समाज को मेरा जवाब
समाज को मेरा जवाब
कानों में साँय-साँय करती हवा गालों पर तमाचे जैसी पड़ रही थी। सुनीता सामने बिस्तर पर लेटी थी। बिना पलक झपके वो लगातार मुझे घूरे जा रही थी। चाहता तो मैं भी था, उसके चेहरे से अपनी नज़रें न हटाऊँ। पर उससे मज़ाक-मज़ाक में किया गया वायदा मेरे लिए बेड़ियाँ बन चुका था।
उसकी आँखों पर धार बांध चुके आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे और उसने हमारे प्यार की कसम दे कर कहा था कि अगर उसे कुछ हो गया, तो उसकी खुशी के लिए मैं एक आँसू न बहाऊँगा। चेहरे पर जितनी चौड़ी मुस्कुराहट से उसने ये बात कही थी, उतनी ही आसानी से मैंने भी हाँ कह दी थी। पर क्या पता था, जोखिम उठाने की बात सोचने भर का ये एक फ़ैसला पूरी जिंदगी के लिए इतना बड़ा जख्म बन जायेगा।
वो लगातार मेरी तरफ देख रही थी पर मैं उससे आँख भी नहीं मिला पा रहा था। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। उसकी आँखें कभी भी बंद हो सकती थीं। अपने जेहन के इस डर को अपने आँसुओं से मैं उससे कह नहीं सकता था। और अंदर ही अंदर मुझे कचोटती सबसे बड़ी परेशानी ये थी की इस ग़लती का इल्ज़ाम मैं किस पर लगाऊँ, ये मैं नहीं जानता था।
फ़ैसला हम दोनों ने मिल कर लिया था। हर किसी की ख्वाहिश, हर खुशी का पूरा ध्यान रखा था। मेरे माँ-बाबा, उसके माँ-बाबा सभी ने कितनी बार तो हमसे पूछा था कि हम खुश-खबरी कब दे रहे हैं? और हम दोनों को भी हमारे प्यार की निशानी कहलाने के लिए एक बच्चा तो चाहिए ही था।
पहले ही चेकअप में डॉक्टर ने बता दिया था की सुनीता अगर गर्भवती होगी, माँ-बच्चे दोनों के लिए परेशानी हो सकती है। डॉक्टर की बात सुनते ही मैने सीधा फ़ैसला ले लिया था कि मुझे कोई जोखिम नहीं उठाना। पर सुनीता ने अपने हौसले से, अपने दम पर फिर से हमेशा जैसी हिम्मत दिखाई थी।
वो जानती थी की मेरी माँ को अपने रिश्तेदारों को जवाब देना था। उसे खुद भी अपने रिश्तेदारों को बताना था कि उसकी गोद कब उसके ससुराल में खिलखिलाहट लाने वाली है। वो खुद से जुड़े हर रिश्ते को खुश रखना चाहती थी। इसके लिए उसने अपनी जान का दाँव लगाने में भी एक बार को नहीं सोचा। उसकी हिम्मत देखकर मैंने भी उसकी हाँ में हाँ मिला दी थी। और आज एकदम से वो हो चुका था, जिसके डर से मैं हमेशा हिचकता रहा था। सच को धोखा देने की कोशिश एकाएक इतनी महँगी पड़ गयी थी कि अब कोई भी चारा न बचा था।
सुनीता की कोख में पल रहा हमारे प्यार का बीज दो दिन पहले ही दम तोड़ चुका था। दो दिनों की अनजानता, या फिर बेहतर कहा जाये, तो दो दिनों की लापरवाही से सुनीता के जिस्म में जो जहर फैल गया था, उसका कोई इलाज डॉक्टरों के पास नहीं था। फिर भी उसके और मेरे माँ-बाबू जी, दोनों को ही आस थी की शायद कोई करिश्मा हो जाए और अपने इसी विश्वास में जब से सुनीता अस्पताल में थी, वो अस्पताल के बाहर बने मंदिर में उपवास रखे बैठे थे।
सुनीता की उस आख़िरी हिचकी के साथ सारी आस ख़त्म हो गयी। चार जोड़ी बूढ़ी आँखों का दो दिन का उपवास किसी काम न आया। देखते ही देखते हमारा सब कुछ ख़त्म हो चुका था। पर लोगों के पास अभी भी ढेर सवाल थे। दो-एक बातें तो खुद मेरे कानों में उस वक्त पड़ीं, जब सुनीता की अर्थी मेरे कंधों पर थी। और उन लोगों को तब भी ज़रा शर्म न आई, जब मैं अपनी बीवी की चिता की अग्नि को देख रहा था और वो मेरे पीछे खड़े माँ-बाबू जी से कह रहे थे-
“बहुत अफ़सोस हुआ जानकर। जहाँ किलकारी गूंजने वाली थी, वहाँ आज चिता जल रही है। पर होनी को भला कौन टाल सकता है? घर का चिराग लाने वाली तो आँगन को सूना ही छोड़कर चली गयी। लड़के की अब तो आप को फिर से शादी करनी पड़ेगी. मेरी मानिए, तो इस बार शादी से पहले ही लड़की का डॉक्टरी चेकअप वगैरह करा लीजिएगा।”
सुनते-सुनते गर्दन अपने आप जवाब देने के लिए घूम गयी। पर जवाब होठों पर न आ पाया। आँखों से बहती धार में हर शब्द ऐसा बहा कि गला अपना ही थूक पीकर रह गया। फिर एक बार को गर्दन इधर-उधर घुमाई। नज़रें जिधर टिकीं, बाजुओं से आँसू की बूँदें पोछते हुए एक ओर को चल पड़ा। शमशान घाट के मैदान में हाथ फैलाये बच्चों में से एक लड़की के सर पर हाथ रखते हुए सामने खड़ी लोगों की भीड़ से चिल्लाकर बोला मैं-
“ये है मेरे घर का चिराग। ये है मेरे घर की खुश-खबरी। ये है मेरी सुनीता। किसी को और कुछ जवाब चाहिए।”
चीखती हुई आवाज़ सुनकर भीड़ के लोग बड़बड़ाते हुए एक तरफ को चल पड़े। भीड़ के बीच खड़ी मेरी माँ ने अपना सर झुका लिया। बाबू जी उनके बगल में जाकर खड़े हो गये। सभी की नाराज़गी से ध्यान हटाकर मैं सामने खड़ी बच्ची से उसके बारे में पूछने लगा। फिर थोड़ी देर में जब खुद को समाज कहने वाली भीड़ मेरे परिवार को अकेला छोड़कर शमशान-घाट से बाहर निकल गयी, मैंने सर उठाकर देखा। मैं वहाँ अकेला था। पर बिल्कुल अकेला नहीं। मेरे घर के चिराग और समाज को मेरे जवाब को सहारा देने के लिए मेरे सास-ससुर मेरे पीछे आ खड़े हुए थे।
