Sunita Mishra

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Sunita Mishra

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कोहिनूर

कोहिनूर

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मेरे कॉल बेल बजाते ही दरवाजा खुला, दोस्त ने ही दरवाजा खोला,देखते ही बोला"आओ, अंदर आओ। बड़े दिनों बाद आना हुआ। कुछ काम होगा। बिना काम के तो तुम आते ही नहीं " अंदर आ,सोफे पर बैठ ,मैने बहुत संकोच के साथ कहा"याद है,करीब छह,सात,महिने पहिले तुम और भाभी जी मेरे घर आये थे। भाभी जी , शरत चंद का उपन्यास "श्रीकांत" पढ़ने के लिये,मुझ्से माँग कर लाई थी अगर उन्होने पढ़ लिया हो तो----'"

मैं बात यहीं छोड़ दोस्त की ओर देखने लगा ,शायद उसने मेरा आशय समझ लिया हो। दोस्त ने पत्नी को आवाज दी। भाभीजी बोली"कौनसी किताब ?---आपके यहाँ से लाये थे क्या ?--- क्या नाम था ? " मैंने नाम बताया। "अच्छाआआआ ,वो किताब ?--ढूढ़नी पड़ेगी--कोई ले तो नहीं गया---ले गया होगा तो मिलनी मुश्किल है" किताबों का मै शौक़ीन,साहित्यिक किताबो से सजी है लाइब्रेरी मेरी। मेरा अनमोल खजाना है ये। किताबें मै खरीदता हूँ। मेरी दीदी भी समय समय पर किताबें भेंट करती मुझे। दीदी ,माँ के चले जाने के बाद, उनके ही प्रेम ममत्व की छाँह मे मै पला। बड़ा हुआ। पिछले वर्ष राखी पर मै उनके घर गया। इधर लम्बे समय से दीदी अस्वस्थ चल रही थी।

हम सभी जान गये थे ये बीमारी दीदी को अपने साथ लेकर ही जायेगी। संभवतः दीदी भी इससे अनिभिज्ञ नहीं थी। राखी बन्धवाकर,मैने दीदी के पैर छूकर उन्हे उपहार देना चाहा,वो बोली"रुक श्री,पहिले अपनी दीदी का आशीर्वाद ले"कहकर उन्होने एक किताब लाकर मुझे दी। शरत चंद का उपन्यास "श्री कान्त" दीदी बोली"श्री(मेरा नाम भी श्रीकांत है। दीदी हमेशा मुझे श्री ही कहती)तेरे खजाने मे ये कोहिनूर नहीं था न। तू बहुत दिनो से इसे लेने की सोच रहा था न। अब इस किताब के साथ अपनी दीदी की याद भी हमेशा अपने पास रखना"उन्होने अपनी आँखे पोछ ली। माहौल बोझिल हो गया था। कुछ महिने बाद दीदी हम सभी को छोड़ कर भगवान को प्यारी हो गई।

उस दिन मेरा ये दोस्त सप्त्नीक मेरे घर आया। भाभी जी मेरी लाइब्रेरी देख चहक उठी। उपन्यास उठाकर बोली "भाई साहेब मै ये उपन्यास लिये जा रही हूँ। इसको पढकर दो,चार दिन मे लौटा देँगे"मेरा संकोची स्वभाव चाह कर भी मना न कर पाया। छह माह से ऊपर हो गये ,जब भी अपनी किताबों की आलमारी देखता ,रीती सी लगती। दीदी याद आती। आज पहुंच ही गया दोस्त के घर। पर भाभीजी के जवाब से मेरा मन आहत हो गया। वो किताब जिसे मै पढ़कर, अपनी लाइब्रेरी को शोभित करना चाहता था,जिसमे दीदी की याद छुपी थी,अमूल्य धरोहर के रुप मे। रुआंसा सा हो गया मै--- "अरे यार तू तो ऐसा परेशान लग रहा ,जैसे मैने तेरे दो,चार लाख रुपये हड़प लिये हों। ऐसे क्या हीरे मोती जड़े थे उसमे। किताब ही तो है,बाज़ार से खरीद कर दूसरी ला देँगे। " मै जाने के लिये खड़ा हो गया। मन भारी था। ये दोस्त क्या समझेगा,उसमे दो दो कोहिनूर जड़े थे। एक तो उस महान साहित्यकार की ख्यातिनाम कथा, दूसरा मेरी दीदी का स्नेह और याद।


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