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Kumar Vikrant

Horror Romance

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Kumar Vikrant

Horror Romance

प्रेम शिला

प्रेम शिला

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"युवक तुम्हें पता है न इस रात के इस प्रहर इस मार्ग से जाना सुरक्षित नहीं है.........वधु इस प्रकार की पूर्ण चन्द्रमा वाली रात्रि को ही अपने शिकार की खोज में काल वन में विचरण करती है।" रात्रि के रक्षक ने सुकेतु नाम के उस घुड़सवार युवक को चेताते हुए कहा।

"जाने दो रक्षक यह युवराज के मित्र सुकेतु है, वीर है......इन्हें वधु के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ेगा; इनकी वीरता और शक्ति के समक्ष वधु का दर्प भी छिन्न -भिन्न हो जाएगा......." रात्रि के अभिरक्षकों के दलपति ने उपहास के साथ कहा।

दलपति के आदेश का पालन करते हुए रक्षक ने काल वन जाने वाले मार्ग की बाधा हटा दी।

युवक ने उपहास से साथ रात्रि के रक्षक और रक्षकों के दलपति की तरफ देखा और फिर अपने अश्व को दौड़ाते हुए माया वन में प्रवेश कर गया। वो उत्साहित था; आज फिर पूरे चंद्रमा की रात्रि है, प्रेयसी और उसके प्रणय की रात्रि है। माया वन में प्रवेश कर गया, इस रमणीय वन का नामकरण माया वन किस महान विभूति ने किया यह विचारणीय था। कोई माया या मायावी विचरण नहीं करता है इस शांत वन में, वन्य प्राणियों और रूपवती प्रेयसी के अतिरिक्त कोई माया नहीं है वहाँ- यह समस्त विचार मन में लिए हुए सुकेतु ने माया वन में अपने अश्व को दौड़ता रहा।

रात्रि में सदैव पशुओं और पक्षियों के कोलाहल से अशांत रहने वाला माया वन आज शांत था; यदा कदा किसी रात्रिचर पशु या पक्षी की क्षीण सी आवाज अश्वारोही सुकेतु को सुनाई दे जाती थी।

अभी ग्रीष्म ऋतू का अवसान ही हुआ था लेकिन वन प्राणियों के चलने से निर्मित उस मार्ग के साथ उगी वन्य घास और वृक्षों के उस मार्ग पर पड़े बिखरे पत्रो पर गिरती ओस शरद ऋतू के आगमन की सुचना दे रही थी।

प्रेमाग्नि से पीड़ित सुकेतु के अश्व के टापो की ध्वनि शांत वन की नीरवता को भंग कर रही थी, उसके निरंतर दौड़ते हुए अश्व के खुरो से टकराने वाले वृक्षो के टूटे पत्रों पर गिरी ओस की बूंदे निरंतर वायु में उड़ रही थी और यदा-कदा उड़कर सुकेतु के लगाम थामे हाथों और उसके मुख को भी छू जाती थी।

आज वधु के विषय में रात्रि रक्षकों की चेतावनी उसे विचलित तो न कर सकी लेकिन सोचने के लिए थोड़ा विवश अवश्य ही कर गई थी। उसका अश्व त्वरित गति से वन के मध्य स्थित रक्त दुर्ग की और बढ़ा चला जा रहा था और उसी त्वरित गति से अनेक विचार भी सुकेतु के मन मस्तिष्क में घुमड़ रहे थे।

कैसा मूर्खता पूर्ण प्रलाप करते है यह रात्रि के रक्षक........वधु नामक उस सदियों पुरानी किंवदंती से उसे विचलित करने का प्रयास कर रहे था, मूर्ख कहीं के। उन से भी मूर्ख तो वह व्यक्ति रहे है जिन्होंने वधु नामक इस किंवदंती द्वारा युवकों की हत्या किए जाने का इतना प्रचार कर दिया कि यह साधारण सा वन काल वन के नाम से जाना जाने लगा।

आखेट तो मांसाहारी वन्य प्राणियों के जीवन की आवश्यकता है, उनकी क्षुधा शांत करने की विवशता है, ऐसे में कोई मुर्ख मनुष्य उनके समक्ष पड जाए तो उसका आखेट तो वो करेंगे ही, वन्य प्राणियों द्वारा आखेटीत और मृत मनुष्यों के साथ वधु नामक उस किंवदंती को जोड़ना सिर्फ एक मूर्खता है, प्रलाप है।

सदियों पुरानी कोई वधु या उसकी प्रेतात्मा किसी युवक का शिकार करें, यह भी भला कहीं संभव है? आज के युग में इस धरा के प्रत्येक भाग पर मनुष्यों का राज है, ऐसे प्रेतात्मा का होना कैसे संभव है?

