संकल्प
संकल्प
किसी अध्यापक के लिये इससे ज्यादा क्या शर्म की बात हो सकती है कि उसकी खुद की संतान पढाई से जी चुराये। अध्यापक जो समाज का पथ प्रदर्शक होता है, जब अपनी संतान को सही राह न दिखा पाये तो वह खुद की नजरों में ही गिर जाता है। दो बेटों और दो बेटियों में कोई भी इस लायक नहीं रहा जिसपर मैं गर्व कर सकू। बड़ा लड़का रामदास इंटर पढकर बैठ गया। उसे बहुत समझाया। बेटा, पहले शिक्षा पूरी कर लो। शिक्षा अमूल्य होती है। पर रामदास के पास भी अजीब तर्क था। "पिता जी। आगे पढने का तो तब अर्थ है जब पिछली पढाई शानदार हो। यहाँ दिल्ली में तो मेरा दाखिला भी नहीं होगा।"
मैं इस सत्य को जानता था। पर फिर भी समाज में नाक ऊंची रखने की कोशिश कर रहा था। दिल्ली में नहीं तो कहीं बाहर रहकर कम से कम ग्रेजुएशन तो कर लो। पर रामदास नहीं माना। व्यापार करने की जिद करने लगा। आज उसे व्यापार करते हुए सात साल हो गये हैं। पर उसका खर्च अभी मैं ही उठा रहा हूं।
दूसरी लड़की सीमा भी पढाई से हमेशा दूर भागती रही। हालांकि उसने ग्रेजुएशन की पर कोई अंतर नहीं। दो साल हो गये उसकी शादी को। चाहकर भी उसकी शादी इच्छानुसार नहीं कर पाया। अब अच्छे लड़कों को पढी लिखी लड़की चाहिये। और केवल नाम के लिये पढी लड़की को देखकर सब बिदक जाते हैं। आखिर ऐसे ही एक फैक्ट्री में काम करते लड़के को विवाहकर अपना कर्तव्य पूरा किया। हालांकि अब भी मन में टीस उठती है। मेरे साथी की बिटिया इंजीनियर को व्याही है और वह भी बिना दान दहेज के। आखिर इसीलिये क्योंकि वह पढ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी है।
तीसरे नम्बर के रोहन के भी ऐसे ही हाल हैं। इंटर में तीन बार फेल हुए हैं।हालांकि इन्हें व्यापार की भी कोई जल्दी नहीं है। उन्हें तो घूमना पसंद है। विश्वविद्यालय जाने के स्थान पर कहाॅ कहाॅ नहीं घूमते। इनसे तो बोलना भी अपनी बेइज्जती कराना है।
सबसे छोटी रुचि इन तीनों से कुछ ठीक है। प्रथम श्रेणी तो नहीं पर द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण होती रही है। अंधों के मध्य काने का भी महत्व हो जाता है।
समझ नहीं आता कि हमसे क्या गलती हुई। बच्चों का भविष्य बनाने के हमारे संकल्प में ऐसी क्या त्रुटि हुई। ईश्वर हमसे क्यों इतना रुष्ट हुए। हालांकि वह पाप याद आ जाता है। फिर भी उससे आंखे मूंद लेता हूं। जब भी ईश्वर की आराधना करता हूं तो अंतर्मन में आवाज उठती है कि क्या तेने अपना संकल्प पूरा किया जो तूने एक असहाय लड़के को शिक्षित बनाकर समाज में सम्मान दिलाने के लिये लिया था। तुझे पता भी है कि वह लड़का अब कहाॅ है।
लक्ष्मी मेरी पत्नी, उन्होंने हमेसा मेरा साथ दिया, आज भी मुझे अवलंबन दे रही है। उसके मन में भी वही बात आ जाती हैं जो मेरे मन में आ जाती हैं। एक संकल्प लेकर उसे बीच में छोड़ दिया तो मेरे सारे संकल्प धराशायी हो गये।
दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में अध्यापन के लिये मेरी नियुक्ति ऐसे ही नहीं हो गयी थी। मुझमें वह योग्यता थी। उत्तर प्रदेश के गांव को छोड़कर मैं अपनी पत्नी सहित दिल्ली में रहने लगा। बीच बीच में अम्मा बाबूजी भी आते रहते। पर दिल्ली में वे कम ही रहते थे।
परिवार नियोजन जैसी अवधारणा उन दिनों न थी। वास्तव में मात्र चार बच्चों पर संतोष कर लेने के कारण हमारी आलोचना भी होती थी। मैं प्रगतिशील विचार धारा का उपासक बच्चों के बेहतर भविष्य की दलीलें देता, अपने विरोधियों को शांत करता रहता।
दिल्ली के विभिन्न विद्यालयों में मेरा स्थानांतरण होता रहता। जरूरत के अनुसार मैं मकान बदलता रहता। विद्यालय के नजदीक रहना ही ठीक रहता है। दिल्ली में खुद का आवास बनाने की लालसा नहीं थी। सेवानिवृत्ति के बाद गांव के वातावरण में ही रहना है तो बेकार के काम कौन करे।
समय के साथ विचारों में इतना परिवर्तन हो जाता है। आज गांव में जीवन काटने की कल्पना से ही मन उचट जाता है। बच्चे तो किसी कस्बे में भी दो चार दिन नहीं काट सकते। सुविधा भोगी होकर अब हम पूर्णतः दिल्ली वासी हो गये हैं। फ्लैट की जिंदगी, जो कभी बिलकुल पसंद नहीं थी, आज हमारी आवश्यकता बन गयी है।
मेरा तबादला कमला नगर के सरकारी विद्यालय में हुआ। शाहदरा से कमला नगर ज्यादा दूर भी नहीं है। किराये का अच्छा मकान था। तो मकान नहीं बदला। साइकिल से अपनी ड्यूटी करने लगा। उन दिनों साइकिल संपन्नता की निशानी होती थी।
विद्यालय के पास एक चाय की टपरी मेरा रुकने का स्थान बन गयी। कभी जल्दी पहुंच जाता था तो उसी चाय की टपरी पर समय का इंतजार करता।
प्रश्न लाजिमी है कि मैं जल्दी पहुचने पर विद्यालय क्यों नहीं जाता था। इसका उत्तर प्रश्न से भी ज्यादा दिलचस्प है। दिल्ली में एक ही बिल्डिंग में दो अलग अलग विद्यालय चलते हैं। सुबह की पारी में वही कन्या विद्यालय हो जाता है और शाम की पारी में वही बालक विद्यालय। दोनों विद्यालयों के अध्यापक, प्रधानाचार्य, शिक्षकेत्तर स्टाफ पूरा अलग होता है। दोनों विद्यालयों के अभिलेख भी एकदम अलग अलग होते हैं। कन्या विद्यालय के समय पूरा हो जाने के बाद ही बालक विद्यालय के छात्रों व अध्यापकों का प्रवेश होता है। सरकारी विद्यालयों में यही व्यवस्था आज भी लागू है।
इस व्यवस्था का सबसे अच्छा फायदा चाय की टपरी बाला उठाता था। हमें धूप में सर छिपाने की जगह मिल जाती तो उसे ग्राहक।
चाय की टपरी पर एक आठ, नौ साल के लड़के को कुछ दिनों से देख रहा हूँ। वह चाय सर्व करने का काम करने लगा है। पढे लिखे अध्यापकों के सामने बाल मजदूरी हो रही थी।
" तुझे बच्चे से काम कराने में शर्म नहीं आती। इसके तो पढने की उम्र है। इसे विद्यालय में प्रवेश दिला। सरकारी विद्यालय में फीस नहीं लगती है।"
मुझपर प्रगतिशील विचार हावी थे। चाय बाला भी कितने दिन सुनता। आखिर वह लडके को काम के बदले वेतन देता था।
