शिखा श्रीवास्तव

Romance

5.0  

शिखा श्रीवास्तव

Romance

पवित्र रिश्ता

पवित्र रिश्ता

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पिछले एक हफ्ते से काफी दौड़-भाग मची हुई है हमारे घर में, लेकिन ये सिर्फ मुझे और मेरे बेटे-बेटी को ही पता है कि हम आजकल कितनी मेहनत कर रहे है, उसे नहीं जिसके लिए ये सब हो रहा है। अब पता ही चल जाएगा तो भला सरप्राइज का क्या मज़ा रह जायेगा, आप ही बोलिये।

ओह्ह मैं तो आपको अपने बारे में बताना भूल ही गया। मैं 'चंदर', अरे प्रसिद्ध उपन्यास 'गुनाहों का देवता' की 'सुधा' का 'चंदर' नहीं, अपनी 'मालविका' का 'चंदर'। यही तो है वो जिनके पचासवें जन्मदिन की तैयारियों ने हम तीनों की नींद उड़ा रखी है।

आइए अब मैं आप सबको ले चलता हूँ अपने घर में जहां मेरी बेटी 'नव्या' ने मेरे नाम की पुकार मचा रखी है।

"पापा... कहाँ हो आप? जल्दी बाहर आओ।"

"आ गया, अब बोलो, क्या हो गया?"

"देखो ना पापा मैं सोच रही हूँ मम्मा ने मेरे पहले जन्मदिन पर हैप्पी बर्थडे का जैसा पोस्टर बनाया था, क्यों ना मम्मा के लिए वैसा ही पोस्टर बनाया जाए" नव्या ने कुछ पुरानी तस्वीरें दिखाते हुए चंदर से कहा।

तभी नव्या के भाई वेद ने उसकी चोटी खींचते हुए कहा "देख लो आप पापा, पोस्टर की जिम्मेदारी इसने ली थी और अभी तक डिज़ाइन का ही चयन कर रही है, जबकि कल ही मम्मा का जन्मदिन है।"

चंदर ने तस्वीरें देखते हुए कहा "अब लड़ना छोड़ो, इससे पहले की तुम्हारी मम्मा दफ्तर से आ जाये आओ हम तीनों मिलकर ये पोस्टर बना डालें, क्योंकि अब किसी एक से तो होगा नहीं।"

"ओके पापा बॉस" बोलते हुए और एक-दूसरे को चिढ़ाते हुए नव्या और वेद चंदर के साथ मिलकर पोस्टर बनाने में लग गए।

मालविका के आने से पहले ही सारी तैयारियों को अंतिम रूप देकर तीनों अपने-अपने कमरे में चले गए जैसे कुछ हुआ ही ना हो।

शाम को जब मालविका दफ्तर से लौटी तो घर में शांति देखकर उसे अजीब सा लगा।

"क्या हुआ आज सब लोग इतने चुप क्यों है?" उसने चंदर से पूछा।

"नहीं तो क्या फालतू की बकबक करते रहें हम सब, बोलो भला वेद और नव्या तुम ही।" चंदर ने बात उनकी तरफ घुमा दी।

"वो मम्मा वेद ने ना पापा की तस्वीरों की नई श्रृंखला की पहली तस्वीर पर पानी गिरा दिया बस इसलिए।" वेद की तरफ देखकर उसे आँख मारते हुए नव्या बोली।

वेद चाहकर भी कुछ नहीं बोल सका।

"ये सब तुम लोगों के आये दिन के कारनामे है, मुझे लगा पता नहीं क्या हो गया।" कहती हुई मालविका कमरे में चली गयी।

"ओह्ह बाल-बाल बचे मेरे बाल-बच्चों, अब तुम दोनों जाओ और फटाफट रात का खाना बनाओ, मैं एक आखिरी काम निपटा लेता हूँ " चंदर ने वेद और नव्या से कहा और अपनी व्हीलचेयर घुमाते हुए अपनी तस्वीरों वाले कमरे में चला गया।

