Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Nisha Singh

Drama

4.6  

Nisha Singh

Drama

सवाल

सवाल

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थक गया हूँ मैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है कि सब कुछ छोड़ छाड के कहीं दूर चला जाऊं। एक वक़्त था जब सब कुछ कितना सही लगता था मुझे। यही तो था जो मैंने चाहा था, यही तो था जिसके मैंने सपने बुने थे और आज... आज वही सब मुझे काटने को दौड़ता है। आज वही सब मुझे खोखला सा लगता है जिसमें मुझे ज़िंदगी का असली मतलब समझ में आता था। शुरुआती दिनों में तो धूप में भी जाना नहीं अखरता था और आज ऐ. सी. कार से आने जाने में भी परेशानी महसूस होती है।

वही दिन अच्छे थे जब यार सच्चे थे। कम थे पर अपने थे। आज जहाँ भी जाता हूँ लोगों की भीड़ से घिर जाता हूँ पर वहाँ ना कोई सच्चा यार होता है और ना कोई अपना।

खैर,क्या फ़ायदा इन सब बातों का... ज़िंदगी की दौड़ मैं बहुत आगे निकल चुका हूँ मैं। घर, परिवार, रिश्ते, नाते, दोस्त, यार सब पीछे छूट गये। सालों बीत गये किसी से नहीं मिला। किसी और की क्या कहूँ जब मैं खुद से ही ना जने कब से नहीं मिला। खुद को भी ना जाने कहाँ खो आया हूँ...

क्या करने आया था और क्या करने लगा ?

बहुत सोच समझ कर चुना था, बहुत सोच समझ कर फैसला किया था कि ‘मुझे पत्रकार बनना है’ और बना भी। जब पत्रकरिता का सपना देखा था तो मन में एक ही छवि उभर के आती थी नेताओं की, भ्रष्ट लोगों की और वो जो अपनी खुबसूरत शक्ल के पीछे एक हैवान लिये घूमते हैं उन सब की धज्जियां उड़ाता मैं- एक सच्चा और सफल पत्रकार।

शुरुआती दौर में मैं वही करता था जो मैं करना चाहता था- तीखे सवाल। चाहे नेता हों या अभिनेता किसी से भी कुछ भी पूछने से नहीं हिचकिचाता था मैं। धीरे- धीरे यही आदत मेरे लिये मुसीबत बनती चली गई। लोग मुझसे किनारा करने लगे। मेरे इंट्रव्यू लेने पर ऐतराज़ करने लगे। जहाँ भी जाता लोग कोई ना कोई बहाना बना के मुझसे कन्नी काट लेते। ऐड़ीटर साहब की सख़्त सलाह के चलते मुझे बदलना पड़ा खुद को भी और अपने सवालों को भी। आज भी एक जाने माने बिज़िनेस आईकोन का इंट्रव्यू लेने उनके घर आया हूँ। आलीशान ड्राइंग रूम में पड़े सोफे पे बैठ कर एक घंटे में दो बार कॉफी गटक चुका हूँ और अभी अभी ख़बर मिली है कि ‘सर को आने में अभी आधा घंटा और लग जायेगा,ज़रूरी मीटिंग में हैं।’        

ज़रूरी मीटिंग… सब जानता हूँ मैं कितनी ज़रूरी मीटिंग होती हैं इन लोगों की। ज़रूरी मीटिंग के नाम पे घपले बाज़ी कर कर के गरीबों का खून चूस चूस के अपने लिये रंग महल खड़ा कर लेते हैं। लगे होंगे ये साहब भी ऐसी ही किसी ज़रूरी मीटिंग में।

फेसबुक पर फालतू की पोस्ट पढ़ कर टाइम पास कर ही रहा था कि किसी की परछाई ने मुझे डिस्ट्रब कर दिया। नज़र उठा कर देखा तो वो परछाई एक खूबसूरत सी लड़की का रूप लिये मेरे पास पड़े सोफे पे बैठ गई। नज़रें मिलीं तो सही पर...

