संगदिल
संगदिल
"जाते—जाते मिलना चाहता है उससे?" —पिताजी ने रूखी सी आवाज में मुझसे पूछा।
सिर झुकाये-झुकाये मैंने गर्दन हिला कर मना कर दिया।
"शर्मा जी छोड़िये ना, गलती हो जाती है, जवान लड़का है।" —पिताजी के मित्र श्याम तिवारी जो अलोपीबाग़ में रहते थे, बोले। अशोक नगर में मेरे कोचिंग के पास का ये किराये का कमरा उन्हीं ने दिलवाया था।
"देखिये तिवारी जी, मेरी आर्थिक हालत की जानकारी है इसे, अपने तीन बच्चों की पढ़ाई, ट्यूशन की कटौती करके भेजा है इसे यहाँ इलाहबाद में ५०० किलोमीटर दूर प्रशासनिक परीक्षा की तैयारी करने के लिए, तुम्हें तो पता है कैटल फीड स्टोर के अलावा मेरी आमदनी का कोई जरिया नहीं है, और ये यहाँ इश्क लड़ा रहा है उसी मंगली विधवा के साथ।" —पिताजी गुस्से से बोले।
"गुस्सा छोड़ो शर्मा जी, अब मैं इसे अपने घर ले जा रहा हूँ, पूरा ध्यान रखूँगा इसका।" —तिवारी जी पिताजी को समझाते हुए बोले।
"ले जाओ इसे, लेकिन मेरा भरोसा नहीं रहा इस पर, कोचिंग का पूरा पैसा भरा है इसलिए छोड़ कर जा रहा हूँ इसे।" —पिताजी निराशा के साथ बोले।
हम तीनों मेरा थोड़ा सा सामान उठा कर घर से बाहर चले आये, अम्मा जी मेरे अचानक चले जाने से हैरान थी, लेकिन बोली कुछ नहीं। रजनी शायद अंदर के कमरे में थी, वो तो नजर भी नहीं आयी थी।
रजनी से मेरी मुलाकात इलाहाबाद के मेरे आठ महीने के प्रवास के पहले रोज ही हो गयी थी। पिताजी और तिवारी जी अशोक नगर में मेरे कमरे में मेरा सामान छोड़ कर चले गए थे। और मैं छत पर बने इस छोटे से कमरे में अपनी किताबें और दूसरी चीजे ठीक से लगाने का प्रयास कर रहा था। इस सब में कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला।
शाम को मकान मालकिन अम्मा जी खाना खाने के लिए पूछने आयी तो मैंने मना कर दिया। थोड़ी देर बाद दुबली-पतली, सांवली सी एक लड़की चाय लेकर आयी और कप को मेरी मेज पर रख कर चली गयी बिना बोले, बिना कुछ कहे।
मैंने ख़ामोशी से चाय पी और घर का लाया कुछ खा कर सो गया।
सुबह फिर वो लड़की चाय लेकर आ गयी और कप मेरे सामने रखकर चली गयी।
यही शाम को हुआ, इस बार चाय के साथ कुछ नाश्ता भी था।
"कैसी लगी हमारी मेहमाननवाजी?" —लड़की ने मुझसे पूछा।
मैं कुछ न कह सका।
"एन्जॉय इट, अम्मा मेहरबान है तुम पर।"
"क्यों?" —मैंने संकोच के साथ पूछा।
"दो वजह है, एक तो तुम ब्राह्मण हो, दूसरे अभी तुम कुंवारे हो।"
"उससे क्या होता है?" —मैंने थोड़े आश्चर्य के साथ पूछा।
"अनजान मत बनो, तुम पहले नहीं हो जिसे मैंने चाय पिलाई है।"
मैं खामोश रहा।
"लेकिन जिसने मेरी एडवांटेज लेने की कोशिश की, वो रजनी की जूती से पिटा है और लात खाकर निकला है यहाँ से।" —वो लड़की आँखें मेरे ऊपर गड़ाते हुए बोली।
"रजनी कौन?"