आप सब सोच रहे होंगे मैं यानी चंदर व्हीलचेयर पर कैसे? इसके पीछे एक लंबी कहानी है। आइए आज आप सबको सुनाता हूँ।

बात तब की है जब मैंने अपनी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म की थी और कॉलेज कैम्प्स में होने वाले साक्षत्कार में ही एक अच्छी कंपनी के लिए मेरा चयन भी हो गया। ऐसा लग रहा था मानों ज़िन्दगी में अब कोई कमी, कोई तकलीफ ही नहीं, सब कुछ एकदम सही है।

अब माँ को मेरी शादी की जल्दी पड़ी थी लेकिन मैं शादी के नाम से ही घबराता था। कॉलेज में जहां मेरे तमाम दोस्तों की गर्लफ्रेंड्स थी, वहीं मैं इन कल्पनाओं से ही डर जाता था।

आखिरकार हर भारतीय माँ की तरह अपनी ममता और बुढ़ापे का वास्ता देकर मेरी माँ ने मुझसे शादी के लिए हाँ करवा ही ली, इसमें मेरे पिताजी की भी पूरी-पूरी भागीदारी थी।

लड़की की तलाश शुरू हुई जो जाकर रुकी 'मालविका' पर। वो पेशे से एक 'आर्किटेक्ट' थी और अच्छी कम्पनी में काम कर रही थी। जब मेरे माता-पिता उससे मिलने गए तो उन्हें मालविका और उसके परिवार की सादगी, उनका सरल व्यवहार भा गया।

मालविका ने बस अपनी एक इच्छा प्रकट की, कि शादी के बाद भी वो अपनी नौकरी नहीं छोड़ेगी।

मेरी माँ ने उसका हाथ थामते हुए कहा "बेटी, भरोसा रखो अगर ये रिश्ता होता है तो हमारी तरफ से तुम्हारी नौकरी में कोई अड़चन नहीं आएगी। जितनी मेहनत से मेरे बेटे ने पढ़ाई की है उतनी ही मेहनत से तुमने भी ये मुकाम पाया है, फिर भला कैसे किसी को ये हक है कि वो तुमसे तुम्हारी पहचान छीने।"

माँ की बात सुनकर मालविका और उसके परिवार को तसल्ली हुई। अब बारी थी मेरी और मालविका की मुलाकात की। उसके माता-पिता पहले ही मुझसे मेरे दफ्तर में मिल चुके थे।

आज भी मालविका के साथ वो पहली मुलाकात याद आती है तो बरबस होंठो पर मुस्कुराहट आ जाती है।

पहली बार मैं अकेला किसी लड़की से मिलने जा रहा था।

तय वक्त पर मैं घर से उस रेस्टोरेंट के लिए निकला जहां हमारी मुलाकात होने वाली थी। दिल जोरों से धड़क रहा था। हालांकि मैंने उसकी तस्वीर देख रखी थी, फिर भी डर लग रहा था कि अगर मैं उसे ना पहचान सका तो? पता नहीं वो क्या सोचेगी मेरे बारे में, मैं उससे क्या बात करूंगा?

इन्हीं विचारों में खोया हुआ मैं लाल बत्ती के कारण रुका हुआ था। तभी एक छोटी बच्ची ने मेरी गाड़ी की खिड़की पर दस्तक दी और कहा "भईया, एक गुलाब ले लीजिए ना।"

ना जाने मेरे मन में क्या आया कि मैंने उसके तमाम फूल खरीद लिए और ट्रैफिक की हरी बत्ती के इशारा करते ही मैं अपनी मंजिल की तरफ बढ़ चला।

मालविका पहले ही आ चुकी थी। मैं उसे एक ही नज़र में पहचान गया। मुझे देखकर उसने जो मुस्कान दी, उसकी चमक आज भी मेरे ज़हन में जिंदा है।

