सच अद्भुत थी वो उसका प्यार और शायद मै भी
सच अद्भुत थी वो उसका प्यार और शायद मै भी
पिछले दिनों मैं छुट्टियों में घर जा रहा था चूँकि योजना अचानक बनाई थी तो टिकट नहीं बना पाया था, मैंने ट्रैन में ही टिकट बनवाने का तय किया और रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हो गया था, प्लेटफॉर्म पे घूमते हुए, एक चेहरा जाना पहचाना सा पीछे से गुजरता हुआ प्रतीत हुआ मुझे।
मैंने वापस मुड़कर देखा तो जाने क्यों एक तरावट सा एहसास हुआ, हाँ वही मन मोहक खुश्बू, हाँ वही तो थी वो, कई बार मैंने आँखें मीच मीच के तसल्ली किया, अब तो भरोसा भी पूरी तरह से हो गया था।
सारी कहानी याद आ गई, मैं यहीं कोलकाता में ही तो मिला था उससे एक दिन जब वो बस में मेरे ठीक बगल वाले सीट पे बैठी थी, मैं देख रहा था उसको, मैं देख रहा था और वो भी मुस्कुरा रही थी, फिर अचानक उसका स्टॉप आ गया वो उतर गई पर मुझे देखते हुए, वो अब भी मुस्कुरा रही थी बस चल पड़ी और मैं चलती बस से कूद गया, उसके पीछे-पीछे चलता हुआ किसी ऑटो में मैं उसके बगल वाली सीट पे फिर बैठ गया मुझे नहीं पता था कहा जाना था जहां का उसने बोला, मैंने भी ड्राइवर को वही बोल के पैसे दे दिए, ड्राइवर ने कुछ चिल्लर मुझे वापस किया, बिना देखे मैंने रख लिया।
महज कुछ ही समय बीता था मैं बात करने का मन बना ही रहा था की वो जगह आ गया जहाँ के लिए हम दोनों ने टिकट लिया था पर हड़बड़ाहट में मैंने एक कागज पे अपना फ़ोन नंबर लिख के वो कागज उसे थमा दिया था और उसने बिना कुछ बोले रख भी लिया था।
अब मैं इन्तजार में लग गया था उसके फ़ोन के, दिन, हफ्ते, महीने बीतने लगे फ़ोन के इन्तजार में। मैं कार्यालय से घर और घर से कार्यालय करता रहा कभी फ़ोन नहीं आया सारा नशा उतरने लगा था या यूँ कहें की उतर ही गया था की, फिर अचानक एक दोपहर करीब डेढ़ साल बाद उसका फ़ोन आया, मेरे लिए वो नंबर अनजान था मैं समझ नहीं पाया फिर उसने ही याद दिलाया सारा घटनाक्रम फिर से सबकुछ ताज़ा सा हो गया था, मैंने अपनी तवियत के मुताबिक पहले ही दिन मजाक-मजाक में कह दिया था उससे की "आखिर फंस गई रजिया लुच्चो में "वो मुस्कुराई मिलने का समय और जगह तय हुआ फिर बात ख़त्म हुई।
वो दिन मुझे आज भी याद है जब पहली बार वो एक गार्डन में मिली थी पहली ही मुलाकात में वो मेरे साथ खुद को सुरक्षित महसूस कर रही थी और सच में इतना सुरक्षित महसूस किया उसने मेरे साथ खुद को की, मुझे भी इस बात का बखूबी एहसास भी हो गया था, पहली मुलाकात में वो मुझे ऐसी लगी जैसे इसके पहले हम कई बार मिल चुके हों, कुछ भी नया सा नहीं लग रहा था न ही कुछ ऐसा की हम दोनों में से किसी को कोई झिझक ही हो।
हम कई बार मिले उसी गार्डन में, उसके साथ होते हुए पता नहीं क्यों मैं सब कुछ भूल जाता था सारी तकलीफें सारे दर्द वो हवा कर देती थी, वो मेरे साथ तो सुरक्षित महसूस करती थी पर मैंने भी खुद को उसके साथ कभी उससे कम सुरक्षित महसूस नहीं किया, और मर्द होते हुये भी किसी महिला को अपना ढाल समझ खुद को सुरक्षित महसूस करने में मुझे कभी शर्म का अनुभव भी नहीं हुआ था कहने का सीधा-सादा मतलब ये है कि ना मैने उसे लड़की और ना ही उसने मुझे लड़का समझा कभी, कभी किसी तरह की नैतिक या अनैतिक आशाएं भी नहीं किया हमने एक दूसरे से।