पर उसने तो मुझे देख के चेहरा घुमा लिया यार....

ये क्या था ?

ऐसा तो मेरे साथ पहले कभी नहीं हुआ। मरतीं हैं लड़कियाँ मुझसे मिलने के लिये, और एक ये है... चेहरा ही घुमा लिया।

एटीट्यूड तो देखो महारानी का... फ़ोन में ऐसे खोईं हैं जसे पास में कोई बैठा ही ना हो।

चलो जी भाड़ मे जाओ हमें क्या...

मैं भी अपनी पोस्ट पढ़ने में मशरूफ़ हो गया।

“सुनिये...”

जितना खूबसूरत चेहरा उतनी ही मीठी आवाज़ जो सुने बस मर ही मिटे। नहीं, नहीं... भाई ये वही है जो इतनी देर से इग्नोर मार रही है।

“जी...” जितना हो सका मैंने सख़्ती से जवाब दिया पर शायद मुझसे हुआ नहीं।

“जी... सर बस 15 मिनट में आने वाले हैं अभी अभी सर का मेसेज आया।”

“जी शुक्रिया” कहते हुए मैंने फिर से फ़ोन में बिज़ी होने का नाटक करना शुरु कर दिया।

“हाय.. आई एम नीती कुमार... मैं सर की पी.ए. हूँ।” कहते हुए उसने अपना हाथ मेरी तरफ़ बढ़ा दिया।

अच्छा तो चमची है साहब की, ज़रूर इसी बात का घमंड होगा।

“हाय... कुमार ध्रुव, लोग प्यार से के. डी. बुलाते हैं।”

“आपको कौन नहीं जानता...”

तो तब से एटीट्यूड क्यों दिखा रही थी....

“आप सोच रहे होंगे कि मैंने आपको पहचाना नहीं, मैं काफी नर्वस थी। सोच रही थी कि क्या बात करूं क्या बात करूं तब तक सर का ही मेसेज आ गया। कुछ बहाना मिला।” कहते हुए वो मुस्कुरा दी।

मैं भी जवाब में मुस्कुरा भर दिया पर उसने बात जारी रखी।

“आपका तरीका दूसरों से कितना अलग है...आपके सवाल बहुत अच्छे होते हैं। कुछ एक सवाल तो बस हिला के रख देते हैं। सामने वाला बस कंफ़्यूज़ ही हो जाये कि क्या जवाब दूँ ?” कहते हुए वो हंस पड़ी।

‘कुछ एक सवाल’ बस कुछ एक सवाल ही मेरे पास ऐसे होते हैं जो किसी की असलियत खोल सकें। सिर्फ़ कुछ एक सवाल... सच कह रही थी वो, सिर्फ़ कुछ एक सवाल ही होते हैं जो अपनी तरफ मैं पूछ सकता हूँ वरना कुछ को एडीटर काट देते हैं तो कुछ वो हस्तियाँ नकार देतीं हैं जिनसे मैं वो सवाल करना चाहता हूँ। सवाल उन तक पहले ही पहुँचा दिये जाते हैं। पहले से ही सबके पास सारे सवाल और उनके सोचे समझे जवाब होते हैं। फ़िर इंट्रव्यू सा रह भी कहाँ जाता है रह जाती है तो बस एक फोर्मलिटी जो मुझे पूरी करनी होती है।

नहीं,अब ऐसा नहीं होगा। अब ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। जो बात मेरी पहचान है मैं उसे खोने नहीं दूंगा।

कोई जवाब दे ना दे, मैं सवाल पूछूंगा ज़रूर।

“क्या हुआ ? कहाँ खो गये आप ?”

“जी कुछ नहीं”

“फिर चलें... सर आ गये शायद”

“ज़रूर”

सवालों की फ़ाइल वहीं मेज़ पर छोड़ मैं अपनी पहचान साथ लेकर आगे बढ़ गया। एक बार फिर सच सामने लाने। यही तो काम है मेरा, है ना...    


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