मैं उसके सामने सर झुकाए बैठा हुआ था। उसकी तरफ देखने की या कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी।

आखिरकार उसी ने चुप्पी तोड़ी और कहा "मेरे ख्याल से हम यहां एक-दूसरे से कुछ बातें करने, एक-दूसरे को जानने की कोशिश करने के लिए आये है।"

"पूछिये आपको क्या पूछना है मेरे बारे में, मेरी पसंद-नापसंद, किसी विषय पर मेरे विचार, या फिर मेरा अतीत" मैंने धीरे से कहा।

ये सुनकर सहसा मालविका खिलखिलाकर हँस पड़ी। उसकी हँसी सुनकर मैंने पहली बार उसे ध्यान से देखा। वो उस वक्त यूँ लग रही थी मानों कोई मासूम सी बच्ची हो।

"माफ कीजियेगा, मुझे यूँ हँसना नहीं चाहिए था। असल में आप जिस तरह घबरा रहे है, और शर्माते हुए धीरे-धीरे बोल रहे हैं उससे मुझे बीते जमाने की कहानियां याद आ गयी जब शादी की बात होने पर ऐसी हालत लड़कों की नहीं, लड़कियों की होती थी।" मालविका ने खुद को संयत करते हुए कहा।

अब मैं भी उसके साथ हँस पड़ा।

धीरे-धीरे बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो चलता ही गया। ऐसा लग रहा था जैसे दो अभिन्न मित्र सदियों के बाद एक-दूसरे से मिले है।

जैसा कि आदरणीय 'धर्मवीर भारती' जी ने अपनी रचना 'गुनाहों का देवता' में लिखा है "बातों में छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी इतनी बातें थी, जिन्हें केवल वही समझ सकता है जिसने कभी दो घनिष्ठ मित्रों की एकांत वार्ता सुनी हो।"

हम भी आज ऐसे ही पल को जी रहे थे।

कब शाम का सूरज ढला और चांद अपनी रोशनी के साथ वातावरण को शीतलता की चादर में लपेटने लगा हम जान ही नहीं सके। हम दोनों के घरों से इस बीच कई फोन आये और हमने ये कहकर रख दिया कि अभी बातें चल ही रही है।

आखिरकार जब मैनेजर ने कहा कि अब रेस्टोरेंट बंद करने का वक्त हो गया है, तब हम उठे। बाहर आये तो पता चला मालविका की गाड़ी स्टार्ट ही नहीं हो रही है। हमने गैराज वाले को फोन किया और मैं मालविका को अपनी गाड़ी के पास लेकर आया। दरवाजा खोलते ही उसकी नज़र उन गुलाब के फूलों पर गयी जो मैंने उस बच्ची से लिये थे। उन्हें हाथों में लेकर वो बोली "कितने प्यारे फूल है। जब मेरे लिए लाए थे तो दिए क्यों नहीं?"

मैंने पूछा "तुम्हें कैसे पता कि ये तुम्हारे लिए ही है?"

"क्योंकि बुद्धूराम इतनी देर में मैं ये समझ चुकी हूं कि तुम्हारा कोई अतीत हो ही नहीं सकता" और फिर खिलखिलाकर हँसती हुई गाड़ी में बैठ गयी।

जल्दी ही हमारी सगाई की तारीख तय हो गयी। हम दोनों ही बहुत खुश थे।

सब कुछ कितना सही लग रहा था तब, क्योंकि भविष्य से हम सभी अंजान थे।

एक दिन दफ्तर से लौटते हुए एक बेकाबू ट्रक ने मेरी गाड़ी को टक्कर मार दी। जब अस्पताल में मेरी आँखें खुली तो पता चला मैं अपने पैर खो चुका हूँ। मेरे ऊपर मानों वज्रपात हो गया। मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये सच है। मेरे माँ-पापा के साथ-साथ मालविका का भी रो-रोकर बुरा हाल था।

