अब यहां कोई नहीं आता
अब यहां कोई नहीं आता


एक समय था जब मेरे चारों तरफ खूब चहल पहल होती थी। बहुएँ सुबह सुबह मेरे यहाँ जमघट लगा लेती। सास ननद की बुराइयों का ऐसा दौर चलता कि मुझे भी उकताहट होने लगती। पर हाँ, मुंशी की बहू के साथ मुझे पूरी सहानुभूति थी। उसके शरीर पर चोट के निशान दिखाई देते तो मेरा मन भर आता। बेचारी ! गाय जैसी बहू का परिवार ने बुरा हाल कर दिया था। इन बहुओं के साथ इनके बच्चे भी चले आते थे। उनका तो जैसे खेल था मेरी बाजू पर लटकना। पर मुझे अच्छे लगते थे वो शरारती बच्चे ! राघव, मोटू, गट्टू, सीटी, कोमल, नुन्नू, काशी और भी बहुत सारे ! वो हल्का फुल्का पिद्दू जब मेरे कंधे पर लटकता तो मुझे टस से मस न कर पाता। सब बच्चे ताली बजा बजा कर उसे चिढ़ाते। मुझे बहुत याद आती है उनकी। और वो मेघा, विनती और रेणु ! हर साल गर्मी की छुट्टियों में ससुराल से मायके आतीं तो मेरे यहाँ ही अड्डा जमाती। कुछ सुनती, कुछ सुनाती! बचपन की ढेरों बातें करतीं। उनकी बातें सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता था। लेकिन अब सब बदल गया है। बच्चों, बड़ों, बूढ़ों --- सबकी बहुत याद आती है। दिन भर अकेला खड़ा रहता हूँ। पिछले महीने कुछ लोग आए थे। मेरे गले में तख्ती टांग गए हैं। उस पर लाल रंग से एक बड़ा सा काटा × लगा हुआ है। नीचे लिखा है-"इस हैंडपम्प का पानी प्रदूषित है। कृपया उपयोग में न लाएं। " अब यहाँ कोई नहीं आता!आप ही बताएं, इसमें मेरा क्या कुसूर है?