सन्यासी
सन्यासी
"माँ, कितनी बार कहा, छोटी की शादी कर दो", मुझे बख़्शो !प्रज्ञा ने चिड़चिड़ा कर कहा। बचपन से ही वो साधु स्वभाव की थी। सांसारिकता में उसका मन न रमता।फिर वो आई ब्रह्मकुमारी समाज मे, और उसका दिमाग ,शांत होता चला गया।रंगों, रंगीन कपड़ों से भी विरक्ति, अधिकतर श्वेत वस्त्र, या गेरुआ वस्त्र, उसको अभूतपूर्व शांति प्रदान करते।पर जिस समाज मे वो थी, वहां लोगों की प्रश्नवाचक नजरें, कुछ के प्रश्न मानो उसको शांत रहने में विघ्न डालते और अनायास ही क्रोध उसके चेहरे पर परिलक्षित होने लगता।ऐसे समय ही, एक निहायत ही एकांत गांव में बसी,सुदूर, निर्जन वन में, उसकी दादी के निधन के समाचार उसके पलायन के लिए मानो सुखद ही था।मां, पिता के विरोध के बावजूद, उसने उस शांत गांव में बसने का निर्णय लिया, जिसकी आबादी ही मुश्किल से 300 रही होगी।
यहां आकर उसकी तबियत प्रसन्न हो गई, एक शांत पहाड़ी गाँव, कोई रोक-टोक करने वाला नही।उसका अधिकांश समय पूजा, अर्चना में बीतने लगा।
सूर्योपासना-----एक गाय पाल ली थी, उसकी सेवा, सादा भोजन,सब कुछ उसकी मन मर्जी का। खुशी को उसके चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था।गेरुआ वस्त्रधारी वो शीघ्र ही प्रज्ञा मां के नाम से गाँव मे विख्यात हो गई। शांत चित्त से वो गांव वालों की समस्याएं सुनती और यथासंभव सहायता करती।उसके जैसे ही स्वभाव वाली उसकी 2,3 सखियां भी बन चुकी थी।
सूर्य निकलने से पहले वो गांव का एक चक्कर भी लगाती। उसके दिव्य रूप से सभी प्रभावित थे।जो भी रास्ते मे मिलते , चरणस्पर्श कर श्रद्धा से उसको रास्ता देते। वो भी प्रसन्न मुद्रा में उसके सर पर हाथ रख आगे बढ़ जाती।ऐसे में ही प्रज्ञा मां की नजर, गोधूलि वेला में कार्य करते, उस कृषक पर पड़ी जिसके मस्तक पर परिश्रम जनित स्वेद कण जगमगा रहे थे। उत्सुकता से वो उसके पास पहुंची।उस युवक ने श्रद्धा से उसके चरण छुए, आदतन प्रज्ञा का हाथ उसके सर पर पहुंचा।
प्रज्ञा की दैनिक तपस्या, एक रूटीन में बंधी ,जारी थी। उसी रूटीन में शामिल हो गया था, परिश्रम करता वो कृषक जिसका नाम, सुंदर, था।अल्पभाषी सुंदर उसके पहुंचते ही, सम्मान में खड़ा हो जाता। प्रज्ञा भी सामान्य से प्रश्न पूछ, वापस अपनी कुटिया में---पर अब सुंदर उनकी उत्सुकता का केंद्र बन चुका था,पता नही क्यों??
आज जब वो पुनः, गोधूलि वेला में अपनी सखियों के संग, सुंदर के खेत से होते हुए गुजरी, तो सुंदर वहां उपस्थित था।चरण स्पर्श करके जैसे ही सीधा हुआ, प्रज्ञा के मुँह से निकला, "सुंदर ,तुम मेरे पैर मत छुआ करो।"
इससे पहले सुंदर, उसकी सखियों की हैरानी भारी नजर वो देख पाती, वो तेजी से मुड़कर तेज चल से अपनी कुटिया की ओर बढ़ चुकी थी।