खैर किसी तरह अस्पताल के दिन कटे और मुझे वहां से छुट्टी मिली। इससे पहले की मैं अपनी आगे की ज़िंदगी के बारे में कुछ सोचता मेरे दफ्तर से 'सॉरी' के नोट के साथ मेरा टर्मिनेशन लेटर आ गया। अब मैं अपनी नौकरी भी खो चुका था। एक ही पल में मेरी ज़िंदगी पूरी तरह बर्बाद हो चुकी थी। कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था मुझे।

अगले दिन शाम को मालविका मुझसे मिलने पहुँची। उसने हिचकते हुए मेरी माँ से पूछा "माँ, क्या आपको लगता है ये सब मेरे कारण हुआ ? मैं अपशगुनी हूँ ?"

मेरी माँ ने उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहा "छी: बेटी, ये क्या कह रही हो? जो विधि का विधान होता है उसे कौन टाल सकता है। और शायद ये तुम्हारे ही आने का असर हो कि मेरे बेटे की जान बच गयी।"

उनकी बात सुनकर वो मुस्कुराती हुई मेरे कमरे में आई जहां मैं उदासियों में डूबा खाली दीवारों को देख रहा था। जब उसने मेरे हाथ पर अपना हाथ रखा तब मेरी तन्द्रा टूटी।

मैंने एक झटके में अपना हाथ खींच लिया।

"क्या हुआ चंदर, तुमने हाथ क्यों हटा लिया ?" मालविका ने हैरानी से पूछा।

"अब मैं तुम्हारे हाथों को थामने के काबिल नहीं रहा। मेरे पैरों के साथ-साथ मैं अपनी नौकरी, अपना भविष्य भी खो चुका हूँ। अपने साथ-साथ मैं तुम्हारी भी ज़िन्दगी बर्बाद नहीं कर सकता।" मैंने किसी तरह अपने आँसुओं को जब्त करते हुए कहा।

मालविका ने मेरा टर्मिनेशन लेटर फाड़ते हुए कहा "जिस भविष्य की तुम बात कर रहे हो वो अकेले तुम्हारा नहीं मेरा भी है, फिर तुमने अकेले कैसे तय कर लिया कि सब खत्म हो गया?"

"भावनाओं में मत बहो। मेरे पास अब नौकरी नहीं है और शायद मैं दूसरी अच्छी नौकरी पा भी नहीं सकूंगा। फिर कैसे चलेगी हमारी ज़िंदगी? ज़िन्दगी बड़ी-बड़ी बातों से नहीं चलती।" मैंने उसे समझाने की कोशिश की।

"अच्छा, तुमसे किसने कहा कि घर चलाने की जिम्मेदारी अकेले तुम्हारी है? मैं भी तो कमाती हूँ। हमें ऐसी कोई परेशानी नहीं होगी जैसी तुम सोच रहे हो।" मालविका ने अपनी सोच ज़ाहिर की।

"अच्छा, तो तुम क्या चाहती हो, दुनिया-समाज ये कहे कि मैं घर बैठकर पत्नी की कमाई खाता हूँ। आते-जाते उठते-बैठते हर वक्त लोगों के ताने हमें जीने नहीं देंगे। नरक हो जाएगी हमारी ज़िंदगी। मेरी बात समझो।" मैंने किसी तरह लड़खड़ाते हुए कहा।

"लोग, कौन से लोग? क्या कोई आया आज तुम्हारे आँसू पोंछने, तुम्हारी तकलीफ समझकर तुम्हारे लिए कोई नौकरी का प्रस्ताव लेकर, किसी तरह की मदद की आशा लेकर? दुनिया का तो काम ही है दूसरों पर तंज कसना तो क्या हम डरकर जीना छोड़ दें? और क्यों डरें हम? अगर पति की कमाई पर जीने से पत्नी की इज्जत नहीं जाती, तो किसी भी तरह की आपदा में अगर पत्नी आर्थिक जिम्मेदारियां उठाने में सक्षम है तो दिक्कत क्या है? ये मत भूलो ये समाज हमसे ही बना है। किसी ना किसी को तो इसकी सोच बदलने की पहल करनी ही होगी ना।

