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Priyanka Gupta

Classics Others

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Priyanka Gupta

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सिर्फ एक मतीरे के लिए #Prompt 23

सिर्फ एक मतीरे के लिए #Prompt 23

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आज भले ही हम लोकतंत्र में रह रहे हैं ,जहाँ हमारे द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि हम पर शासन करते हैं । ये अलग बात है कि यह सिर्फ कहने को लोकतंत्र है,लेकिन वंशवाद तथा धन -बल से मजबूत लोगों के ही सत्ता में आने के कारण इसे आभासी लोकतंत्र कहना अधिक उपयुक्त होगा। 

लेकिन यह उस दौर की कहानी है जब राजस्थान में राजतन्त्र था। राजस्थान के विभिन्न भागों पर भिन्न -भिन्न राजपूत वंशों जैसे सिसोदिया ,कछवाहा ,राठौड़ आदि का शासन था। राजपूत शुरू से ही अपनी आन,बान,शान के लिए जाने जाते रहे हैं और वह दौर तो कुछ और ही था ,जहाँ राजपूतों में युद्ध करना और युद्ध में वीरगति प्राप्त करना बड़े ही गर्व की बात मानी जाती थी। उनका उद्देश्य केवल युद्ध जीतना मात्र नहीं होता था , बल्कि प्रसिद्धि और सम्मान प्राप्त करना भी होता था ,इसलिए ही शस्त्रहीन शत्रु पर आक्रमण न करना ,शरणागत की रक्षा करना आदि सिद्धांतों का कठोरता से पालन करते थे। 

युद्ध करना राजपूत अपना धर्म और कर्तव्य मानते थे । युद्ध से बचना या युद्ध को टालना कायरता माना जाता था। राजपूत कायर कहलाने से मर जाना बेहतर समझते थे। कभी -कभी ऐसी बातों पर भी युद्ध हो जाते थे , जिन पर आज के दौर में चर्चा करना भी शायद वक़्त की बर्बाद समझी जाए। 

उसी दौर में मेड़ता पर सिसोदिया वंश के राजा रतनसिंह का और बीकानेर में राठौड़ वंशी राजा करणसिंह का शासन था। दोनों पडोसी रियासतें थी। राजा अपने मंत्रियों ,सेनापति आदि को नगद वेतन नहीं देते थे ;बल्कि जागीरें दे देते थे। जागीर से होने वाली आय का कुछ हिस्सा राजा के मातहत मंत्री ,सेनापति आदि अपने लिए खर्च करते थे और शेष राजकोष में राजा और उसके दरबार के खर्चों के लिए जमा करा देते थे। 

लगान ,लाग -बाग़ आदि जागीर से आय के साधन थे। राजा के मातहत कर्मचारी स्वयं किसानों से लगान नहीं वसूलते थे ,बल्कि वह अपनी जागीरें जागीरदारों और जमींदारों को दे देते थे।

 यह जागीरदार और जमींदार गाँवों में रहते थे ,किसानों से लगान वसूलते थे ; उन्हें आवश्यकता होने पर ऋण देते थे ;सिंचाई आदि का प्रबंध करते थे ;गांव की कानून और व्यवस्था देखते थे। दोनों पडोसी रियासतों की सीमाओं पर दो गांव थे। कुंदनपुर मेड़ता का और चंदनपुर बीकानेर का। दोनों गाँवों की सीमाएं एक दूसरे को छूती थी। 

कुंदनपुर के किसान हीरा सिंह और चंदनपुर के किसान वीर सिंह के खेतों को एक मेड़ एक -दूसरे से अलग करती थी। हम कह सकते हैं कि यह मेड़ दोनों रियासतों के मध्य एक सीमा की तरह थी। इस मेड़ के किनारों पर एक मतीरे की बेल लग गयी थी। 

हीरा सिंह और वीर सिंह के मध्य एक आपसी समझ विकसित हो गयी थी कि , मेड़ के किनारों पर चाहे कोई भी पौधा ,पेड़ ,बेल आदि कुछ भी उगे ,लेकिन उस पर आने वाले फल और फूल वह तोड़ लेगा ,जिसके हिस्से या जिसकी तरफ वह फल या फूल उगा हुआ होगा। 

मतीरे की बेल पर भी मतीरे आने लगे थे। दोनों अपनी -अपनी तरफ के मतीरे तोड़ लेते थे। लेकिन एक मतीरे को लेकर दोनों में विवाद हो गया था। इस मतीरे का कुछ हिस्सा हीरा सिंह की तरफ था और कुछ हिस्सा वीर सिंह की तरफ था। दोनों का कहना था कि उनकी तरफवाला मतीरे का हिस्सा बड़ा है ,अतः वह उस मतीरे का दावेदार है। 

दोनों की बहस हाथापाई तक पहुँच गयी ,दोनों को ही चोटें आयी। आसपास के किसान भी आ गए ,बात दोनों ही गाँवों के ज़मींदारों तक पहुंची। कुछ देर में ही दोनों तरफ के जमींदार अपने कारिंदों के साथ घटनास्थल पर पहुँच गए थे। 

हीरा सिंह और वीर सिंह ने अपना -अपना पक्ष मजबूती से रखा और मतीरे पर दावा ठोका। दोनों जमींदारों ने अपनी -अपनी तरफ के किसानों के दावे को सही माना। वाद -विवाद बहुत अधिक बढ़ गया था। 

जमींदारों ने अपने -अपने मंत्रियों को इससे अवगत करवाया। अब बात सिर्फ मतीरे की नहीं थी ,हक़ की हो गयी थी। कोई भी पक्ष अपने हक़ को छोड़ना नहीं चाहता था। उनका कहना था कि ," आज अगर अपना हक़ छोड़ दिया ,तो कल को हमारी जमीन ,हमारी धरती माता पर हक़ जातायेंगे। हम युद्ध से नहीं डरते ,हम अपने हक़ के लिए प्राण दे भी सकते हैं तो ले भी सकते हैं। "

मंत्रियों से बात राजा रतन सिंह और करण सिंह तक पहुंची। दोनों राजा भी अपने हक़ को हर मूल्य पर पाने की अभिलाषी थे। समझौते के प्रयास भी हुए ,लेकिन सब विफल। कोई भी राजा अपने आपको अपनी प्रजा के समक्ष कायर नहीं कहलवाना चाहता था। 

दोनों राजाओं ने अपनी -अपनी सेनाएं तैयार कर ली और युद्ध की उद्घोषणा कर दी। युद्ध की रणभेरी से आकाश गूँज उठा। युद्ध प्रारम्भ हो गया था। तलवारों की टंकारें और घायलों की चीख पुकारें सुनाई दे रही थी। मृत सैनिकों के घर में मचे हाहाकार ने धरती का भी दिल दहला दिया था। वह मतीरा तो कब का ही बेल पर सूखकर नष्ट हो गया था ,नष्ट होने से पहले मतीरे को अपनी किस्मत पर रश्क हुआ होगा या मानव की मति पर दुःख यह कोई नहीं जानता। 

दोनों राजा मृत्यु को प्राप्त हुए। उनकी मृत्यु से ही मतीरे के कारण प्रारम्भ हुआ युद्ध बंद हुआ। युद्ध से हुए नुक्सान की क्षतिपूर्ति के लिए वीर सिंह और हीरा सिंह जैसे किसानों का लगान दोनों ही पक्षों के जमींदारों द्वारा बढ़ा दिया गया था। बाद में हीरा सिंह और वीर सिंह ने एक -दूसरे से कहा ," सिर्फ एक मतीरे के लिए। "


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