" आप सही कह रहे हैं मास्साब। यह लडका तो खुद अनाथ है। काम करता है तो इसका पालन पौषण मैं कर रहा हूं। इससे ज्यादा की मेरी औकात नहीं है। पर आप तो बहुत रईस हैं। बाबूजी एक लडके की जिंदगी आप बना सकते हैं। लड़के की पढने में अच्छी रुचि भी है। आपपर भार भी नहीं पड़ेगा। सरकारी विद्यालय में पढाई तो मुफ्त होती है। फिर आप तो खुद शिक्षक हैं। ज्ञान का अलख जगा ही देंगें। "
मेरी सारी प्रगतिशीलता यथार्थ के सामने धराशायी हो गयी। मैं आखिर किसी अनाथ लड़के को कैसे रख सकता हूं। मेरे खुद चार संतान हैं। उन्हीं के खर्च पूरे नहीं पड़ते। बच्चों को बेहतर भविष्य भी तो देना है।
पर बात ज्यादा बढ चुकी थी। यदि यह बात अकेले में होती तो कोई बात नहीं थी। साथ के अनेकों शिक्षक व छात्र भी मौजूद थे। मन अचकचा रहा था। पर अब मैं मजबूर था। बढ बढकर बात करने का दुष्परिणाम भोगना ही था।
" ठीक है। शाम को लड़के को अपने साथ ले जाऊंगा।"
कन्या विद्यालय की छुट्टी के साथ ही मैं विद्यालय में घुस गया। शाम का पूरा प्लान बना लिया। चुपचाप निकल जाऊंगा। इतनी बड़ी बात बोल दी पर लक्ष्मी से पूछा भी नहीं है। अगर लक्ष्मी की रजामंदी हुई तो देखूंगा। नहीं कुछ दिन अवकाश ले लूंगा।
पर चाय बाला ज्यादा होशियार था। उसने मेरी इज्जत मिट्टी में मिलाने का संकल्प लिया तो फिर पीछे नहीं हटा। विद्यालय के अवकाश से पूर्व ही लड़के को लेकर मेरे पास हाजिर हो गया।
शाम को लड़के को लेकर घर पहुंचा तो मेरा स्वागत लक्ष्मी की प्रश्नवाचक निगाहों ने किया। वैसे मेरे मन में भी कोई बड़प्पन नहीं था पर मन की क्षुद्रता को अपने चेहरे से दूर कर मैं बड़ा परोपकारी बनकर दिखाने लगा। एक अनाथ बच्चे का भविष्य सुधारने बाला दिखाने लगा।
" हमारे जरा से त्याग से एक अनाथ बच्चे का भविष्य सुधर सकता है। इस लड़के के मन में पढने की इच्छा है। बेचारे का भविष्य चाय की दुकान पर बर्तन धोने में खराब हो रहा था। मेने इसको पढा लिखा कर बड़ा आदमी बनाने का संकल्प लिया है। जीवन में कुछ तो बड़ा करना चाहिये।"
मैं जानता था कि अब लड़के को वापस तो छोड़ कर आ नहीं सकता। फिर बड़प्पन को खुद से लपेट लेना ही श्रेष्ठ है।पर मेरा यह छद्म बड़प्पन लक्ष्मी को पसंद नहीं आया। वह व्यवहार की ज्यादा ज्ञाता थी। संभव है कि उसने मेरे मन की दुर्बलता भी पढ ली हो।
" ऐसे कितने बच्चे अनाथ घूम रहे हैं। इनका भविष्य बनाने का संकल्प लेते रहोंगे तो खुद के बच्चे सड़क पर भीख मांगेंगे। छोड़ आओ इसे वापस। जहाँ से इसे लाये हों।"
" अब वापस तो नहीं जायेगा। इज्जत की बात है।"
फिर मेने लक्ष्मी को पूरी बात बता दी। किस तरह मैं लड़के को लेकर नहीं आया हूं बल्कि उसे लेकर आने पर वाध्य हुआ हूं। अपनी वाचालता का दंड भुगत रहा हू।
लड़के की स्थिति में बहुत ज्यादा अंतर नहीं आया। चाय की दुकान पर भी वह छोटू था तो मेरे घर में भी छोटू। चाय की दुकान पर दुकान के बर्तन मांजता था तो मेरे घर पर भी घर के बर्तन मांजता। दुकान पर वह झाड़ू वही लगाता तो मेरे घर की झाड़ू भी उसे के जिम्मे आ गयी। बस कुछ बदलाव हुए।