प्रेम जाल

यही सब सोचते-सोचते सुकेतु का अश्व विस्मृत वन के खंडहरों तक आ पहुँचा, यही तो प्रेयशी उसे पिछली अमावस की रात मिली थी। उस दिन कुमार चद्रकेतु के साथ अंग देश से आते हुए कलान्त सुकेतु ने जब विस्मृत वन के राजसी खंडहरों में ठहरने का सुझाव दिया तो कुमार हँस कर बोला था, "सुकेतु तुम्हे ज्ञात नहीं है यह राजसी खंडहर शताब्दियों से श्रापित है, यहाँ ठहरने वाले योद्धा भी उस पिशाचिन वधु के द्वारा मृत्यु को प्राप्त होते आए है; मुझे युवावस्था में मृत्यु का वरण करने का सुझाव देकर तुम राजद्रोह के संकेत दे रहे है, महाराज इस कृत्य के लिए तुम्हे मृत्यदंड दे सकते है.......वो इस बात को संज्ञान में नहीं लेंगे कि तुम मेरे परम मित्र हो।"

कुमार की बात से सहमत सुकेतु उस दिन तो कुमार स्वर्ण पूरी में वापिस आ गया था लेकिन उन राजसी खंडहरों के किनारे खड़े झुरमुटों में खड़ी उस मृगनयनी उस कोमलांगी को सुकेतु भूल न सका और रात्रि में जा पहुँचा विस्मृत वन के राजसी खंडहरों में। वो कोमलांगी कहीं न थी, उसने खंडहर का कोना-कोना छान मारा था लेकिन वो कोमलांगी उसे कहीं भी न मिली थी। वो वन से गमन करने ही वाला था कि उसके पीछे से एक नारी स्वर ने उसे स्तब्ध कर दिया।

"किस प्रयोजन से रात्रि के इस प्रहर इस श्रापित खंडहर में विचरण कर रहे हो?"

एक चाँदी से खनकते नारी स्वर ने ने उसका मार्ग अवरुद्ध कर दिया था।

सुकेतु ने पीछे मुड कर देखा तो एक शताब्दियों पुराने वट वृक्ष के नीचे वही कोमलांगी खड़ी हुई थी।

उसे देखकर मंत्रमुग्ध सुकेतु के मुख से स्वर न निकल सका और जो स्वर उसके मुख से निकला था वो कदाचित उसका नहीं था, किसी अन्य व्यक्ति का था, किसी अज्ञानी व्यक्ति का था-

"हे कोमलांगी मैं आज दिन में तुम्हारे नयनों के बाणों से घायल हो चुका हूँ, और उन्हीं नयनों में खो जाने के लिए यहाँ इस वन में विचरण कर रहा हूँ।"

यह अनर्गल प्रलाप करने के बाद सुकेतु को लगा कि वह उस कोमलांगी के प्रेम बाण से विक्षिप्त अवस्था में पहुँच चुका है तभी तो आज उसका उसकी वाणी पर कोई नियंत्रण नहीं है।

"रात्रि के इस प्रहर इस श्रापित खंडहर में मुझे देखकर क्या तुमको किसी प्रकार का भय नहीं है? तुम एक ऐसी युवती से प्रणय निवेदन कर रहे हो जिसके विषय में तुम्हे कुछ भी ज्ञात नहीं है.......क्या तुम्हें तुम्हारे प्राणों का भय नहीं है? क्या तुम्हें उस पिशाचिनी वधु का भी भय नहीं है?" उस कोमलांगी की चाँदी से खनकती वाणी एक बार फिर से सुकेतु के मन मस्तिष्क पर छा गई।

