैं उनका दिल दुखाना नहीं चाहता था। सीधे अपने मन्तव्य पर आया-- "चाचा लाइब्रेरी का ये हाल कैसे, लगता है सालों से बंद पड़ी है, ये तो चाची की यादगार है। इसमे तो उनकी जान बसती थी" "हाँ, ठीक कहा। ये अलीमा की यादगार है। मैने तो उसके इंतकाल के बाद उसकी याद को जिंदा रखने के लिये पुरजोर कोशिश की। धीरे धीरे इसी में उसे पाने भी लगा था। पर---"कहते कहते वो चुप हो गये। "पर--'पर क्या चाचा?" "तुम अपना ये गाँव देख रहे हो न। कितना बदल गया है। गाँव क्या, दुनियाँ ही बदल गई। अब सब किताब नहीं मोबाइल पढ़ते है। ऐसी दनादन बन्दूक चली इस मोबाइल की, कलम तो टूट के रह गई । " सच्चाई है चाचा की बातों मे। साहित्य बंद अलमारियों से धूल धूसरित हो रहा है। खुली हवा में सांस लेने के लिये तड़प रहा है। "चाचा, हम कितनी ही तरक्की कर लें, मोबाइल कितनी ही गोलियाँ दाग ले, तोप छोड़ दे, बम फोड़ ले। कलम कभी दफन नहीं हो सकती। आदि काल से उसका वर्चस्व था ,है,और रहेगा। अनवरत चलती रहेगी।" मानो ये आवाज़ मेरी नहीं, मेरे अंदर की कलम की गर्जना थी । हमेशा की तरह जाने से पहले चाचा से मिलने गया, लाइब्रेरी के दरवाज़े खुले थे। सूरज की स्वर्णिम किरणें बोर्ड पर चमक रही थी।