दिखाने के लिये उसे विद्यालय लेकर जाने लगा। बाहर वह अच्छे कपड़े पहनकर जाता था।अब विद्यालय में उसका नाम राहुल था। लड़के के अभिभावक का दायित्व मेरा था। सरकारी नियमानुसार मेने राहुल को गोद भी ले लिया।
केवल कहना आसान नहीं होता है। करना बहुत कठिन है। अध्यापकों की नजर में मैं बहुत कठिन काम कर रहा था। अब मेरा सम्मान बहुत ज्यादा होने लगा। चाय बाला तो मुझसे चाय के पैसे भी नहीं लेता।
" आप रहने दो साहब। आपका इतना बड़ा दिल है। आपके क्या पैसे लूंगा।"
मैं जानता था कि चाय बाले की बुद्धि मुझसे ज्यादा उदार है। फिर भी उदारता का पाखंड करने मैं कम नहीं पड़ रहा था। इससे मेरा कुछ फायदा ही हो रहा था। घर के लिये एक मुफ्त का नौकर मिल गया। और इज्जत भी बढ गयी। इसे कहते हैं - आम के आम और गुठलियों के दाम।
लक्ष्मी भी अब पहले जितनी विकल नहीं होती थी। पर संस्कार देने के नाम पर सबसे ज्यादा पिटाई छोटू की ही होती थी। जिस बच्चे का जीवन संवारने का संकल्प हमने लिया था, उसमें कोई कौताही नहीं की जा सकती है। नहीं तो लोग यही कहेंगें कि अनाथ लड़के का बिलकुल ध्यान नहीं रखा। उसे सही और गलत नहीं सिखाया। उसे जीवन का पाठ नहीं पढाया।
यद्यपि छोटू का खर्चा नगण्य था। घर पर वह बड़े लडके के उतरन ही पहनता था। सरकारी विद्यालय में अध्ययन भी उसका मुफ्त ही था। फिर भी दूसरों पर धोंस जमाने में जाता ही क्या था। इतनी मंहगाई में एक अनाथ लड़के का पालन कर रहा हूं। खुद के चार बच्चों और उसमें किसी तरह का अंतर नहीं रखता। आखिर उसका जीवन संवारने का संकल्प लिया है तो खर्च की क्या परवाह करना।
राहुल वास्तव में पढाई में मेहनती था। घर पर काम करने से उसे फुर्सत नहीं थी फिर भी वह अर्धवार्षिक परीक्षा में अब्बल आ गया। मानों कि वह प्रमाण दे रहा हो कि मैं भविष्य में सूर्य की तरह जगत को प्रकाशित ही करूंगा। उसपर किया खर्च तुम्हें अखरेगा नहीं। जब वह बड़ा अधिकारी बनेगा तो गौरव तो आपका ही बढेगा। पुत्र की सफलता का गोरव पिता की तपस्या को ही जाता है।
इस सोच से मुझे खुश होना चाहिये था। पर वास्तव में हुआ उल्टा। मेरे सामने एक अनाथ लड़का था जो मुझे अपने साहस और परिश्रम से चिढा रहा था। मेरे मन में एक असुरक्षा की बात बढती गयी। मैं नहीं चाहता था कि वह अनाथ मेरे खुद की संतानों से आगे बढे। इसे पुत्र मोह कहते हैं।
फिर पुत्र मोह में मेने वह किया जो नहीं करना चाहिये। छोटू को घर के काम काज में पूरी तरह लगा दिया। सुबह जगने से लेकर विद्यालय जाने तक और विद्यालय से आकर आधी रात तक उसे फुर्सत नहीं थी। वह जैसे ही अपनी पुस्तकें पढने के लिये उठाता, उसे कोई न कोई काम बता दिया जाता। कुछ नहीं तो छोटू से पैर दबबाने लगता। अब पुत्र से पैर दबबाना कौन सा गलत काम है। इससे पुत्र के मन में अच्छे संस्कार आयेंगे।
अब मैं देख रहा था कि छोटू पढाई में कमजोर पड़ रहा है। साथी अध्यापकों की शिकायतें भी आने लगीं। इससे मन को असीम शांति मिलती। दिखाने के लिये उसे खूब फटकारता।
