स्नेह का द्वार
स्नेह का द्वार
तीनों भाई बहन थोड़ी दूर से ही वापस आ गए थे। क्योंकि उनका मन मां को छोड़कर जाने का नहीं कर रहा था।
मैंने जैसे ही दरवाजा खोला, बच्चों को एक साथ दरवाजे पर खड़ा देखकर ठिठक गई।
अरे क्या हुआ?
इतनी जल्दी वापस कैसे आ गए क्या गाड़ी खराब हो गई?
अरे मां कुछ ऐसा ही समझ लो!
बंटी ने बहाना बनाते हुए कहा तुमने जो खाना बनाया था वह तो हम ले जाना ही भूल गए।
मैं भी कैसी पगली हूं मैं तुम्हारे बैग में खाना रखना कैसे भूल गई?
यह तो मेरी जिम्मेदारी है मुझे ध्यान रखना चाहिए तुम्हारी छोटी सी छोटी बातों का।
क्या करूं तबीयत थोड़ा ठीक नहीं और मुझे याद ही नहीं रहा मैं आत्मग्लानि से भर जाती हूं।
मोना मेरी बेटी जब तक अंदर जाकर मेरे कपड़े एक बैग में रख लेती है।
तीनों बच्चों का मन उन्हें धिक्कार रहा था कि मां के त्याग का कोई मूल्य छुपाया जा सकता है क्या?
तीनों कुछ दूरी से ही वापस आ गए। तीनों बच्चों ने निश्चय किया की जिस मां ने हम लोगों की खुशी के लिए अपनी इच्छाओं को कभी हमारे सामने जाहिर नहीं किया। क्या अब हमारी बारी नहीं कि उनके त्याग को समझे।
तीनों ने मुझे बांहों में भर लिया। मां आपके बगैर हम कैसे खुश रह सकते हैं। और कितना त्याग करोगी मां??
क्या तुम्हारी इच्छा ही नहीं होती कहीं घूमने के कुछ नया खाने की कुछ आराम करने की।
अब आपको और कुछ भी त्याग करने की आवश्यकता नहीं है। इतना कहकर बच्चों ने मेरा बैग उठाया और अपने साथ लेकर निकल पड़े। मां हम जो भी हैं आपकी वजह से ही है।
तीनों का प्यार और स्नेह देखकर मैं भाव विभोर होकर अपने नैनों से बहते अश्रु धारों को न रोक सकी ।
आज मुझे अपनी त्याग का फल मिल चुका था।
जिन्हें स्नेह से सिंचित किया वह अब फलों के द्वारा आनंद प्रदान कर मेरे अधरों की छुधा को तृप्त कर रहे थे।
मैं स्नेह के द्वार में प्रवेश कर स्वयं को धन्य महसूस कर रही थी।
मेरा त्याग मेरी तपस्या बन चुका था जिसका फल अब मुझे आनंद प्रदान कर रहा था।