ये मिलने मिलाने का सिलसिला लगभग ६-८ महीने तक चला उसके बाद मेरा तबादला चेन्नई के लिए हो गया, मैंने बताया उसे वो अवाक सी सुनती रही मुझे, फिर गहरी चुप्पी के बाद बस इतना बोली की मिल सकते हो क्या मुझे आज? मैंने हाँ कर दिया चूँकि अब तक हम कार्यालय से घर के बीच एक रेस्त्रां में मिलने लगे थे तो अब जगह तय करने की जरूरत नहीं थी और मेरा समय भी उसे पता था तो उसकी भी कोई जरूरत नहीं थी हमने फ़ोन काट दिया।
वो शाम भी बहुत गजब थी मुझे देखते ही वो मेरे सीने से लग के बिना आवाज किये लगातार रोये जा रही थी मैंने उसे बताया की ये बाजार है रेस्त्रां नहीं खुद को सँभालते हुए वो अलग हुई मुझसे, आज भी पता नहीं क्यों रोंगटे खड़े हो जाते हैं मेरे, हम अंदर गए पर उसके आंसुओं का बहना लगातार जारी था, मैं उन्हें पोंछने में लगा था मैं लाख सांत्वना देता रहा पर उसका कुछ न बोलना और लगातार रोये जाना जारी रहा।
हम काफी देर तक बात करते रहे उसके बाद बीच बीच में आते रहने के वादे के साथ विदा लिया मैंने और भारी मन से उसने भी विदा किया मुझे, अब मैं चेन्नई पहुंच के क़रीब क़रीब रोज ही बात कर लेता था, हर बार वो मुझे बुलाती और मैं आगे का कोई तारीख बता कर आने का वादा कर देता था उसे पता होता की नहीं आएगा फिर खुद के संतुष्ट होने का एहसास कराती मुझे और फ़ोन रख देती।
समय कटता रहा मैं उससे और वो मुझसे मिलने के लिए वादे करते रहे पर अब मिलना कहा हो पाता है फिर धीरे धीरे बातें भी हफ्ते हफ्ते भर बाद होने लगी फिर महीनों बात नहीं होतीं फिर तो बाद में उसका नंबर भी नहीं रहा मेरे पास, भले नंबर नहीं था बातें होना बंद हो गईं थी, पर उसका मेरे दिमाग में बने रहना लगातार जारी था उसकी तकलीफें न बढ़ जाएँ मैं उसे परेशान नहीं करता था।
मेरी शादी हो गई थी मैं चेन्नई में ही था कि एक दिन चेन्नई के ही किसी नंबर से मेरे पास फ़ोन आया आवाज सुनते ही मैं ठीक वैसे ही अचंभित हुआ जैसे पहली बार उसका फ़ोन आने पे हुआ था हाँ ये उसकी ही आवाज थी, उसने फ़ोन करने के लिए सबसे पहले माफ़ी माँगा मुझसे और आगे बात करने के लिए इजाजत भी, सच बहुत दर्द हुआ था मुझको उस दिन और अपराध बोध भी, उसने मुझे बताया की वो चेन्नई में पिछले कई महीनों से है कहीं नौकरी करने लगी थी वो, उसने बुलाया भी मुझे मिलने के लिए पर मैं हाँ नहीं कर सका और शायद मेरी मजबूरी वो समझ भी रही थी न मैंने हाँ किया और ना ही उसने ही आने की जिद किया मुझसे।
अच्छा मैंने ये नहीं बताया की हमने एक दूसरे को कभी भी शादी के लिए कहा ही नहीं था क्यूंकि मैं हिन्दू ब्राह्मण परिवार से था और वो एक मुस्लिम लड़की थी न घरों में बात किया हमने न ही आपस में कभी, हमने कोशिश भी नहीं किया।