" समझ में नहीं आता तुझे। तुझपर इतना खर्च क्यों कर रहा हूं। तुझे पढा लिखा कर बड़ा आदमी बनाने का संकल्प लिया है। पर एक तू है कि तुझे चाय की दुकान पर बर्तन मांजना ही पसंद है। शिक्षा का मोल तेरी समझ में नहीं आता। मुझे क्या है। जब संकल्प लिया है तो अपना फर्ज पूरा कर रहा हूं। पर तुम्हें नहीं बदलना। ईश्वर भी अनेकों बार नाइंसाफी करते हैं।एक अनाथ लड़के की जिंदगी संवारने का संकल्प लिया पर उसे पढाई से ही डर लगता है। यह है मेरे और मेरी धर्मपत्नी के त्याग का फल। ईश्वर... ।तेरी क्या लीला है। "
भले ही मैं कोई अभिनेता नहीं हूं पर मुझे लगने लगा कि मेरे भीतर भी एक अभिनेता रहता है। अपने मन के भावों को मन में ही छिपाकर अपने चेहरे पर वह भाव दिखा देना जो मेरे मन में ही नहीं हैं, कहाॅ आसान है।
एक दिन सुबह जगा तो देखा कि छोटू है ही नहीं। छोटू कहाँ गया, यह मेरे लिये गोढ था। मुख्य था कि इस परिस्थिति से कैसे निपटा जाये। कहीं लोग मुझपर आक्षेप न लगाने लगें। कहने लगें कि अनाथ लड़के को इतना परेशान किया कि वह कहीं भाग गया। यह सत्य भी था। पर अपनी अभिनय कला से मेने एक बार फिर सफलता प्राप्त की।
" सत्य कहा है। मनुष्य अपने संस्कार अपने साथ ही लाता है। चूहे के बच्चों को चाहकर भी सिंह नहीं बनाया जा सकता है। सूअर के बच्चों को कितना भी अच्छा खिला लो पर मौका देख बिष्ठा ही खायेंगे। सचमुच मेरी सोच ही गलत थी। एक अनाथ लड़के को पढा लिखा पर उसका जीवन कैसे संवारा जा सकता है। कुछ असर उसके खून का भी तो पड़ेगा। मैडीकल साइंस भी मानता है कि संतान के डीएनए उसके माता पिता से जरूर मिलते हैं। उसे किसी भी परिवेश में रख लो पर उसके मूल संस्कार जोर मारते ही हैं। जरूर किसी चोर उचक्के का खून है उसमें। हमारी इतनी तपस्या के बाद भी घर से पैसे चुराकर भाग गया। मूर्ख मरते भी हैं तो छोटी बातों पर। कितने दिन वह पैसे रहेंगे। एक दिन खर्च हो ही जायेंगें। फिर भटकता फिरेगा। किसी चाय की दुकान पर या ढाबे पर बर्तन मांजता रहेगा। जब ईश्वर का यही विधान है तो हम कर भी क्या सकते हैं। "
मित्रों ने पुलिस में रिपोर्ट करने की सलाह दी। जिसे मेने मना कर दिया। वास्तव में मन में एक अज्ञात डर भी था। रिपोर्ट करने पर पुलिस जांच करेगी। संभव है कि जांच में सच सामने आ जाये। फिर प्रतिष्ठा पर आंच आयेगी। ऐसी बातों से बचना ही बेहतर है।
राहुल की कहानी अतीत बन गयी। फिर न मेने और न मेरी जानकारी में किसी ने किसी का भविष्य बनाने की चैष्टा की। चाय की दुकान पर फिर भी कभी कभी उसकी चर्चा हो जाती थी। किस तरह एक अनाथ लड़के को आसरा देने का परिणाम भुगतना पड़ा। सभी मेरे ही स्वर में बोलते थे। फिर भी कभी कभी मेरे विपक्ष में एक आवाज उठ जाती थी। हालांकि उस आवाज का कोई मोल न था। वह कोई प्रबुद्ध वर्ग का नहीं था। चाय की दुकान चलाने बाले गरीब की बात सभी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते। कुछ तो उसी को बोल देते कि अच्छा रहा कि तुम्हारे यहाँ सैंध नहीं लगायी। अगर तुम्हारी दुकान में चोरी कर लेता तो फिर तुमसे पूछते।