और अगर तुम्हारी जगह ये दुर्घटना मेरे साथ होती तो क्या तुम मुझे छोड़ देते?" मालविका ने फिर से मेरा हाथ थामकर कहा।

लेकिन मैं ना जाने क्यों उसकी हिम्मत देखकर भी खुद को अपने डरों से, अपने पूर्वग्रहों से मुक्त नहीं कर पा रहा था। मैंने झल्लाकर उसे चले जाने के लिए कहा।

उस वक्त तो वो चली गयी लेकिन फिर उसने अपने यही विचार अपने और मेरे माता-पिता के सामने रखे। वो सब उससे सहमत थे और उसके साथ थे, लेकिन मैं अपनी 'ना' पर अड़ा हुआ था।

कुछ दिनों के बाद मालविका फिर मुझसे मिलने आयी। उसे देखकर मैंने मुँह फेर लिया। फिर भी वो मेरे पास आयी और बोली "अगर हमारे बीच में कभी कोई भावना थी तो उसकी खातिर क्या तुम मेरी एक अंतिम बात मानोगे ?"

"बोलो" निर्विकार भाव से दूसरी तरफ देखते हुए मैंने कहा।

"मुझे पता है तुम्हें तस्वीरें बनाने का बहुत शौक है और तुम बहुत ही अच्छी तस्वीरें बनाते हो। ये इस घर की दीवारें बता रही है। क्या तुम मेरे लिए पूरे दिल से तस्वीरों की एक श्रृंखला बना सकते हो?" उसने उम्मीद भरी नजरों से मुझे देखते हुए कहा।

मैंने किसी तरह "हाँ" कह दी और तस्वीरें बनाने में लग गया।

दिन-रात की मेहनत के बाद आखिरकार पूरे तीन महीनों में मैंने अपनी पहली तस्वीरों की श्रृंखला पूरी की जो मालविका से मेरी पहली मुलाकात से लेकर शादी के लिए सजाये गए तमाम सपनों पर आधारित थी।

इन दिनों मैं अपनी सारी तकलीफें भूल चुका था और एक बार फिर से हँसने-मुस्कुराने लगा था।

श्रृंखला पूरा होने की खबर सुनकर मालविका मुझसे मिलने आयी।

"आज बहुत दिनों के बाद तुम्हें मुस्कुराता हुआ देखकर अच्छा लगा।" उसने कहा।

"हाँ, ये मुस्कुराहट तुम्हारी बदौलत है बेटी। तुमने ही इसका ध्यान तस्वीरों में उलझाकर इसका मन बदला।" मेरे पिताजी ने कहा।

माँ भी पूरी तरह उनसे सहमत थी और स्नेह भरी नजरों से मालविका को देख रही थी।

इससे पहले की मैं कुछ कहता उसने मेरे हाथ में एक लिफाफा पकड़ा दिया। मैंने खोलकर देखा तो पता चला उसने मेरी तस्वीरों की प्रदर्शनी आयोजित करवाई थी। ये उसी से संबंधित कागजात थे।

मैंने कुछ कहना चाहा तो उसने मेरे मुँह पर हाथ रखते हुए कहा "कुछ मत कहना। तुमने कहा था तुम मेरी अंतिम बात मानोगे।"

"तो इस श्रृंखला का कुछ नाम सोचा है तुमने ?" उसने बारी-बारी से तस्वीरों को देखते हुए पूछा।