"मैं योद्धा हूँ हे कोमलांगी; मुझे प्राणों का भय क्यों होने लगा? रही उस किवदंती पिशाचिनी वधु की बात; मुझे उस किवदंती पर किंचित भी विश्वास नहीं है। क्या मेरे उत्तर के उपरांत मुझे मेरे प्रणय निवेदन का उत्तर भी मिलेगा हे कोमलांगी?" सुकेतु ने अपने अश्व से उतरते हुए कहा था।

"उत्तर नहीं मिलेगा, पहले सिद्ध करो कि तुम प्रेम के योग्य हो......." कह कर वो कोमलांगी एक हरिणी के समान कुलांचे भरते हुए उस श्रापित राजसी खंडहर की तरह दौड़ पड़ी।

मंत्रमुग्ध सुकेतु ने उसकी चुनौती को स्वीकार किया और उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ पड़ा।

वो कोमलांगी उस श्रापित राजसी खंडहर में प्रवेश कर चुकी थी और वीरता के दर्प में चूर सुकेतु ने भी उसके पीछे दौड़ते हुए राजसी खंडहर में प्रवेश किया और शुरू हुआ लुका छिपी का खेल। रात्रि के अंतिम प्रहर तक वो कोमलांगी उस श्रापित खंडहर में ऊपर से नीचे दौड़ती रही और प्रेम बाण से क्लांत सुकेतु उसके पीछे दौड़ता रहा। उस खंडहर के एक परकोटे पर वो कोमलांगी उसकी पकड़ में आ गई।

वो बुरी तरह हांफते हुए बोली, "युवक मैं वनराज की पुत्री प्रेयशी हूँ, तुम कौन हो?"

"प्रेयशी मैं स्वर्ण पूरी के पूर्व सेनापति वीरभान का पुत्र सुकेतु हूँ......" सुकेतु अपनी भुजाओं में कैद उस कोमलांगी के मस्तक की तरफ देखते हुए बोला।

"सुकेतु, हे प्रिय युवक, मुझे प्रेम करो......" प्रेयसी के मुख से वही चाँदी सा खनकता स्वर निकला।

प्रेम की भाषा

सदैव की भाँति प्रेयसी उसे राजसी खंडहर के शयन कक्ष की प्रस्तर शायिका पर विश्राम करते हुए मिली। वो शयन कक्ष उस खंडहर का सबसे कम क्षतिग्रस्त कक्ष था जो पिछले एक चंद्र पक्ष से प्रेयसी और सुकेतु का प्रेम कक्ष बना हुआ था। उसी कक्ष के मध्य पड़ी एक विशाल प्रस्तर शिला उन दोनों की शायिका बनी हुई थी, जिसे वो दोनों प्रेम शिला कहते थे।

"योद्धा सुकेतु क्लांत लग रहे हो......आओ मेरी प्रेम पाश में समाहित हो जाओ......." प्रेयसी के मुख से निकले खनकते शब्दों ने सुकेतु की सारी क्लांति को हर लिया लेकिन वो उसके हिम समान शीतल मुख को अपने विशाल हाथों में लेते हुआ बोला, "प्रेयसी ये रात्रि के इस प्रहर में मिलन मेरे समक्ष विभिन्न प्रकार की बाधाओं का कारण बन गया है, मेरे माता-पिता मेरे रात्रि भ्रमण से चिंतिंत है। रात्रि रक्षक मेरा उपहास करते है; मुझे संदेह है उनका दलपति किसी दिन मेरे पिता के समक्ष मेरे इस वन भ्रमण को उजागर न कर दे......."

"उजागर कर देगा तो करने दो.......आज तुम मुझे प्रेम करने की अपेक्षा यह किस प्रकार का व्यर्थ प्रलाप कर रहे हो?" प्रेयसी थोड़े से क्रोधित स्वर में बोली।

"प्रेयसी क्रोधित मत होवो बस इतना बता दो हम दिन के उजाले में क्यों नहीं मिल सकते है?" सुकेतु ने प्रेयसी के हिम के समान शीतल हाथों को सहलाते हुए पूछा।

"प्रेम वो भी दिन के उजाले में? यह किस प्रकार के प्रेम की बात कर रहे हो योद्धा?" इस बार प्रेयसी का स्वर थोड़ा सा कटु था।