पर चाय बाला अपने निश्चय पर कायम रहा। मेरा भी स्थानांतरण रोहिणी के विद्यालय में हो गया। नया विद्यालय दूर था। तो वहीं किराये का मकान ले लिया। पुराना सब छूट गया। फिर भी कभी कभी लक्ष्मी को उसकी याद आ जाती थी। आखिर छोटू के आने के बाद उसकी काम करने की आदत छूट गयी थी। मजबूरी में मेने घर का काम करने के लिये एक नौकरानी लगा ली। समय पंख बांधकर भागता गया।
आज वह स्थिति आ गयी है कि जिन बच्चों को आगे बढाने के लिये वह कुकर्म किया था, हमें चिढा रहा है। हमारा वह पाप आज भी पुकारता है कि अरे पापी। उस छोटे से बच्चे ने तेरा क्या बिगाड़ा था। तुमने मजबूर किया उसको। पता नहीं जिंदगी की जंग में वह कहाॅ पहुंचा होगा। निश्चित किसी अच्छे स्थान पर तो नहीं। उससे अच्छा तो वह चाय की दुकान पर था। उस हालात में कहीं मेहनत मजदूरी कर रहा हो, तब भी गनीमत है। कहीं दुनिया की ठोकरें खाते खाते उसने अपराध का रास्ता तो नहीं अपना लिया। यदि ऐसा है तो मुख्य अपराधी और कोई नहीं, बल्कि तुम खुद हों। उसे अपराध करने के लिये मजबूर करने बाले तुम खुद ही हो।
छोटू पढ लिखकर कहीं इज्जत की जिंदगी भी जी सकता है, ऐसी अवधारणा पर विश्वास भी नहीं किया जा सकता है। जब इन बच्चों के लिये सब कुछ किया, ये ही कौन सा सफल हो गये। फिर वह तो अनाथ और मजबूर था।
आज मेरा और लक्ष्मी का मन ज्यादा बैचेन है। हम दोनों वृन्दावन जा रहे हैं। जब भी मन ज्यादा बैचेन हो जाता है, बांके बिहारी लाल की शरण में पहुंच जाता हूं। वहीं अपना दुखड़ा रो आता हूं। आज फिर से बांके बिहारी से प्रार्थना करूंगा। एक बार छोटू से मिलना है। उससे माफी मांगनी है। संभव है कि उसके बाद बच्चों के हालात सुधर जायें। मनुष्य खुद ईश्वर का रूप होता है। किसी मनुष्य के की गयी नाइंसाफी को ईश्वर कभी भी माफ नहीं करते। सभी को अपना कर्म फल भोगना होता है। पर क्षमा मांग लेने से कुछ आसानी हो जाती है। या मन उन कर्मफलों को भोगने के लिये तैयार हो जाता है।
बांके बिहारी मदिर में हम दोनों पति और पत्नी प्रार्थना कर रहे हैं। आज हमारी प्रार्थना में कोई आडंबर नहीं है। हमने गलत किया। हम बांके बिहारी लाल से यही कह रहे हैं। बस क्षमा की प्रार्थना कर रहे हैं। न केवल बांके बिहारी लाल से अपितु उस अनाथ बालक से भी। जिसका जीवन बसाने का संकल्प कभी लिया था। भले ही मजबूरी में लिया था।
सामने विशेष दर्शक दीर्घा से एक दर्शक मुझे अपलक देख रहा है। शक्ल कुछ कुछ जानी पहचानी लग रही है। अरे वह तो विशेष दर्शक दीर्घा से बाहर आ रहा है। ठीक मेरे पास। उसके पीछे कुछ पुलिस बाले भी आ गये।
" मास्साब। आप... ।पहचाना मुझे। मैं चाय बाला। जो स्कूल के सामने अपनी दुकान लगाता था।"
अरे। सचमुच वही है। इतने सालों में आयु बढ गयी। आज वह चाय बाला कोई विशिष्ट दर्शक है।
" अरे। तुम्हारा ध्यान कहाँ हैं। डी एम साहब के पिता जी सामान्य दीर्घा में।"
मदिर के प्रबंधक ने कर्मचारी को फटकार लगायी। उठकर खुद वहां आ पहुंचा।