"नहीं कुछ नहीं सोचा।" मैंने कहा।

"हम इसका नाम रखते है 'पवित्र रिश्ता', क्यों ठीक है ना ?" उसने मेरी तरफ देखा।

मैंने सहमति में सर हिला दिया।

नियत दिन मेरी तस्वीरों की प्रदर्शनी लगी जिसमें मेरी उम्मीद से ज्यादा ही लोग आए थे। इस सबमें मालविका के दफ्तर के कुछ खास सहकर्मियों ने, उसके माता-पिता, सबने पूरा सहयोग दिया था।

सबने तस्वीरों की बहुत तारीफ की, काफी तस्वीरें हाथों-हाथ बिक गयी।

एक अखबार का पत्रकार भी वहां मौजूद था जो उभरते हुए नए कलाकार के रूप में मेरा साक्षात्कार लेना चाहता था।

वहां मौजूद तमाम लोगों ने मुझसे कुछ कहने का आग्रह किया लेकिन मैंने मना कर दिया।

मैं वहां से जाने ही वाला था कि अचानक माइक पर मालविका की आवाज़ आयी।

"यहां उपस्थित तमाम गणमान्य लोगों के बीच मैं कुछ कहने की इजाजत चाहूँगी।

हम सभी अक्सर अपने आस-पास सुनते है, देखते है, महसूस करते है कि समाज में लड़कियों पर बहुत अत्याचार होते है, भेदभाव होता है, उनका शोषण होता है। लेकिन क्या हमारा ध्यान कभी इस तरफ गया है कि इसी समाज में लड़कों का भी शोषण होता है, और उन्हें घुट-घुटकर अकेले जीने के लिए छोड़ दिया जाता है। उनके दिमाग में बचपन से ही ये बात डाल दी जाती है कि लड़के रोते नहीं है, जिसके कारण वो खुलकर अपना दर्द भी नहीं बांट पाते।

आप सब सोच रहे होंगे अचानक मैं ये क्या बातें करने लगी तो इसके पीछे एक बड़ी ही गम्भीर वजह है।

हमारे समाज में अगर लड़की पढ़ने में सही ना हो, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर ना भी हो तब भी उसकी शादी में कोई अड़चन नहीं आती, लेकिन अगर किन्हीं वजहों से कोई लड़का हर तरह से अच्छा होते हुए भी बेरोजगार है तो कोई आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लड़की और उसका परिवार भी उससे रिश्ता जोड़ने से कतराते है क्योंकि सबने ये मान लिया है कि घर की आर्थिक जिम्मदारी मुख्य रूप से पति की ही है, पत्नी की नहीं। पत्नी की नौकरी उसका शौक है और पति की नौकरी उसकी जिम्मदारी।

पति की कमाई पर पत्नी का जीना उसका मान कम नहीं करता, लेकिन पत्नी की कमाई पर पति का रहना उसे पत्नी का गुलाम बना देता है, समाज में उसकी इज्जत डूबा देता है।

क्या ये लड़कों का शोषण नहीं है ? हम बराबरी की बात करते है तो कहां है बराबरी लड़कों और लड़कियों में? क्या इस समाज को अपना ये रवैया बदलना नहीं चाहिए?" कहते हुए मालविका की आवाज़ भर्रा गयी।

किसी तरह अपने आँसुओं को पोंछकर उसने माइक रख दिया।

अब प्रदर्शनी में मौजूद सभी लोग मालविका की बातों पर विचार-विमर्श में लग गए थे।

अगले दिन अखबार में मेरी तस्वीरों की तारीफ के साथ-साथ मालविका के विचारों की भी काफी तारीफ छपी थी। बहुत से लोग सोशल मीडिया पर इसके समर्थन में लिख रहे थे।

आखिरकार मैंने भी खुद को अपनी पुरानी सोच के दायरे से बाहर निकाला और अपनी तरफ बढ़े हुए मालविका के हाथ को थाम लिया हमेशा के लिए।