"हृदय के प्रेम के लिए क्या रात्रि क्या दिवस, मेरी उलझन को समझो प्रेयसी; कदाचित अब मैं रात्रि के इस प्रहर में माया वन में तुमसे मिलने न आ सकूँगा......." सुकेतु ने प्रेयसी के केशों का विन्यास करते हुए कहा।

"मेरे शरीर को पाने के उपरांत तुम्हारे मुख से इस प्रकार का प्रलाप सुशोभित नहीं होता है प्रिय........" प्रेयसी ने पूर्व की भांति कटु स्वर में कहा।

"क्रोधित न होवो प्रिय, मुझे दिवस के उजाले में तुमसे मिलने का अवसर दो; मुझे तुम्हारे शरीर की नहीं तुम्हारे हृदय की आवश्यकता है, उसके लिए हम रात्रि के इस प्रहर के प्रेम तक ही सीमित क्यों रहे?" सुकेतु ने प्रेयसी को अपनी प्रेम पाश में लेते हुए कहा।

"युवक क्या यह तुम्हारे प्रेम की भाषा है? मैंने तुम्हे बता दिया है कि मेरे लिए रात्रि के इस प्रहर के अतिरिक्त किसी अन्य समय तुमसे मिलना संभव नहीं है; अब समय व्यर्थ न करो, मुझे प्रेम करो......" प्रेयसी क्रोधित स्वर में बोली।

"प्रेयसी यही तो प्रेम की भाषा है, हम शरीर तक ही सीमित क्यों रहें; हमे एक दूसरे के हृदय के स्पंदन को भी सुनना चाहिए......" सुकेतु प्रेम पूर्वक बोला।

"तुम मेरे प्रणय निवेदन का अपमान कर रहे हो युवक.......मुझे क्रोधित न करो......" प्रेयसी के मुख से एक गुर्राहट भरा स्वर निकला।

"कोई अपमान नहीं प्रिय........" सुकेतु ने कहना चाहा।

"तुम मुर्ख हो युवक तुमने प्रेमांध होकर आज तक तो मेरा हृदय स्पंदन नहीं सुना; परन्तु तुम्हें आज मेरा हृदय स्पंदन सुनना है तो सुनो।" कहते हुए प्रेयसी ने अपने शीतल हाथो से सुकेतु का सिर पकड़ कर अपने वक्ष स्थल पर लगा दिया।

सुकेतु को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसे हिम की किसी शिला ने छू लिया है, लेकिन फिर भी प्रेयसी के हृदय का स्पंदन सुनने का प्रयास करता रहा; परन्तु उसके वक्ष स्थल में किसी प्रकार का स्पंदन नहीं हो रहा था।सुकेतु ने प्रेयशी को धक्का देकर स्वम से दूर किया और उस प्रेम कक्ष से भागने का प्रयास किया।

"मुर्ख तू मेरी प्रेमपाश से बचकर कहीं नहीं जा सकेगा, अब तू मुझसे रात्रि और दिवस के जिस प्रहर मेरी इच्छा होगी तू मुझे प्रेम करेगा........" प्रेयसी के मुख से चांदी जैसे खनकते स्वर के स्थान पर भिनभिनाता सा स्वर निकला।

"तू वो पिशचिनी वधु है......मुझे जाने दे पिशाचिनी, मेरे माता-पिता मेरी प्रतीक्षा कर रहे है।

"मुर्ख है तू, तूने मेरा वरण करते समय तो अपने माता-पिता को स्मरण नहीं किया था.......इस प्रेम शिला की तरफ देख......तूने इस शिला पर ही मुझसे प्रेम किया है.....आ अब इस शिला में ही समाहित हो जाते है.......इस प्रेम शिला में तेरे जैसे असंख्य युवक समाहित है, आ चल उन युवकों से भी तुझे परिचित करा दूँ।" कहते हुए प्रेयसी ने उछल कर सुकेतु को अपनी भुजा पाश में लिया और उस प्रेम शिला में समाहित हो गई।

अब तक शांत पड़े वन में कोलाहल सा मच गया और हिंसक रात्रिचर अपने आखेट पर निकल पड़े।


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