" देखो भाई। यह मेरे खास हैं। इन्हें भी विशेष दर्शन कराने हैं।"
फिर क्या दिक्कत हो सकती है। आज एक डीएम के पिता और उस समय के चाय बाले की अनुकंपा से मेने और लक्ष्मी ने भी विशेष प्रार्थना की जो सामान्य दर्शकों को दुर्लभ है।
पूजा संपन्न हुई। आज मुझे इस चाय बाले से कूछ ईर्ष्या हो रही है। उसका पुत्र डीएम है। शिक्षा का दंभ भरते आये हमारी संतानों के यह हाल।
" तुमने भाई जरूर पुण्य किये होंगे। तुम्हारा पुत्र इतना सुपात्र निकला। ईश्वर उसे और तरक्की दे।"
"पर मास्साब। इसमें कुछ आपका भी योगदान है।"
मुझे कुछ समझ नहीं आया। वह मुझे और लक्ष्मी को लेकर विश्राम गृह की तरफ चल दिया। सभी सुविधाओं युक्त विश्राम गृह। फिर उसने वह कहानी सुनाई जिसे सुनकर मैं खुद उसके पैरों की तरफ झुक गया।
" मास्साब। रात के दो बजे थे। चाय की टपरी के पीछे मेरी एक झुग्गी थी। मैं सो रहा था कि खटपट की आवाज आयी।
" कौन है वहाँ। "
यों ही अकड़ दिखा दी। वैसे हम गलीबों के पास ऐसा क्या था कि कोई चोरी करने आता।
" चाचा। मैं छोटू। "
" अरे। तू मास्साब के घर से यहाँ क्यों आ गया।"
छोटू कुछ बोला नहीं। पर मैं समझ गया। तुरंत घरबाली को जगाया।
" छोटू को लेकर गांव चली जाओ। मास्साब ने जो संकल्प लिया था, उसे अब मैं पूरा करूंगा। निश्चित ही हमारी सोच छोटी थी। बच्चे को पढाने में क्या खर्च लगता है। यदि लगता है तो भी वह खर्च हम करेंगें। ईश्वर ने हमें कोई औलाद नहीं दी। आज से छोटू हमारी औलाद होगा। छोटू को पढा लिखा कर उसे बड़ा आदमी बनाऊंगा। यह मेरा संकल्प है। "
मेरी औरत सुबह होते ही छोटू को लेकर गांव चली गयी। वहीं वह पढता रहा। उसका खर्च हम करते रहे। जब छोटू थोड़ा बड़ा हुआ तो ट्यूशन पढाकर खर्च निकालने लगा। आप सही बोलते थे मास्साब। छोटू ने कभी खर्च के लिये हमें परेशान नहीं किया। वही छोटू, मेरा पुत्र, इस समय मथुरा जिले का डीएम है। हम पिता पुत्र ने आपको बहुत जगह ढूंढा। आपको धन्यवाद देना था। छोटू की उन्नति में आपका बहुत योगदान है। आखिर आपके संकल्प को उसने इतनी गहराई से ले लिया। "
अब मेरे हाथ और पैर कांप रहे हैं। फिर भी छोटू से मिलना है। उससे क्षमा मांगनी है। कुछ देर विश्राम कर उस चाय बाले के साथ हम मथुरा निकल लिये। मथुरा में जब एक विशाल बंगले में घुस रहे थे तो बाहर नेम प्लेट देखकर रूक गया।
" राहुल कुमार.. आई ए एस। "
मैं और लक्ष्मी अविचल भाव से उस नेम प्लेट को देख रहे हैं।संकल्प हमेशा पूर्ण होते हैं। भले ही दिखावे के लिये संकल्प लिया हो। यह नाम पट्टिका उस संकल्प की पूर्ति का साक्षात प्रमाण है।
भीतर से एक युवक आकर मुझे और लक्ष्मी को प्रणाम करने लगा।
" मास्साब। यही आपका छोटू है। इतना बड़ा हो गया है।"
फिर मेने छोटू को गले लगा लिया। आंखों से आंसुओं की बारिश होने लगी। मेरे पाप का भी ऐसा परिणाम कि वह किसी के जीवन का इस तरह संकल्प बन गया। अब मेरा प्रायश्चित पूर्ण हुआ। शायद बाके बिहारी को मुझपर अब दया आ जाये। मेरे बच्चों का भविष्य सुखद हो जाये।
