पक्की सहेलियाँ
पक्की सहेलियाँ
"रिया गुज़र गयी ? कब कैसे ? क्या हुआ ?" मैंने लगभग चीखते हुए अंकल जी से पूछा।
" आज एक साल हो गया, करुणा। उसका पचासवाँ जन्मदिन था। घर मे मेहमान जमा थे। वह भाग भाग कर सबकी खातिरदारी में लगी थी। एक पाँव नीचे और दूसरा फर्स्ट फ्लोर पर। सुबह से फिरकी की तरह घूम रही थी। पता नहीं कैसे सीढ़ियों में पाँव फिसला । सिर ज़मीन से लगा और मिनटों में सब खत्म " । बेटी को याद कर अंकल जी सुबकने लगे।
"अच्छा बेटा, चलता हूँ। उसकी बरसी है, कुछ सामान लेना था इसीलिए बाजार आया था। " अंकल जी आँखे पोंछते हुए तेज़ी से आगे बढ़ गए।
मैं बुत बनी खड़ी रही और दूर तक अंकल जी को जाते देखती रही। रिया स्कूल से मेरी बेस्ट फ्रेंड थी। उसका घर भी मेरे ही सेक्टर में था। मुश्किल से पाँच सात मिनट दूर। मुझे खुद पर ग्लानि हो आयी। एक साल पहले मेरी सबसे पक्की सहेली की मृत्यु हो गयी और मुझे पता भी नहीं। उसके पति और बच्चों के पास संवेदना व्यक्त करने तक नहीं गयी मैं।
कैसे जाती !कौन बताता मुझे ? मैंने अपनी किसी सहेली से सम्बन्ध ही नहीं निभाए। शादी के बाद अपने आपको घर गृहस्थी में बुरी तरह उलझा लिया। मुझे हमेशा लगता रहा कि मेरे बिना ये परिवार कुछ नहीं कर पायेगा। मेरी फ्रेंड्स जब भी मुझे फ़ोन करतीं ,मैं अपने आपको हमेशा व्यस्त पाती। कभी बाबूजी की दवाई में, कभी मांजी की मालिश तो कभी बच्चों के स्कूल टेस्ट्स में। बड़े बेमन से उनसे बातें करती और फिर ज़्यादा काम की दुहाई देकर फ़ोन रख देती। वे पिक्चर जाने का प्रोग्राम बनाती तो उस दिन मुझे मांजी को उनकी बहन से मिलवाने ले जाना होता। वे गेट टूगेदर रखती उस दिन बाउजी की डॉक्टर की अपॉइंटमेंट आ जाती। वे भी परिवार में रहती थी लेकिन अपने मनोरंजन का पूरा ध्यान रखतीं। मैंने अपने परिवार के लोगों को खुश रख
ना अपना परम धर्म समझा। सच कहूं तो हिम्मत ही नहीं जुटा पाई घर में कहने की कि मुझे अपनी सहेलियों के साथ घूमने जाना है, फ़िल्म देखनी है या पार्लर जाना है। मेरी सहेलियां अब भी बहुत स्मार्ट दिखती थीं और मैं जैसे उनसे 10 साल बड़ी। धीरे धीरे उन्होंने मुझे फ़ोन करना भी बंद कर दिया और सभी सहेलियों के साथ संपर्क टूट गया। ऐसा नहीं कि मुझे उनकी याद नहीं आती थी। बहुत आती थी। बस यही मन में सोचा कि जिम्मेदारियों से निवृत हो जाऊं, फिर खूब मज़े करूंगी अपनी सहेलियों से साथ । रिया और मैं बचपन की तरह खूब पुराने गाने गाया करेंगे। लेकिन ये क्या! रिया चली भी गयी। हमेशा के लिए। ऐसे ही मैं भी चली जाऊंगी एक दिन। वो कितने फ़ोन करती थी मुझे। और मैं हर बार व्यस्तता की दुहाई दे कर जल्दी से फ़ोन रख देती। धीरे धीरे उसने भी फ़ोन करने बन्द कर दिए। और मैं ज़िम्मेदारियों में और उलझ गए। सास ससुर और बूढ़े हो गए। बच्चे और बड़े हो गए। काम की वजह से मेरी तबीयत खराब रहने लगी। कई बीमारियां लग गईं.. बी पी, शुगर, थाइरोइड!"
पों..पों..पों... कोई ज़ोर ज़ोर से हॉर्न बजा रहा था। मैं सड़क के बीच खड़ी थी।
"सॉरी", कह कर मैं तेज़ी से घर की तरफ बढ़ गयी।
घर पहुंचते ही व्हाट्सएप खोल कर देखा तो 'पक्की सहेलियाँ' ग्रुप पर अंतिम मैसेज था"यू लेफ्ट" । जल्दी से सिमरन को मैसेज किया," आई एम बैक सिमरन। ऐड मि टू द ग्रुप पक्की सहेलियाँ"।
पाँच मिनट बाद सिमरन का फ़ोन आ गया। ढेरों बातें की हमनें। रिया को याद कर दोनों खूब रोई भी। अम्मा जी मेरे बदलते भावों को देख कर परेशान थीं।
फ़ोन रखते ही मैंने मांजी से कहा"खाना लगा दूँ अम्माजी ? मुझे ज़रा ज़रूरी काम है। अपनी सहेली रिया के घर जाना है!और हाँ, मुझे कुछ देर हो जाएगी। आप याद से बाबू जी को दवा दे देना"।