उसकी हिम्मत ने मुझे भी हिम्मत दे दी थी लोगों की बातों का सामना करने की।

अब हमें किसी की परवाह नहीं थी क्योंकि जिन्हें हमारे साथ होना चाहिए था उनका प्यार और आशीर्वाद हमारे साथ था 'हमारे माता-पिता'।

धीरे-धीरे ज़िन्दगी सामान्य होने लगी थी। मालविका अपने दफ्तर में और मैंने तस्वीरों की अपनी नई श्रृंखला पर काम शुरू कर दिया।

कुछ सालों के बाद हमारे ये दो नटखट 'वेद और नव्या' आ गए हमारे जीवन में और जो भविष्य कभी मुझे बर्बाद और खत्म नज़र आ रहा था आज वहां फिर से खुशियों की आहट सुनाई देने लगी थी।

मालविका की एक आदत जो मुझे हमेशा ही बहुत पसंद रही वो है हर खास मौके को और खास बना देना फिर चाहे वो घर में किसी का जन्मदिन हो, सालगिरह हो, या मेरी तस्वीरों की श्रृंखलाओं की कामयाबी। कभी नए-नए व्यंजन बनाकर, तो कभी अपने हाथों से कार्ड्स, पिक्चर कोलाज बनाकर वो सबकी मुस्कान दोगुनी कर देती है।

इसलिए हमने भी उसके इस खास मौके के लिए इस बार खास तैयारी की है।

अरे देखिए, मैं कब से आप सबके साथ बातों में लगा हुआ हूँ, उधर वेद और नव्या रसोई में मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे।

"पापा, आप डिनर के बाद चुपचाप बिस्तर पर चले जाना वरना मम्मा को शक हो जाएगा। जब वो सो जाएगी तब चुपके से आ जाना" वेद ने कहा।

चंदर ने सहमति में सर हिलाया और खाने की मेज पर आने के लिए मालविका को आवाज़ दी।

मालविका ने जब मेज पर सारा खाना अपनी पसंद का देखा तो उसे बड़ी हैरानी हुई।

"अरे वाह, एक तो जब से तुम दोनों की छुट्टियां शुरू हुई है, तुमने रसोई से मेरी छुट्टी कर दी है, और अब ये मेरी पसंद का खाना, बात क्या है भई?" मालविका ने नव्या और वेद की तरफ देखते हुए पूछा।

वेद ने कहा "मम्मा, अब जब तक हमारी छुट्टी है तब तक आप भी छुट्टी का आनंद लो और हमें भी कुछ नया सीखने दो।"

"और इसी बहाने हम सबको कुछ नया स्वाद चखने दो, तुम्हारे और मेरे हाथों के बने हुए खाने से हम सब ऊब चुके है।" चंदर ने हँसते हुए कहा।

इसी तरह हँसते-बोलते खाना खत्म करके सभी अपने-अपने कमरे में चले गए।

रात के ठीक साढ़े ग्यारह बजे चंदर मालविका की नींद की अच्छी तरह जांच-पड़ताल करके कमरे से बाहर निकला और अपनी तस्वीरों वाले कमरे में पहुँचा जहां वेद और नव्या पहले से ही उसका इंतज़ार कर रहे थे। पूरा कमरा उन्होंने मालविका के प्रिय गुलाब के फूलों से सजा दिया था, साथ में था खूबसूरत सा केक, जन्मदिन की शुभकामनाओं से भरा हुआ खास पोस्टर, और ढ़ेर सारे तोहफे।

जैसे ही बारह बजने को हुआ योजना के अनुसार चंदर जोर से चिल्लाया "आहहहह मालू, बचाओ..."

उसकी चीख सुनकर मालविका की नींद टूटी तो वो समझ गयी कि अगर चंदर यहां नहीं है तो अपनी पेंटिंग वाले कमरे में होगा। वो भागते हुए वहां पहुँची और दरवाजा खोला तो देखा कमरे में अंधेरा था।

बत्ती का बटन दबाते हुए उसने कहा "ओफ्फ हो, ये आधी रात में अंधेरे में यहां क्या कर रहे हो तुम बुद्धूराम ?"

