श्राद्ध
श्राद्ध
पंडित जी, आपने तो थोड़ा ही खाया । अरे भरपेट खाइये न। आखिर मेरे पिता जी का श्राद्ध हैं। बस उनकी आत्मा तृप्त हो जाएं ! ये काले गुलाब जामुन, एक और लीजिये। पिता जी को बहुत पसंद थे। ", नितिन आग्रह कर कर के पंडित जी को खिला रहा था।
" और हाँ, ये खादी की जैकट है। पिता जी को बहुत पसंद थी। आप पहनेंगे तो मुझे लगेगा कि पिता जी ने पहन ली। वाह ! बहुत जँच रही है आप पर ! और ये थोड़ी सी दक्षिणा ", कहते कहते नितिन ने पांच सौ का नोट पंडित जी के हाथ पर रख दिया।
पंडित जी ने आशीर्वाद की झड़ी लगा दी।
सामान का भारी थैला उठाते हुए सोचने लगे कि ये शायद उनके द्वारा कही गयी बात का प्रभाव है। नितिन कई बरसों से अपनी प्रोमोशन की प्रतीक्षा कर रहा था लेकिन कोई न कोई अड़चन आ ही जाती।
अभी पिछले महीने ही आया था अपनी जन्मपत्री लेकर ! पंडित जी ने देखते ही कारण पकड़ लिया। पितृ दोष था , कालसर्प दोष भी। बड़ों की सेवा करने का उपाय बताया और विधिवत पितरों का श्राद्ध। आज उसी का परिणाम दिखाई दे रहा था।
पंडित जी इस परिवार को बरसों से जानते थे। नितिन की माँ नितिन के जन्म के कुछ ही बरस बाद गुज़र गयीं। शर्मा जी ने प्राइवेट नौकरी करते हुए बड़े जतन से नितिन को पाला। लेकिन वही शर्मा जी बूढ़े होते ही परिवार की आंखों में खटकने लगे। पंडित जी ने बरसों तक उन्हें एक ही घिसी हुई जैकेट में देखा। वे रोज़ मंदिर आते थे। प्रसाद में उनकी दृष्टि गुलाब जामुन पर रहती। बर्फी वापिस करके वे गुलाब जामुन मांग लेते।
काश बेटा जीते जी पिता की पसंद की चीजें लाता। बड़ों के आशीर्वाद से बच्चे फलते फूलते ही हैं। जीते जी सेवा न की तो श्राद्ध किस काम का ! क्या सचमुच शर्मा जी की आत्मा इस श्राद्ध से तृप्त हो गयी होगी ?
पंडित जी को ऐसा लगा जैसे शर्मा जी आसमान से उनकी नयी जैकेट को देख रहे हैं। उन्हें पहनी हुई जैकेट बहुत भारी लगने लगी।