संस्मरण
संस्मरण
दैनिक जीवन में अक्सर लोग बोलते नजर आते हैं कि आज भोरे भोर फलां आदमी का दर्शन हो गया। मतलब आज जतरा खराब कर दिया।
अथवा यदि आप कोई कार्य कर रहे हो और अंत में परिणाम प्रतिकूल आ जाए तो अनायास मुंह से निकल जाता है, मुझको सुबह में ही लगा था कि कुछ गड़बड़ होगा काहे कि सुबह सुबह काम पर आते बखत फलनमा पीछे से टोक दिया था। अथवा बिल्ली रास्ता काट दिया था।आदि इत्यादि।
कभी कभी सोचता हूं क्या ऐसा हो सकता है। आदमी को आदमी के दर्शन मात्र से जतरा खराब हो सकता है। क्या ऐसा हो सकता है कि बिल्ली के रास्ता काट देने से आगे दुर्घटना हो सकती है।
इसके ठीक विपरीत कभी कभी ऐसा भी सुनने को मिलता है कि किसी के दर्शन मात्र से जतरा सही हो जाता है। मतलब आप कोई कार्य करने निकले हो और रास्ते में किसी अमुक व्यक्ति से मुलाकात हो जाए,आपके चेहरे पर मुस्कान छा जाता है और आप सुनिश्चित हो जाते हैं कि आज कार्य बन जाएगा। ये या तो फ़ालतू की मनगढ़ंत बातें हैं या फिर शोध का विषय।
इससे मिलती-जुलती घटना कहे या न कहे पर ऐसे ही सत्य पर आधारित घटना मेरे साथ घटित हुआ जिसका की अक्षरशः वर्णन कर रहा हूं।
बात उन दिनों की है जब मैं पटना में रहकर पढ़ाई कर रहा था। आर्थिक स्थिति संतोषप्रद नही था या यूं कहें कि प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता नहीं मिलने के कारण नौकरी में बिलम्ब हो रही थी तो पार्ट टाइम जॉब शुरू कर दिया था।
पार्ट टाइम जॉब से आशय यहां यह है कि होम ट्यूशन पढ़ाने लगा था। लेकिन ट्यूशन उतना ही पढ़ाते थे जिससे अपना गुज़र बसर हो जाए। मतलब रूम रेंट साग सब्जी कापी किताब की खर्चे। दाल चावल घर से ही आ जाता था।
इसी क्रम में एक ट्यूशन का आफर आया हाई कोर्ट क्वार्टर से।साहब हाई कोर्ट पटना में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे । एक चतुर्थवर्गीय कर्मचारी के लिए पटना जैसे मंह़गे शहर में रहकर जीवन यापन करना और बच्चे को प्राइवेट स्कूलों में पढाना कितना दुश्कर है' ये बातें अब समझ में आने लगी है। उस टाइम प्रति घंटा ट्यूशन का मासिक चार्ज जहां तक मुझे याद है पांच सौ से छह सौ रूपए हुआ करता था (आज की तारीख में करीब तीन हजार रुपए के लगभग )।
उनके दो बच्चे थे । एक आठवीं में और एक नौवीं में। दस मिनट के मौखिक टेस्ट लिया। पढ़ाई लिखाई में औसत सा लगा। मैंने कहा ठीक है । बतौर फीस पांच सौ रूपए महीने का दे दीजिएगा।कल से ट्यूशन शुरू कर देंगे।
साहब दो मिनट तक मौन रहे । फिर बोले कुछ कम का गुंजाइश नहीं है। दरअसल मै एक चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी हूं। वेतन बहुत ही कम है।कुछ जी पी एफ में कट जाता है और कुछ लोन में। बमुश्किल तीन हजार ही हाथ में आता है उसी में सबकुछ करना है।खाना पीना दवा स्कूल फी आदि इत्यादि।बात चीत के क्रम में साहब थोड़ा गमगीन हो गये जो उनकी आंखें भी बता रही थी।
फिर बोले क्या कहे मास्टर साहब मेरे बच्चे लोग का तकदीर ही खराब है। बात काटते हुए मैंने कहा अभी तो बच्चे हैं तकदीर अभी लिखी जानी बाकी है। ये आप गलत बोल दिये।शब्द वापस लीजिए।
साहब बोले मेरे कहने का आशय यह नहीं है मास्टर साहब। दरअसल बात यह है कि बच्चे लोग मैट्रिक परीक्षा के दहलीज पर खड़ा है । अभी ही बेस बनाने का समय है । मैंने अपने स्तर से कोई कमी नहीं छोड़ रखा है। विगत दो बरसों में अभी तक चार पांच शिक्षक दे चुके हैं और शायद आप छठे हों।
बीच में मैंने बात काटते हुए कहा मतलब शिक्षक ढंग का नहीं मिला कभी आपको ।
नहीं सर ऐसी बात नहीं है।बात यह है कि जो भी शिक्षक लाते हैं।दो- चार महीने बाद उसको नौकरी मिल जाती है। और वो ट्यूशन पढ़ाना छोड़ जाते हैं।
फिर नये शिक्षक खोजने में वक्त लग जाता है।
इस प्रकार बच्चे के पढ़ाई का क्रम बाधित हो जाता है।
बुरा न मानें तो एक बात बोलूं । आप तीन सौ मासिक ले लीजिए। पैसे तो कम पड़ेंगे पर मैं आश्वस्त करता हूं कि छः महीने के अंदर आपको सरकारी नौकरी मिल जाएगी। गारंटी तो नहीं दे सकता पर मुझे ऐसा मुझे लगता है।
नौकरी की बात सुन मेरी आंखें चमक उठी थी।
बिना देर किये मैंने हामी भर दिया।
सच कहता हूं ट्यूशन स्टार्ट करने के दो तीन माह के अंदर ही हाई कोर्ट रांची से पी टी और छः महीना जाते जाते मेरा रिजल्ट फाईनल हो गया।
जब मैंने यह बात साहब को बताया उनके चेहरे पर खुशी और चिंता एक साथ झलक पड़े।
खुशी इस बात का कि उनका वचन सही निकला
गम इस बात का कि अब इनके बच्चों का क्या होगा।
मैंने सांतावना देते हुए कहा आप फ़िक्र न करें शिक्षक मै दूंगा। और मैंने एक शिक्षक दिया भी कालांतर में उसे भी नौकरी मिल गई।सुखद अनुभूति इस बात की रही कि तब तक मैट्रिक का फाइनल परीक्षा भी हो चुका था।