"मैं, और कौन।"
"मुझे इस सबकी फुर्सत नहीं है, किसी मकसद से आया हूँ यहाँ।"
"तो फिर बेफिक्र हो कर चाय पियो नाश्ता खाओ।" —कहकर वो चली गयी।
जॉब पाने का ऐसा जुनून था की कोचिंग और पढ़ाई के अलावा कुछ सूझता ही नहीं था, कभी—कभी रात का खाना भी भूल जाता था।
एक दिन रजनी शाम को खाना लेकर चली आयी और बोली, "जहाँ दो जन का खाना बनता है, तुम्हारा भी बन जाया करेगा, तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो।"
कुछ दिन बाद अम्मा जी रजनी की जगह खाना ले कर आयी और रजनी को लेकर अपनी चिंता से मुझे अवगत कराते हुए कहा की उनके बाद रजनी का ना जाने क्या होगा, एक तो मंगली दूसरे विधवा, कौन शादी करेगा उससे।
अम्मा के जाने के बाद मैं भी रजनी के बारे में सोचता रहा, लेकिन समस्या का समाधान तो केवल रजनी के पास ही था।
अगले कुछ दिन रजनी नजर नहीं आयी, अम्मा जी ही आती रही। एक सप्ताह बाद जब वो आयी तो बोली— "कुछ हमदर्दी जागी मेरे लिए, अम्मा की बातों से?"
मैं सिर हिलाते हुए बोला— "बात हमदर्दी की नहीं है, आपके फ्यूचर की है, पढ़ी-लिखी हो कुछ करती क्यों नहीं?"
"करती हूँ ना, बच्चों को ट्यूशन देती हूँ।"
"पोस्टग्रेजुएट हो, नेट या लेक्चररशिप की तैयारी करनी चाहिए आपको।"
"वो सब सपने पति की चिता के साथ जल गए है, लोग मुझे उनकी मौत का जिम्मेदार मानते है मेरे मंगली होने के कारण, इस बात पर पूरा विश्वास हो चुका है की मेरे मंगली होने के कारण ही मेरे पति की मृत्यु हुई है। तुम मेरे बारे में मत सोचो, अपनी जिंदगी बनाओ और चले जाओ इस नर्क से, मुझे तो यही रहना है।" —रजनी की आवाज में निराशा भरी थी।
उसके बाद हम दोनों के बीच में खामोशी की एक दीवार सी बन गयी, मेरे पास कुछ पूछने को ना था न उसके पास कुछ बताने को।
एक सप्ताह बाद ख़ामोशी की दीवार उसने ही तोड़ी और मुझसे पूछा— "नेट की परीक्षा के फॉर्म कब निकलेंगे?"
मैंने उत्साह में आकर अपने कोचिंग से जानकारी लेकर उसे सब बता दिया, और नेट की तैयारी कर रहे दूसरे स्टूडेंट्स के नोट्स की फोटो कॉपी करा कर रजनी को दे दी।
"अब इन्हें पढ़ायेगा कौन?" रजनी ने पूछा।
"जो कुछ कॉमन है वो तो मैं ही पढ़ा दूंगा, बाकी अपने आप तैयार कर लेना।" —मैंने कहा।
"डन, फीस क्या लोगे?" —रजनी ने पूछा।
"कुछ नहीं।" —मैंने जवाब दिया।
"फ्री नहीं पढ़ना मुझे।" —रजनी बोली।
"पहले क्वालीफाई करो, जॉब करो और जो जी में आये दे देना।" —मैंने समझाया।
"ये चलेगा।" —रजनी ने प्रसन्नता के साथ कहा।
उसके बाद पठन-पाठन का सिलसिला चल पड़ा, और एक अजीब सा रिश्ता बनने लगा हम दोनों के बीच, कोई नाम ना था इस रिश्ते का। एक खामोश सा रिश्ता जिसमें कभी रजनी मेरे करियर को लेकर चिंतित हो जाती कभी मैं उसके भविष्य को लेकर परेशान हो जाता। दोनों के मध्य शब्द कम थे लेकिन ख़ामोशी बहुत कुछ बोलती रहती थी हम दोनों के बीच।
ऐसी ही एक सुबह मैं रीज़निंग की कोई प्रॉब्लम रजनी को समझा रहा था और ना जाने किस बात पर दोनों को हंसी आ गयी और उसी समय पिता जी का आगमन हुआ, हम दोनों को हँसता देख पिताजी आश्चर्यचकित हो गए और बोले— "लगता है जबरदस्त पढ़ाई चल रही है ?"
