सफर ?
सफर ?
एक जुनून से शुरू हुआ सफर कब और कहाँ किस तरह से थमेगा यह कोई कहाँ जानता है।भीड़ भाड़ में गिरते पड़ते संभलते जब राह थोड़ी आसान होने लगती है तो जरा सुकून सा लगता है।कदम फिर अपनी ही धुन में राहों संग गुनगुनाते चलते हैं। फिर एकाकेक रास्तों पर पहचान मिलने लगती है।एक मुस्कान और चमक सी चेहरे पर खिलने लगती है ।चारों और से जैसे खुशबूदार,ठंडी बयार चलने लगती है।मौसम कितना खुशनुमा हो जाता है। कितनी दूर चले आये हम ये ख्याल गुदगुदाता है। धीरे धीरे यह माहौल, ये मौसम ठहरा हुआ सा लगता है। मुस्कान चिपकी हुई सी महसूस होने लगती है। आस पास बस हम और कोई नहीं। सारा आलम वही वैसा का वैसा ,खुशबू से तर, गुनगुनाता और आरामदायक।
लेकिन ये जो कुछ साथ महसूस होता है,ये किस लिए है और कब तक साथ है। ये सफर जो जुनून से शुरू हुआ था उसका मकसद था क्या ? वो जुनून अब कहाँ है,वो सफर ,वो मकसद क्या अब भी वही है। हुुम हैं लेेकिन हम असल में कहाँ है? मंजिल पर ? जुनूूून की मंजिल ऐसी होती है? ठहरी सी सी खुशी में क्या कशिश बाकी रहती है? नहीं। फिर, अब क्या ? सवाल फिर वही खड़ा हो जाता है कि जिस जुनून के पीछे इतनी लड़ाइयां लड़ीं ये हसीन मंजर मिले ।इनका हश्र क्या, हासिल क्या ? सिवाय शोर के जिसने फिर मिल जाना है बाकी के उठते शोर में। इन सब मे सुकून कहाँ गया ? वह मिलकर ठहरता तो !लेकिन वही नदारद है एक झलक दिखा कर।
यहीं थमेगा क्या यह सफर, बैठ जाएं क्या एक कोने पर? इंतज़ार करें क्या?पर किस बात का या बस टटोले राह को ?महसूस करें क्या पैरों की थकन को या देखें पीछे या आसमान को।
आसमान...हाँ,सिर्फ ये ही वही है जो सर पर बना हुआ है। क्या ये भी जुनूनी है कि हर राह के संग चलते जाना है।नहीं ये जुनूनी नहीं है।इसे पता है खुद का। ये स्थिर दिखता है ...लगातार... वहीं पर मगर इसने समाया हुआ है सब कुछ चलता हुआ अपने अंदर ।लेकिन दिखता कैसा है न जैसे साथ साथ चल रहा है सबके। हंसी आती है कि हम जुनूनी थे,सफर के थे। एक गोल चरखी पर भागते चूहे जैसे। जिसने कहीं नहीं पहुंचना। बैठ ही जाते हैं राह में एक कोने पर हँसते हुए खुद पर । देखते हुए पथिको को उसी धुन में गुनगुनाते चलते हुए उसी राह पर। देखते रहते हैं आसमान सर के ऊपर जो है पैरों के नीचे भी कुछ ही मील बाद ..असल में हर दिशा में।