कई दिनों बाद उसका फिर फ़ोन आया मेरे पास शाम का वक़्त था, भारत पाकिस्तान का वर्ल्ड कप में मुक़ाबला था उस दिन मैं मैच ही देख रहा था की फ़ोन बजा मेरा उसने कहा, सुशील मैं आज वापस जा रही हूँ जो सोच के आई थी वैसा कुछ हो नहीं रहा है यहाँ, मिल सको तो मिलो मुझे एक आखिरी बार चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर आज रात की ट्रेन है मेरी, अब शायद मिलना न हो पाए कभी, मैं नहीं गया इसलिए नहीं की मैं मिलना नहीं चाहता था उससे, बल्कि इसलिए की कही उसके दिल में फिर से कोई आशा न पनप जाये, वो चली गई बिना मिले, हाँ बिना मिले ही।
उसके बाद मैं चेन्नई से केरला फिर वहाँ से गुजरात फिर कोलकाता वापस तबादला होते-होते पहुंचा, मेरे दिमाग में तो वो हमेशा रही पर मिलने का फ़ोन करने का कभी प्रयास नहीं किया मैंने हालाँकि फोन नम्बर तो नहीं था मेरे पास पर पता करना मुश्किल नहीं था इस सोशल मिडिया के दौर में, न मैं बात करना चाहता था और ना ही मिलना चाहता था उससे कभी, सिर्फ इसलिए की कहीं उसके घाव फिर से न हरे हो जाएँ, मर्द होने का भाव जो था मुझ में की मैं सारे घाव झेल सकता हूँ पर वो झेल नहीं पायेगी, उसे दर्द से बचाने की आड़ में घाव पर घाव देता जा रहा था मैं।
आज जब वो दिखी तो मैं बरबस ही उसके पीछे चल पड़ा हालाँकि उसने नहीं देखा था मुझे, अब चूँकि सर्दी का मौसम था और मैंने सर पर गर्म टोपी, आंख में चश्मा और चेहरे पे मास्क लगा रखा था तो मैं निश्चिंत भी था की वो पहचान नहीं पायेगी मुझे, मैं निकला तो अपने घर जाने के लिए था कोलकाता से, पर बिना देखे उसकी ट्रेन में चढ़ गया, उसकी आरक्षित सीट थी मैं उसके पास में खड़ा हो गया उसने, कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दिया, वो वाशरूम गई चेहरा साफ़ किया वापस आई फिर बैठ गई मैं देखता रहा उसे, रात का वक़्त था धीरे धीरे सारे मुसाफिर सो गए और वो भी शायद मुझे ऐसा लगा था!
फिर मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा नाम पुकारा हो मैंने ध्यान दिया तो पता चला उसने ही बोला था की बैठ जाओ सुशील, कब तक ऐसे खड़े रहोगे, तुम्हारी आदत गई नहीं, मुझे अकेला नहीं छोड़ते लोगों के बीच कभी, सिर्फ आंखों से वो भी चश्मे के भीतर से वो पहचान गई थी मुझको, मैंने देखा उसे और मन किया की बेतहाशा रोऊँ मैं, इतना सम्मान मैंने कभी किसी का नहीं किया था जितना उस एक पल के लिए मुझमे पैदा हुआ उसके लिए, मैं गिर पड़ा उसकी सीट पे, अब मेरी बारी थी मैं खूब रोया उसकी गोद में सर रख के वो सहलाती रही मुझे, चुप कराती रही, उसके बाद बोली अब इलाहबाद तक तो आओगे न मेरे साथ तुम? मैंने हाँ में सर हिलाया और बैठ गया बगल में उसके, फिर उसने ही मजाकिया लहजे में कहा की मैने हाथ पकड़ लिया अगर तुम्हारा तो पाप तो नहीं लगेगा ना तुम्हें और हाँ मुझे कोरोना भी नहीं है और मेरा हाथ पकड़ के इलाहाबाद तक लगातार बैठी रही मैं देखता रहा उसको सफर छोटा था जल्दी पूरा हो गया, मैंने उसको, उसके गंतव्य तक पहुंचाया, अब क्यूंकि मेरा घर भी ३ घंटे की दूरी पर था वहां से तो मैंने भी विदा लिया उससे और अपने गांव की ओर चल पड़ा।
हमने नम्बर भी नहीं लिया एक दूसरे का, सच अद्भुत थी वो उसका प्यार और शायद मैं भी।