रजनी घबरा कर पिता जी को नमस्ते करके चली गयी।
उसके बाद पिताजी ने अपना सारा गुस्सा मेरे ऊपर निकाला, मुझे सफाई देने तक का मौका न दिया।
पिता जी के जाने के बाद, तिवारी जी ने मुझे अपने परिवार के सदस्य की तरह उनके अलोपीबाग वाले घर में रखा। उनका घर तो छोटा था लेकिन उन्होंने मेरी पढ़ाई को कभी कोई समस्या नहीं आने दी।
एक आध बार मैं रजनी से भी मिलने गया उसने मुझ से कोई बात ना की बस अपनी पढ़ाई में बिज़ी रहने का दिखावा करती रही।
मैंने सिविल सर्विसेज़ के अलावा दूसरे एक्ज़ाम्स की तैयारी भी जारी रखी और एक दिन मेरे इलाहबाद प्रवास का अंत हुआ और मै वापस घर आ गया और पिताजी के काम में हाथ बँटाने लगा।
और फिर मेरे दिए एक्ज़ाम्स के रिज़ल्ट आने शुरू हो गए, कई एक्ज़ाम्स क्वालीफाई किये और दो साल बाद कस्टम ऑफिसर बनकर मुंबई एयरपोर्ट पर पोस्टेड हो गया।
जिंदगी में सब कुछ पाकर भी कुछ कमी सी थी, रजनी की याद अक्सर आती थी। याद आते थे वो वादे जो कभी किये ही नहीं गए थे। याद आये वो पल जो उस अनजान से रिश्ते ने जिए थे। मोबाइल फ़ोन उसने कभी रखा ही नहीं था, कहाँ कॉल करता उसे। प्रोबेशन पीरियड में छुट्टियाँ नहीं थी इसलिए कभी इलाहाबाद जाने की सोच भी ना सका।
दो साल के प्रोबेशन में घर वाले शादी का दबाव बनाये रहे और रिश्तों की लाइन लगी रही, लेकिन मेरी ना के सामने सब हार कर बैठ गए।
आज चार साल बाद इलाहाबाद एयरपोर्ट पर उतरा हूँ और टैक्सी करके निकला अशोक नगर की और, सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा है।
अंत में जा पहुँचा अशोक नगर के बाहरी छोर पर उस उजड़े से मकान के सामने।
"भैया, यहाँ कोई अम्मा जी, रजनी नहीं रहते है। हमने तो ये मकान लाला दया शंकर से लिया था। उनके घर में ना तो कोई अम्मा थी ना कोई रजनी।" —एक डरी हुई सी महिला ने मकान से बाहर आकर बताया।
बड़ी मुश्किल से वो महिला लाला दया शंकर का पता बता पायी। मम्फोर्डगंज में प्लास्टिक क्रॉकरी की दुकान थी उनकी।
"हाँ वो मकान मैंने ही खरीदा था, दो माँ-बेटी रहते थे उसमें। जब मैंने वो मकान खरीदा तो माँ की मौत हो चुकी थी। लड़की खोयी-खोयी सी रहती थी और कहती रहती थी— "संगदिल, अब तो आ जाओ।"
"कहाँ है वो लड़की?" —मैंने पूछा।
"मैंने मकान एक ब्रोकर के जरिये खरीदा था, इस लिए बता नहीं सकता।"
"मुझे ब्रोकर का नाम पता दीजिए, मेरा उस लड़की के पास जाना बहुत जरूरी है।"
ब्रोकर का पता लेकर मैं वापिस अशोक नगर चल पड़ा, वही का तो है वो ब्रोकर, हो सकता है वो इस संगदिल को रजनी तक पहुँचने का रास्ता बता दे।