जैसे ही कमरे में रोशनी हुई "हैप्पी बर्थडे मालू" और "हैप्पी बर्थडे मम्मा" की आवाजों से कमरा गूंज उठा।

"अच्छा तो इसलिए घर में शाम से इतनी शांति थी मेरे बदमाशों, ऐसी चीख सुनकर अगर कहीं मुझे अभी हार्ट अटैक आ जाता तो ?" मालविका ने चंदर के कान खींचते  हुए कहा।

"ओहो मम्मा, आपको हार्ट अटैक कैसे आ सकता है? आपका दिल तो पापा के पास है।" नव्या ने शरारत से कहा।

नव्या की तरफ बढ़ते हुए मालविका बोली "रुक तो, अब तेरे कान खींचने की बारी है।"

तभी वेद बीच में आकर बोला "मम्मा, कान खिंचाई बाद में पहले तो केक कटाई। अब सब्र नहीं हो रहा इतना स्वादिष्ट केक देखकर।"

उसकी बात सुनकर सभी हँस पड़े।

केक काटते हुए मालविका की आँखों में आँसू आ गए।

"अरे आज इतनी खुशी के मौके पर ये आँसू क्यों?" चंदर ने उन्हें पोंछते हुए कहा।

नम आँखों के साथ मुस्कुराते हुए मालविका बोली "बस यूँ ही तुम सबका इतना प्यार देखकर।"

"या फिर इसलिए कि आज आप पूरे पचास साल की हो गयी हो मम्मा?" वेद ने कहा।

"अरे किसने कहा मैं पचास की हो गयी, अभी दो साल बाकी है।" मालविका ने हँसते हुए कहा।

"अरे बेटा, औरतों ने भी भला कभी अपनी असली उम्र स्वीकारी है।" मालविका की खिंचाई करते हुए चंदर ने कहा।

"ठीक ही तो कह रही है मम्मा, अभी तो ये जवान है," गुनगुनाते हुए नव्या मालविका के गले लग गयी।

सबकी ज़िद पर मालविका ने उसी वक्त सारे तोहफ़े खोलकर देखे जो कि वेद और नव्या की तरफ से थे।

"अरे पापा, आपका तोहफा कहाँ है?" वेद और नव्या ने हैरत से पूछा।

"आज तुम जो मांगोगी मैं वही तुम्हें दूंगा।" चंदर ने मालविका की तरफ देखते हुए कहा।

मालविका बोली "तुम्हें याद है जब मैंने तुमसे तुम्हारी पहली तस्वीरों की श्रृंखला बनाने के लिए कहा था तब मैंने तुम्हें वचन दिया था कि ये अंतिम चीज तुमसे मांग रही हूँ। तो अब मैं कुछ नहीं मांग सकती तुमसे और वैसे भी सब कुछ तो दिया है तुमने मुझे अपना प्यार, अपनी दोस्ती, ये घर, हमारे बच्चे, बस और क्या चाहिए।"

मालविका का हाथ पकड़कर उठाते हुए चंदर उसे एक दीवार की तरफ ले गया जो पर्दे से ढ़का हुआ था। उसके कहने पर जब मालविका ने वो पर्दा हटाया तो उस दीवार पर चंदर की पहली तस्वीरों की श्रृंखला जो कि उन दोनों के जीवन पर ही आधारित थी, लगी हुई थी, जिसे चंदर ने दोबारा बनाया था अपनी मालविका के लिए।

"तुम्हारे लिए वही तोहफा जो तुमने मांगा था।" चंदर ने कहा और फिर दोनों एक साथ बोल पड़े 'पवित्र रिश्ता'।

वेद और नव्या तालियों के साथ अपने माँ-पापा के इस अनोखे पल में उनकी खुशियों के भागीदार बन रहे थे।


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