कला और परिवार
कला और परिवार
कुछ वर्ष पहले की बात है ,केदारनाथ के समीप ही.. एक गाँव था ।जहाँ एक छोटा सा परिवार था ।परिवार क्या... एक माँ और उसके दो लड़के थे। माँ का नाम जानकी और बच्चों का नाम मोहन और सोहन था ।लड़के ना बहुत छोटें थें और ना बहुत ही बड़े। एक पंद्रह वर्ष व दूसरा सतरह वर्ष का था। एक बेटा बाँसुरी बजाना जानता था तो दूसरे को मुँह से अलग-अलग जानवरों की, पंछियों की, पशुओं की आवाज़ निकालने आती थी ।माँ को गलीचा में तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ने बहुत ही खूबसूरती से आता था ।वह एक राजा से लेकर प्राकृतिक सुंदरता का वर्णन अपने रंगीन धागों से गढ़ सकती थी ।घर के कार्य को खत्म करने के बाद वह घर के बाहर खटिया बिछा कर बैठ जाती थी ..अपने शौक को पूरा करने ।वो उसका शौक नहीं था शायद उसका जुनून था ।जिस दिन ना कर पाए कुछ.. पूरे दिन अफसोस। उसकी कारीगरी पर्यटक ,दर्शनार्थियों को बहुत पसंद आती थी। जो वह दाम लगा दे, उस दाम में भी लोग खुशी खुशी गलीचा ले जातें थें ।तभी एक दिन अचानक केदारनाथ में कहर बरसा।उस वक्त उसके दोनों लड़के अपने गाँव से थोड़ी दूर थें। गाँव में भगदड़ हो जाने से माँ-दोनों बेटे आपस में बिछड़ गए ।चार-पाँच महीने भी निकल गए ।माँ ने सोचा शायद नियति को यही मंजूर है। बच्चों ने सोचा शायद मेरा प्रारब्ध यही है। माँ ने अपनी शिल्पकारी वापिस प्रारंभ कर दी और अपने बसे नये गाँव में किसी साथी से गलीचा बाजार भिजवा देती थी।उधर बच्चे बाँसुरी व पशु -पक्षियों की बोली से थोड़े पैसे कमा ले रहें थें। एक दिन मोहन की नज़र बाजार में सजे गलीचे पर पड़ी तो वह दोनों ही समझ गए कि ये उनकी माँ के हाथ के बनें हैं ।उन्होंने पूछ लिया दुकानदार से कि ये कहाँ से आया ,किसने बनाया? इस पर दुकानदार ने उन्हें गाँव के नाम से अवगत कराया और कहा कि वहाँ का रहने वाला एक उसका मित्र गलीचा यहाँ रख गया है ।वो दोनों तब उस गाँव की तरफ बढ़ चलें। पहुँचते -पहुँचते चार बज गए।वहाँ वो दोनों अपनी प्रतिभा दिखाना प्रारंभ किए। मोहन बाँसुरी बजाता, सोहन आवाज़ निकालता तरह-तरह की ।थोड़ी दूर जाने पर उनकी माँ को ये आवाज आने लगी ।वो समझ गई कि ये उसके ही बच्चें हैं ।जो यहाँ किसी काम से शायद आए हैं ।वो घर के बाहर दौड़ी आ गई ।आज फिर एक बार वह अपने बच्चों से मिल गयी।
