सारा जग अपना

सारा जग अपना

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सभी उन्हें बंगाली दादा कहते थे, पर वो बंगाली नहीं थे। उनका बचपन कलकत्ता में बीता था अतः वे बंगला बहुत अच्छा बोलते थे। बात-बात पर एक बंगला जोक या कोई कहावत जरूर कहते। उरी बाबा उनका तकियाकलाम था। बच्चे उनसे लगे रहते थे क्योंकि वे बच्चों को बहुत प्यार करते थे। उनकी पॉकेट में नौ टॉफी नौ मसाला हमेशा रहता था। खुद कभी नहीं खाते पर हर मिलने वाले को जरूर खिलाते। कहते जीवन को इसी टॉफी के समान चटपटा बना कर रखना है।


धनिया उनका सेवक था। दिनभर उनकी सेवा टहल करता और शाम होते एक कटोरे में तेल लेकर हाजिर हो जाता। सिर्फ तलवे में तेल मालिस करवाते पर तेल का इतना गुणगान करते कि उनके-पास बैठने वाले हर व्यक्ति को तेल लगवाने की इच्छा जागृत हो जाती। बेचारा धनिया उसकी तो सामत आ जाती। कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिस दिन धनिया चार आदमी को तेल मालिस न करे। एक दिन उनकी पत्नी उनको डपट दी। बिना मतलब हर दिन तेल की गुणगान कर बेचारे धनिया को क्यों फंसाते हैं। मुस्कुरा कर जवाब मिला धनिया की खातिर।

"इसमें धनिया का क्या भला है .? उलटे उसका हाथ दुःखता है। "

"अरी भाग्यवान ! मैं कोई धन्नासेठ तो हूँ नहीं कि धनिया को खजाना दे दूँ और धनिया कोई

समय का मालिक नहीं जो 24 घण्टे को 48 घंटा कर सबका काम कर सबों को मोह ले और अपना फायदा उठाए। मेरे बड़ाई पर सभी उससे मालिस करने कहते हैं। आधे एक घण्टे में ही वो चार पांच आदमी के चरण छू अपनी परेशानी का बखान करता है जिसका निदान उनलोंगे के ही पास है। सभी उसे या तो फ्री में सब कुछ दे देते या बहुत कम पैसा लेते हैं। देखो उसका खेत कितना लहलहा रहा।"


 बंगाली दादा की सूझ-बूझ पर पत्नी मुस्का उठी।


एक दिन धनिया सुबह सुबह नहीं आया तो बंगाली दादा को चिंता हुई और वे हर आने वाले से धनिया का हाल पूछते। कोई खास जवाब नहीं मिला तो बदन में कुर्ता डाल खुद ही चल पड़े उसके घर। धनिया रात भर कै दस्त से परेशान रहा सुबह से बेहोश पड़ा था। पत्नी मायके गई थी, देखने वाला भी कोई नहीं था। बंगाली दादा सही समय पर पहुँच गए। हरिया की मदद से उसे अस्पताल पहुँचाएँ। समय पर इलाज हुआ और धनिया स्वस्थ्य हुआ ।


इसी तरह से दादा कभी किसी के पास तो कभी किसी के पास भगवान बन पहुँच जाते। पूरा गाँव दादा के प्यार का कायल था। यदि कोई नहीं था तो अपना ही बेटा। उसे हर वक्त लगता पिताजी को कोई काम नहीं तो बिना मतलब के गाँव में सभी के घर पहुँच उसका हाल चाल पूछने लगते हैं। हाल चाल तक तो ठीक है, पर उनके सेवा में तत्तपर हो अपना सर्वस्य लूटाने की क्या जरूरत।


   दादा की नेक नियति का फल उनके उसी बेटे को मिला जो दिन रात उनके नेक नियति से परेशान रहता था। मोतिहारी से बाइक की सवारी कर गाँव आ रहा था। शाम हो चला था। सूर्य अपनी रश्मियों को समेट अस्ताचल को जा चुका था। गोधूलि की बेला गाँव में सच में गोधूलि वेला होती है। गायों की खुड़ी से उड़ते धूल से पूरा वातावरण धूमिल हो कुछ नहीं दिख रहा था। उधर से कोई सवारी गाड़ी आ रही थी। रोहण की बाइक में झटका लगा और वह सड़क के किनारे झाड़ियों में जा गिरा।

गाड़ी की टक्कर से पूरा वातावरण गूंज उठा। गाड़ी का ड्राइवर तो धूल का फायदा उठा भाग गया। ऐसे वक्त पर राहगीर ही काम आते हैं। कुछ लोग इकट्ठा हुए। कोई जल्दी से अस्पताल पहुँचाने की बातें कर रहा था तो कोई किनारे हट बढ़ जाने की। सभी की सोच अपनी-अपनी। उसी भीड़ में से किसी ने पहचान कर कहा अरे ये तो 'मोखली' के बंगाली दादा का बेटा है।

बंगाली दादा का बेटा सड़क पर बेहोश पड़ा है, ये बात आग की तरह चारो ओर फैल गई। कई लोग मदद को दौड़े और उसी में से दो जन कंधे पर लाद झट-पट अस्पताल पहुँचाया। खून बहुत बह गया था। डॉक्टर के कुछ कहने से पहले दो चार जन लाइन में लग गए खून देने को।

किसी ने अपनी गाड़ी निकाला और बंगाली दादा को खबर पहुँचा उन्हें अपने  रोहण का इलाज कैसे हुआ, पैसा कहाँ से आया, कौन दवा लाया, कौन रात भर उसके साथ उसकी सेवा में बिताया। बंगाली दादा को पता ही नहीं चला। पूरे आठ दिनों के बाद जब रोहण घर आया तो मिलने वालों की भीड़ लगी रहती। यदि कोई मिलने नहीं आया तो वे थे रोहण के आधुनिक विचार वाले मित्र।


    स्वस्थ्य होने पर रोहण गाँव में सभी के पाँव पकड़ लिए। उसे आज दादा के वसुधैव कटुम्बकम का मतलब समझ में आ गया।

         

नोट - कर भला हो भला कहावत बिल्कुल सच है।


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