सीख दुष्परिणाम से
सीख दुष्परिणाम से
यह मानव प्रवृत्ति है कि वह कभी भी किसी विश्वास दृढ़ कर ले या पहले के किसी दृढ़ विश्वास पर से उसका विश्वास उठ जाए। मेरा मानना है ऐसा करने में लेशमात्र बुराई नहीं है। किसी भी तथ्य के प्रति सकारात्मक या उसके प्रति नकारात्मक धारणा उसके बारे में जानकारी करने के उपरांत ही बनानी चाहिए। समय, परिस्थितियों के साथ ही साथ स्थिति बदल ही सकती है इसलिए हमें किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से सदैव मुक्त रहते हुए अपने-आपको अपडेट करते रहना चाहिए। किसी भी सकारात्मक परिवर्तन को स्वीकार करने और वर्तमान परिस्थितियों के अनुरूप स्वयं को परिवर्तित करने को तैयार रहना चाहिए। कोई भी निर्णय या बदलाव किसी की देखा देखी नहीं बल्कि अपने अंतर्मन की आवाज, इस अपनी रुचि और क्षमता के आधार पर ही किया जाना चाहिए।
हमारे साथी हरीश चंद्र जी बहुत ईमानदार, कर्मठ, सरल और सज्जन व्यक्ति हैं। प्रायः हम सब कार्यालय के कार्य को निबटा साथियों का कुशल क्षेम पूछते हैं लेकिन हरीश चंद्र जी प्रायः अपने कार्य में अनवरत व्यस्त रहते हैं। यदि कोई भी व्यक्ति कभी भी उनके इस व्यस्तता के बारे में कुछ पूछता है तो वे कहते-"मुझे परिवार के माता पिता और बड़ों के माध्यम से यह सीख मिली है कि किसी कार्य के लिए हम किसी व्यक्ति से यदि एक सौ रुपया लेते हैं तो हम उसके लिए उस पैसे का कम से ₹ 100 वापस तैयार करने के लिए पूरी सजगता के साथ रहिए। महात्मा गांधी जी के अनुसार जो श्रम किए बिना अन्न ग्रहण कर लेता है वह चोरी का अन्न है। इसलिए हम सबको हमारे सद्गुणों एवं धर्म की राह पर ही चलना है।"
जब उनसे पूछते -" आपका स्वभाव, आचरण और व्यवहार सदैव ऐसे ही ऐसा रहा है या किसी विशेष घटना के कारण हुआ है ?
तो वे बताते-"जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था तो हमारे गांव के मुखिया जी के इकलौते बेटे की अकाल मृत्यु हो गई थी जिसके उत्तरदाई स्वयं वे ही थे। सभी के मुख से उस समय एक ही बात सुनी जाती थी कि मुखिया जी की बेईमानी का ही यह दुष्परिणाम है। मुखिया जी ड्रग्स के एक बड़े ग्रुप को संचालित करते थे। आप सब जानते ही हैं ड्रग्स व्यक्ति के शारीरिक, आर्थिक, मानसिक, नैतिक आदि के पतन के लिए उत्तरदायित्व हैं। मुखिया जी अपने ड्रग्स के इस ग्रुप के माध्यम से अपने ही नहीं आसपास के गांवों के नवयुवकों की बरबादी और उनके परिवारों में पारिवारिक कलह का बीज बो रहे थे। जब स्वयं उनका अपना बेटा उनके ही बनाए ड्रग्स के चक्रव्यूह में फंस गया और अकाल ही काल के गाल में समा गया तो उन्हें भयंकर आत्मग्लानि हुई। वास्तविक जीवन में न कम्प्यूटर की तरह 'अन डू' कमांड नहीं होती है और न ही फिल्म की तरह गलत लिए गए शॉट के 'रि टेक' का अवसर नहीं होता। मुखिया जी का बेटा फिर से तो जीवित न रह सका पर इस दुर्घटना से मुखिया जी का जीवन बदल गया ।अभी तक जो व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों के जीवन से खिलवाड़ करता चला आया था अब पहले वाले व्यवहार का ठीक उल्टा देखा गया। अपना शेष जीवन पूरी ईमानदारी के साथ साथ स्वार्थ भावना को पूरी तरह से त्यागकर परमार्थ में तन-मन और धन समर्पित कर दिया। उनका बेटा अपना जीवन देकर अनेकानेक युवकों का जीवन बचा गया और अपनी पिताजी का जीवन बदल गया।
मेरी आयु उस बहुत अधिक नहीं थी इस घटना की अमिट छाप मेरे मन-मस्तिष्क पर पड़ी और आज मेरे चरित्र में जो भी सकारात्मक दिखता है उसका श्रेय इसी घटना को जाता है।
