रात और दिन
रात और दिन
वो काली रात भी जैसे साजिश कर बैठी थी विजय के खिलाफ। तेज बादलों की गड़गड़ाहट ,खिड़कियों के दरवाजों का इधर उधर बार बार टकराना, पेड़ों के टहनियों का हवा के झोकों से डराना, रह-रहकर बिजली का तेजी से ऐसे चमकना जैसे आज यह अपने मुँह लगे खूनी तलवार के कंठ की प्यास एक और कत्ल कर ही मानेगी। ऐसी ही डरावनी वो रात थी ,उस रात पूरे बंगले में भी अंधेरा छाया हुआ था। दीनू काका भी कुछ दिन की छुट्टियाँ ले अपने गाँव गए थें।
और विजय की दीदी को भी अपने ससुराल से आने की अनुमति नहीं मिल रही थी। विजय के माँ पापा की मौत गाड़ी के ब्रेक फेल हो जाने की वजह से अचानक सामने आए खाई में गिर कर हो गई थी।विजय समझ ही नहीं पा रहा था कि हो क्या रहा है। ज़िंदगी कुछ अलग साजिश कर बैठी थी ,वक्त कुछ अलग और वह खूनी रात कुछ अलग ही साजिश का जाल बिछा रही थी। इतने बड़े महल जैसे बंगले में रहने वाला वो अकेला विजय पिछले दो महीने से स्वस्थ नहीं चल रहा था। तभी अचानक रात के शोर में छटपटाती फोन की घंटी विजय को और घबरा दी, उसका गला सूख रहा था, हकलाहट बढ़ रही थी, फिर भी उसने फोन उठाया। फोन में से आवाज आई ,"भैया जी !आप पानी मत पीजियेगा ,पानी में जहर मिला है।" विजय नाम पूछ भी पाए ,इससे पहले ही फोन कट गया।
तभी दरवाजे की घंटी बजी ,विजय फिर से सहम गया। जब उसने पाया बाहर उसकी दीदी है, उसने दरवाजा खोल दिया। दीदी उसकी घबराहट को देख कुछ समझ ही नहीं पाई और उसे पानी दे उसके पसीने पोंछनें लगी। विजय ने पानी का गिलास हाथ से छोड़ दिया। अभी दीदी और उसके जीजा जी उसके मुँह पर टेप लगा ,हाथ- पैर बाँध ही रहें थें कि दीनू काका उनके सामने आ गए, दीनू काका को देख, विजय के जीजाजी दूसरी तरफ से चाकू उठा दीनू काका की तरफ लपके, तभी पीछे से आते पुलिस ने विजय के जीजाजी पर बंदूक तान दी। विजय की दीदी व जीजाजी की सारी करतूत समझते पुलिस को देर ना लगी। वक्त की साजिश ने किस्मत को भी साजिश से बदल दिया और अब सब स्पष्ट नज़र आ रहा था।
